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श्रीलंका के लोगों का गुस्सा राष्ट्रपति भवन तक क्यों पहुंच गया?
जाफ़ना यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर अहिलान कादिरगमर पीपल्स डिस्पैच के अपने इंटरव्यू में बताते हैं कि श्रीलंका में बदहाली कैसे आई?
अजय कुमार
13 Jul 2022
srilanka

महीनों के विरोध प्रदर्शन के बाद 9 जुलाई को श्रीलंका की जनता ट्रेन और सड़कों से होते हुए श्रीलंका के तकरीबन सभी आधिकारिक भवनों में घुस गयी। राष्ट्रपति भवन से लेकर सचिवालय और श्रीलंका के तमाम आधिकारिक भवनों में आम जनता का हुजूम दिखा। ढाई साल पहले यही जनता श्रीलंका के मौजूदा राष्ट्रपति को अपने देश का तारणहार बताकर पेश कर रही थी। वही जनता इस बात पर उतारू है कि मौजदा सत्ता का संरचना का कोई भी सदस्य श्रीलंका की सत्ता की बागडोर न संभाले। इसलिए किसी भी तरह का जुगाड़ू हल श्रीलंका की जनता को रास नहीं आ रहा है।

जाफ़ना यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर अहिलान कादिरगमर पीपल्स डिस्पैच के अपने इंटरव्यू में बताते हैं कि श्रीलंका में बदहाली कैसे आई?

 इस सवाल का जवाब देते हुए लोग राजपक्षे सरकार की ढाई साल की नीतियों को दोष देते हैं। महामारी को दोष देते हैं। श्रीलंका के लिए गए कर्ज को दोष देते हैं। श्रीलंका की खेती की दुनिया में अचानक से रासायनिक खाद से जैविक खाद की तरफ बढ़ने को दोष देते हैं। श्रीलंका के आर्थिक संकट के लिए यह सब कारण दोषी हैं लेकिन यह सब तात्कालिक कारण हैं।

श्रीलंका की आर्थिक संकट की जड़ें दशकों से अपनाई गयी श्रीलंका की आर्थिक नीतियों में दबी हैं, श्रीलंका के उस एलीट वर्ग के सोच में मौजूद हैं, जो श्रीलंका पर दशकों से राज करते आये हैं। श्रीलंका की एलीट की सोच थी कि श्रीलंका सिंगापुर की तरह बने। दक्षिण एशिया में श्रीलंका ऐसा पहला देश है, जहाँ पर उदारीकरण की नीति लागू हुई। श्रीलंका की पूरी अर्थव्यवस्था को साल 1977 में सरकारी नियंत्रण से आज़ाद कर दिया गया। उसके बाद श्रीलंका में ऐसी नीतियां बनने लगी जिनका ज्यादा ध्यान जनता की तरफ नहीं था। ट्रिकल डाउन इफ़ेक्ट की बात कही जाती थी। नीतियां जनता से कटी हुईं थी।

जुलाई 1983 के बाद श्रीलंका की भीतरी लड़ाई धीरे-धीरे लंबे गृह युद्ध में तब्दील हो गयी। तमिल अल्पंख्यकों के ख़िलाफ़ जमकर नफ़रत का माहौल बनाया गया। राज्य ने भी इसमें भरपूर सहयोग दिया। साल 2009 में जब युद्ध खत्म हुआ तो श्रीलंका के खिलाफ इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट में राज्य समर्थित हिंसा का मामला दर्ज हुआ। इसके बाद श्रीलंका ने जमकर उदारीकरण की नीतियां अपनाई।

 1977 के बाद से श्रीलंका का फिर से इंटरनेशनल मॉनेटरी फंड से समझौता हुआ। उसकी अर्थव्यवस्था को पॉजिटिव इकॉनमी का दर्जा मिला। श्रीलंका में जमकर पैसा आने लगा। जमकर इन्वेस्टमेंट हुआ। श्रीलंका को इमर्जिंग मार्केट कहा गया। यह पैसा आता गया और शहरी श्रीलंका में चमचमाहट भी दिखने लगी। श्रीलंका की आर्थिक वृद्धि दर भी तेजी से बढ़ने लगी। लेकिन यह सब एक तरह आर्थिक बुलबुला था। ऐसा बुलबुला जिसमें अमीरों की तो कमाई होती है लेकिन बहुत बड़ी आबादी तक पैसा नहीं पहुंच पाता है। बाहरी चमक तो दिखती है लेकिन भीतर से अर्थव्यवस्था खोखली होती जाती है। ऐसी जगहों पर पैसा नहीं लगता जो इस तरह की उत्पादक काम का हिस्सा हो जिससे बहुत बड़ी आबादी को रोजगार मिले और उनके जीवन स्तर में बढ़ोतरी हो।

श्रीलंका में आया पैसा तो कर्ज के तौर पर था। कर्ज अदायगी नहीं हुई। ऐसी स्थिति में इंटरनेशनल मॉनेटरी फण्ड के साथ समझौते नहीं होने चाहिए थे। लेकिन इंटरनेशनल मॉनेटरी फंड के साथ श्रीलंका के 16 समझौते हुए। यानी श्रीलंका को तकरीबन 16 बार संकेत मिले कि उसे कर्ज के जाल से जल्द से जल्द निकल जाना चाहिए लेकिन श्रीलंका बाहर नहीं निकला। श्रीलंका का कर्जा बढ़कर 50 बिलियन डॉलर तक पहुंच गया है।

