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बात बोलेगी: ऐतिहासिक मोड़ पर पहुंचा श्रीलंका, कमान जनता के हाथ

श्रीलंका में बहुत तेजी से घटनाएं घट रही हैं। इस लेख को लिखे जाने तक यह बात साफ़ हो गई थी कि आंदोलन ने जीत की तरफ़ क़दम बढ़ा दिए हैं।
बात बोलेगी: ऐतिहासिक मोड़ पर पहुंचा श्रीलंका, कमान जनता के हाथ
तस्वीर साभार: NDTV

भारत के पड़ोसी देश श्रीलंका में जिस तरह से राजनीतिक घटनाक्रम की कमान, लंबे समय से देश को रसातल में जाने से बचाने के लिए, संघर्षशील जनता के पास गई है—वह निश्चित तौर पर ऐतिहासिक है। ऐसा नजारा, हाल-फिलहाल के इतिहास में देखने को नहीं मिलता—जहां लाखों की तादाद में नागरिक ऐसी तानाशाही-क्रूर दमन करने वाली सत्ता के मुखिया (राष्ट्रपति) के घर को घेर लें-कब्जा कर ले, जिसने कुछ साल पहले ही नफ़रती-खूनी एजेंडे पर सवारी करके अकूत बहुमत हासिल किया था।

श्रीलंका के राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे को देश छोड़ कर भागना पड़ा, लेकिन अभी भी वह सत्ता की कमान छोड़ने को तैयार नहीं हैं। उन्होंने श्रीलंका संसद के स्पीकर के जरिये प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे को अंतरिम राष्ट्रपति नियुक्त कर दिया है, जिन्होंने सेना को कार्रवाई का आदेश दे दिया है। इससे बड़े पैमाने पर हिंसा की आशंका बलवती हो गई है।

संसद की तरफ बढ़ रहे आंदोलनकारियों पर आंसू गैस छोड़े जा रहे हैं और कोलंबो सहित कई शहरों पर प्रदर्शनकारी अड्डों के करीब बहुत नीचे हेलिकॉप्टर भी उड़ते देखें गये हैं। इससे यह डर बढ़ रहा है कि सेना बड़े पैमाने पर आंदोलनकारियों पर हिंसा का इस्तेमाल कर सकती है। जिस तरह की अभूतपूर्व स्थिति से श्रीलंका गुजर रहा है, उसमें ये तमाम आशंकाएं पैदा होती ही हैं, लेकिन अब स्थिति आंदोलनकारियों के पक्ष में है।

संसद की तरफ बढ़ रहे लाखों श्रीलंका निवासियों ने देश को क्रूर और पूरी तरह से जनविरोधी सत्ता को बाहर का रास्ता दिखाने का हौसला दिखाया है।

हालांकि तमाम विपक्षी दलों, पार्टी नेताओं ने यह फैसला लिया कि रानिल विक्रमसिंघे को भी राष्ट्रपति गोटाबाया के साथ इस्तीफा देना चाहिए। चीफ विपक्षी व्हिप नेता सांसद लक्ष्मण केरिला ने कहा कि सेना के तीनों कमांडर ने रानिल विक्रमसिंघे से यह अपील की है कि वह तुरंत गद्दी छोड़ें। स्पीकर ने भी सुरक्षा बलों से यह अपील की है कि वह प्रदर्शनकारियों से बातचीत करके रास्ता निकाले, हिंसा का इस्तेमाल न करें। इन तमाम डेवलेपमेंट से यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि श्रीलंका में सत्ता आंदोलनकारियों के साथ है और सिस्टम का हर हिस्सा शांतिपूर्ण समाधान के लिए तैयार है। हालांकि जब तक ऐसा हो न जाए, तब तक कुछ कहना मुश्किल है, लेकिन श्रीलंका का भविष्य राजपक्षे मुक्त है।

इस क्रम में UNHRC ने टकराव और हिंसा की आशंका को बलवती देख यह अपील की है कि सारे पक्ष हिंसा का इस्तेमाल न करें औऱ शांतिपूर्ण ढंग से सत्ता के हस्तांतरण को होने दें।

इसी कड़ी में श्रीलंका सेना का बयान बहुत मानीखेज है जिसमें कहा है कि कानून व्यवस्था बनाने के लिए राजनीतिक समाधान जरूरी है। जनता ने जिस तरह से राष्ट्रपति भवन से लेकर प्रधानमंत्री कार्यालय और अब संसद की तरफ मार्च किया है—ये सारी प्रक्रिया 100 फीसदी शांतिपूर्ण रही है।

यह इस आंदोलन की, जिसमें बहुत बड़ी संख्या में नौजवान शामिल है, उसकी ऊर्जा-वेग, संयम और तारत्मय बहुत बड़ी खासियत के तौर पर सामने आया है। कहीं कोई तोड़-फोड़ किये बिना राष्ट्रपति भवन में तमाम आलीशान सुविधाओं का श्रीलंका की श्रमजीवी जनता ने आनंद उठाया, वह बहुत दिनों तक याद रहेगा। चाहे वह एक बुजुर्ग महिला का राष्ट्रपति की कुर्सी पर पूरे अधिकार के साथ बैठना हो, या फिर स्वीमिंग पूल में नहाना, जिम में ट्रेडमिल पर दौड़ना या फिर किचन में मिलकर खाना बनाना। हर जगह आंदोलन ने अपनी एक व्यवस्था बनाए रखी, कोई आपसी टकराव नहीं।

बात बोलेगी: ऐतिहासिक मोड़ पर पहुंचा श्रीलंका, कमान जनता के हाथ

जितनी मुद्रा राष्ट्रपति भवन से मिली, सबको गिनकर पुलिस के हवाले देकर भी एक लंबी लकीर खींची आंदोलन ने। फिर राष्ट्रपति भवन से क्रांतिकारी गीतों का गान—जिसमें इटली का मशहूर परिवर्तनकामी गीत—बेला चाओ भी शामिल था—एक अलग ढंग का संदेश पूरी दुनिया को देने के लिए पर्याप्त था।

इस आंदोलन के पक्ष में नौजवानों-ट्रेड यूनियन एक्टिविस्टों, मजदूर-किसानों के साथ-साथ बड़ी तादाद में श्रीलंका के सेलिब्रिटी, तमाम नामचीन क्रिकेटर भी समर्थन में उतरे हैं। चाहे वह क्रिकेटर सनथ जयसूर्या हों या फिर कुमार संगकारा सहित अनगिनत नामचीन चेहरे सबने कहा कि राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री इस्तीफा दें और जनता को पूरा हक है एक नाकारा सरकार को बदलने का।

Bhashaश्रीलंका के कैंडी शहर में रहने वाले मानवाधिकार कार्यकर्ता डॉ. सिवाप्रगासम के साथ ताज़ा हालात पर बातचीत।

मैंने जब कोलोंबो व कैंडी शहर के पत्रकारों तथा सामाजिक कार्यकर्ताओं से बात की तो उनका स्पष्ट कहना था कि गोटाबाया और विक्रम को वे किसी भी रूप में बर्दाश्त नहीं करेंगें। इन्हें सत्ता से बाहर जाना ही होगा। समाज के सभी तबकों का आंदोलन को समर्थन हासिल है और यही इसकी बड़ी मजबूती का कारण है।

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उधर, गोटाबाया राजपक्षे सेना के जेट से भागकर मालदीव की राजधानी माले में पहुंच तो गये हैं, लेकिन वहां पर भी जो श्रीलंका निवासी बसे हैं, उन्होंने उनके ख़िलाफ प्रदर्शन किया और तख्तियां दिखाईं GO HOME RAJAPAKSAS. मालदीव की मालदीवस नेशनल पार्टी (MNP) ने इस बात पर गहरी नाराजगी दर्ज कराई है कि आखिर क्यों मालदीव सरकार ने श्रीलंका के राष्ट्रपति गोटाबाया को उनके देश में आने की इजाजत दी।

संयुक्त अरब अमीरात की तरफ राजपक्षे की जाने की भी खबर है। यानी वह किसी भी सूरत में श्रीलंका की तरफ नहीं आएंगे। बहुत तेजी से घटनाएं घट रही हैं श्रीलंका में।

इस लेख को लिखे जाने तक यह बात साफ हो गई थी कि आंदोलन ने जीत की तरफ कदम बढ़ा दिए हैं। जिस तरह का जन दबाव है, उसमें सत्ता हस्तांतरण के अलावा कोई और विकल्प नहीं है। आंदोलनकारी, राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री को सत्ता से बाहर फेंकने के साथ-साथ बड़े पैमाने पर परिवर्तन करने की तैयारी में हैं। गौरतलब है ऐतिहासिक आंदोलन को देखते हुए जो राष्ट्रपति राजपक्षे ने घोषणा की थी कि वह 13 जुलाई को इस्तीफा दे देंगे, उस पर भी उन्होंने धोखा दे दिया है। दिलचस्प बात यह है कि जिस तरह से राजपक्षे परिवार श्रीलंका से भाग रहा था, उससे यह आभास हो रहा था कि उसके लिए दिन बहुत खराब हो गया है। अंत में राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे भागे, मालदीव और वहां से संभवाना जताई जा रही है कि वह यहां से संयुक्त अरब अमीरात भागेंगे।