एक डॉलर के लिए तकरीबन 360 श्रीलंकन रुपए का भुगतान करना पड़ रहा है। अगर $1 के लिए 360 श्रीलंकन रुपए का भुगतान करना पड़ रहा है तो आप खुद सोच कर देखिए कि श्रीलंका जैसा द्वीपीय देश जिसकी बुनियादी जरूरतें भी आयात पर निर्भर हैं उसके लिए जिंदगी कितनी कठिन होती जाती होगी। यही वजह है कि पेट्रोल-डीजल से लेकर कपड़ा कागज तक सब कुछ खरीदने के लिए श्रीलंका के लोगों को लंबा इंतजार करना पड़ रहा है।

वर्ल्ड फ़ूड प्रोग्राम के मुताबिक श्रीलंका की तकरीबन 2.2 करोड़ आबादी में से तकरीबन 49 लाख आबादी ढंग से खाने का इंतज़ाम नहीं कर पा रही है। तकरीबन 66% आबादी दिनभर में पहले जितनी बार भोजन करती थी, उसमें कटौती कर रही है। हाल फिलहाल श्रीलंका की आर्थिक स्थिति ऐसी है कि कोई नहीं बता सकता इस आर्थिक संकट से किस तरह से निकला जाएगा? खतरनाक आर्थिक संकट में पहुंच गया है, अगर ईमानदारी से काम किया जाए तब भी जिसे भरने में बहुत लंबा समय लग जाएगा।

श्रीलंका के समाज पर सिंहला बहुसंख्यवाद शुरू से हावी रहा है। इस बहुसंख्यवाद को आगे कर पहले तमिलों के साथ लम्बा संघर्ष चला उसके बाद मुस्लिमों के साथ। एक तरह से कहा जाए तो तमिलों के साथ चले लम्बे संघर्ष और मुस्लिम नफरत ने श्रीलंका को बर्बाद कर दिया। जिस तरह से भारत में मुस्लिमों के साथ नफरत को आगे कर जनता को उनकी बुनयादी जरूरतों से दूर किया जाता है। ठीक यही हाल श्रीलंका के साथ भी रहा है। गृह युद्ध में कर्जा के ऊपर कर्जा लेकर हथियार खरीदा जाता रहा। जिसका परिणाम अभी भुगतना पड़ रहा है। नेताओं की कारगुजारियों पर ध्यान देने की बजाए सिंहला गौरव को लेकर ज्यादा उबाल रहा। नेता सत्ता तक पहुंचते रहे और जनता बर्बाद होती रही।

राष्ट्रपति चुनाव में गोटाबाया को 50 प्रतिशत से ज्यादा वोट मिले। जिन जिलों में श्रीलंका की सिंहला आबादी बहुसंख्यक थी,वहां पर अल्संख्यकों को एक भी सीट नहीं मिली। चुनाव के समय नारा लग रहा था कि भले भूखें रह जाए लेकिन देश सुरक्षित रहना चाहिए। गोटाबाया पर तमिल नरसंहार के आरोप लगे हैं। लेकिन फिर भी एक मजबूत नेता के नाम पर उनके लिए जमकर माहौल बनाया गया। मीडिया की ढेर सारी रिपोर्टें नफरत का माहौल बनाकर जनसमर्थन जुटाने की कवायद से जुड़ी मिल जाएंगी।

श्रीलंका पर बहुत लम्बे समय से राजपक्षे परिवार का शासन रहा है। परिवार के सभी सदस्य किसी न किसी पद पर रहे हैं। शासन की बागडोर इनके हाथ में ही रही है। भारत में कहने के लिए कम से कम फ़ेडरल सरकार तो है लेकिन श्रीलंका एकात्मक प्रणाली से चलता है। कहने वाले कहते हैं कि सारे फैसले कोलम्बों में बैठने वाला एक समूह लेते आ रहा है। श्रीलंका की सरकार में श्रीलंका के सभी वर्गों की भागीदारी कभी नहीं रही। न ही इस पर कभी बहस हुई। सारी बहस केवल इसपर सिमटी थी कि कैसे सिंहला के अलावा सबको दोयम दर्जे का नागरिक रहने दिया जाए। इसका असर यह हुआ कि पहले तमिल अल्पसंख्यक पर प्रताड़ना बढ़ी, उसके बाद मुस्लिमों पर, अब हाल यह है कि श्रीलंका का बहुसंख्यक समाज भी प्रताड़ना की चपेट में आ गया है। अब श्रीलंका के बहुसंख्यक समाज पर भी मार पड़ रही है।  

श्रीलंका की मौजूदा हालत यह है कि श्रीलंका के राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे ने इस्तीफ़ा नहीं दिया है लेकिन देश छोड़कर मालदीव भाग गए हैं। सड़कों पर जमकर प्रदर्शन हो रहा है। विरोध उग्र हो गया। प्रधानमंत्री के तौर पर मौजूद रानिल विक्रमसींघें ने देश में इमेरजेंसी का एलान कर दिया है।  

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