श्रीलंका की राजनीति को रिमोट कंट्रोल से चलाने की कोशिश के तहत ही उन्होंने अपने प्रधानमंत्री रानिल विक्रमिसिंघे को कार्यकारी राष्ट्रपति नियुक्त कर दिया है, जिसकी घोषणा श्रीलंका की संसद के स्पीकर ने की। प्रधानमंत्री दफ्तर ने पूरे श्रीलंका में आपातकाल घोषित कर दिया है। तुरंत ही रानिल विक्रमिसिंघे ने सोशल मीडिया पर अपना प्रोफाइल बदल कर एक्टिंग राष्ट्रपति कर लिया है। यानी, किसी भी तरह से सत्ता पर नियंत्रण रखने की अंतिम दम तक कोशिश में गोटाबाया लगे हुए हैं।

श्रीलंका का राष्ट्रीय टीवी ऑफ-एयर हो गया। प्रदर्शनकारी वहां भी पहुंच गये। सेना और पुलिस प्रदर्शनकारियों पर बड़े पैमाने पर आंसू गैस से छोड़ने की खबरें हैं। अनिश्चितकालीन कर्फ्यू लगा दिया गया है। प्रदर्शनकारियों-आंदोलनकारियों ने प्रधानमंत्री के दफ्तर पर भी कब्जा कर लिया है, और यह ऐलान किया है कि अब वे संसद की तरफ मार्च करेंगे और तब तक अपना आंदोलन जारी रखेंगे जब तक राष्ट्रपति इस्तीफा नहीं देते। उनकी मांग है प्रधानमंत्री रेनिल विक्रमिसिंघे भी इस्तीफा दें। दोनों को ही गद्दी से उतारने के लिए जनांदोलन दृढ़ प्रतिज्ञ नजर आ रहा है।

इन सबके बीच श्रीलंका के आंदोलन ने यह लिख दिया कि राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री अब चर्चा से भी बाहर है, राजनीतिक घटनाक्रम ने उन्हें हाशिये पर भी नहीं छोड़ा है।

महज दो साल में अकूत बहुमत से सत्ता हासिल करने वाला परिवार किस तरह से सबसे बड़े विलेन के रूप में जनता में बैठ गया, यह विकासक्रम बहुत कुछ कहता है। श्रीलंका में राजपक्षे जिस तरह से तमिल इलम का खौफनाक ढंग से संहार करके सत्ता में भारी बहुमत के साथ आए थे, उस समय शायद ही किसी ने ये सोचा होगा कि उनका हश्र यह होगा।

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वर्ष 2020 में यानी दो साल पहले ही राजपक्षे की पार्टी श्रीलंका पीपुल्स फ्रंट ने 225 सीटों में से 145 सीटें जीती थी, साथ में पांच सीटें उनके सहयोगी दलों को मिली थीं। राजपक्षे ने अपने पूरे शासनकाल में सबसे पहले अल्पसंख्यकों पर हिंसा का जो सिलसिला शुरू किया, वह बेहद खूनी और हिंसक रूप लिये हुआ था। जिस तरह से अपने शासनकाल में 2009 में तमिल ईलम-लिट्टे (लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम) का जिस अमानवीय ढंग से सफाया किया, उसकी दुनिया भर में आलोचना हुई। राजपक्षे के खिलाफ युद्ध अपराध का मामला दर्ज करने की, अंतर्राष्ट्रीय जांच की मांग भी लंबित है। लेकिन इसकी बदौलत, श्रीलंका में राजपक्षे ने बड़ा बहुमत हासिल किया। लेकिन नफ़रती एजेंडा रुका नहीं। श्रीलंका के दूसरे अल्पसंख्यक समूहों—मुसलमानो-ईसाइयों के खिलाफ नफरत औऱ हिंसा सरकारी एजेंडे पर रही। लेकिन इस नफरती एजेंडे ने देश की अर्थव्यवस्था को रसातल में पहुंचा दिया। एक तानाशाही सरकार किस तरह से एक के बाद एक जनविरोधी कदम उठाती है—इसे भी श्रीलंका की राजपक्षे सरकार ने दिखाया।

लोग इन विनाशकारी नीतियों से त्राहि-त्राहि करते रहे—खाने को अनाज नहीं, ईंधन नहीं, पेट्रोल-डीजल नहीं, नौकरी नहीं—यानी पूरी तरह से तबाही। तकरीबन एक साल से अधिक समय से जनता जिंदा रहने के लिए संघर्ष करती रही और तानाशाही सरकार मगन रही। ऐसे में आंदोलन का रूप बना, कड़ी से कड़ी जुड़ी। कोई बड़ा राजनीतिक दल नहीं नेतृत्व में था, जनता औऱ खासतौर नौजवान इसकी कमान संभाले हुए थे। पिछले तीन महीने इस आंदोलन के लिए निर्णायक साबित हुए।

(भाषा सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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