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श्रीलंका संकट: दर्द भी क़र्ज़ और दवा भी क़र्ज़

दुनिया भर की: यह कोई आकस्मिक घटनाक्रम नहीं है। कोविड के दौर ने इसकी रफ़्तार और मार को भले ही थोड़ा तेज़ बेशक कर दिया हो लेकिन यह लंबे समय से चली आ रही नीतियों का नतीजा है। यह संकट उन तमाम अर्थव्यवस्थाओं के लिए है जो आयात पर बहुत ज्यादा निर्भर रहती हैं।
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श्रीलंका में केरोसिन के लिए कतार में लगे लोग। फोटो साभार: रायटर्स

पिछले दिनों खबरें आ रही थीं कि किस तरह से श्रीलंका के लोग बढ़ती महंगाई के कारण अपने घरेलू खर्चों और यहां तक कि रोजमर्रा के खानपान में भी कटौती कर रहे हैं। एक लीटर पेट्रोल की कीमत तीन महीने में दोगुनी से भी ज्यादा हो चुकी है। इस कीमत पर भी पेट्रोल व केरोसिन हासिल करने के लिए इतनी लंबी कतारें लग रही हैं कि श्रीलंका सरकार को गैस स्टेशनों पर स्थिति को काबू में रखने के लिए सेना की टुकड़ियों को भेजा है। कतारों में लगे वृद्ध लोगों की जानें गई हैं और किल्लत से परेशान लोगों के बीच हिंसा की घटनाएं हुई हैं।

हालत किस तरह से बिगड़ चुकी है इसका अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि वहां के दो प्रमुख अखबारों ने न्यूजप्रिंट न मिलने के कारण अपने प्रिंट संस्करण अनिश्चितकाल के लिए बंद कर दिए। अब जरा सोचिए कि जिन संस्थाओं के पास इन मुश्किल दिनों की खबरें लोगों तक पहुंचाने का जिम्मा हो, वो खबरें ही न छाप सकें।

यह संकट तमाम क्षेत्रों में है। केवल कागज-कागज के ही संकट की बात करें तो इसका असर कितना है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि श्रीलंका के शिक्षा विभाग को बच्चों की परीक्षाएं स्थगित करनी पड़ीं क्योंकि पर्चे छापने के लिए कागज नहीं था। इसी वजह से अगले सत्र के लिए पढ़ाई की किताबें भी नहीं छप पाई हैं। अब हम सोच सकते हैं कि मसला केवल रोजमर्रा की महंगाई और जरूरी सामान की कमी तक सीमित नहीं है। इसका असर और गहरा है।

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श्रीलंका बड़ा खूबसूरत द्वीप देश है। भारतीय सैलानियों के लिए भी पसंदीदा रहा है क्योंकि वहां की मुद्रा भारतीय रुपये से हमेशा कमजोर रही है, लिहाजा एक वो जगह है जहां हिंदुस्तानी दिल खोलकर खर्च कर सकते हैं। ऐसा भी रहा है कि कई मर्तबा श्रीलंका में छुट्टी मनाना, भारतीय सैलानियों के लिए अपने देश में गोवा या केरल में छुट्टी मनाने से सस्ता सौदा रहा है। आबोहवा, खानपान में भी श्रीलंका भारत से काफी मिलता-जुलता है।

वहीं, श्रीलंका के मौजूदा आर्थिक हाल से भी हम हिंदुस्तानी काफी कुछ अपनी यादें जोड़ सकते हैं। वहां का मौजूदा आर्थिक संकट बहुत कुछ वैसा ही है जैसा हमने 1991 में चंद्रशेखर की सरकार के समय देखा था, जब हमें अपने देश का सोना गिरवी रखना पड़ा था। उस संकट की परिणति खुले बाजार की आर्थिक व्यवस्था को अपनाए जाने के रूप में हुई थी। कितना अच्छा हुआ और कितना बुरा, यह अलग विषय है।

लेकिन, उस समय की भारत की स्थिति के ही अनुरूप इन दिनों श्रीलंका भी विदेशी मुद्रा की भारी तंगी से गुजर रहा है, जिसकी वजह से उसके लिए आयात करना मुश्किल हो रहा है। वह दूसरे देशों से लिए कर्जे चुका नहीं पा रहा है। और, वह कर्ज पुनर्भुगतान के मामले में डिफॉल्टर बनने के कगार पर खड़ा है जिसके लिए वह भारत व चीन से मदद मांग रहा है और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के सामने भी हाथ फैला रहा है।

खबरों के अनुसार श्रीलंका ने जरूरी सामान के आयात के लिए भारत से एक अरब डॉलर की क्रेडिट लाइन और मांगी है। कुछ ही दिन पहले भारत श्रीलंका को एक अरब डॉलर की क्रेडिट लाइन पहले ही मंजूर कर चुका है। यह क्रेडिट लाइन श्रीलंका को भारत की मौद्रिक साख के आधार पर जरूरी वस्तुओं का आयात करने में मदद देगी। भारत पहले भी श्रीलंका को तेल की खरीद के लिए 50 करोड़ डॉलर की क्रेडिट लाइन दे चुका है और 40 करोड़ डॉलर के मूल्य के बराबर मुद्रा की अदला-बदली कर चुका है।

भारत के सामने 1991 में ठीक यही साख का संकट था और हम भी विदेशी कर्ज के डिफॉल्टर बनने से महज चंद हफ्ते दूर थे। अंतर केवल इतना है कि हमारा वह हाल कथित ‘आर्थिक उदारीकरण’ के पहले ही हो गया था और श्रीलंका उस ‘उदार’ अर्थव्यवस्था पर चलते हुए अब इस हाल में आ पहुंचा है।

उसी साल यानी 1991 में अमेरिकी अर्थशास्त्री शेरिल पेयर की एक किताब आयी थी- लेंट ऐंड लोस्ट . कुछ साल बाद मुझे हिंदी के एक बड़े प्रकाशक के लिए उस किताब का हिंदी तर्जुमा करने का भी मौका मिला था। यह किताब आईएमएफ और विश्व बैंक की नीतियों व कार्यशैली की पोल खोलती थी। मोटे तौर पर यह विकासशील और कम विकसित देशों को ‘कर्जा लेकर घी पीयो ’ के चक्र में धकेलने की कवायद को बेपर्दा करती थी।

श्रीलंका इस समय उसी जाल में है। यह कोई आकस्मिक घटनाक्रम नहीं है। कोविड के दौर ने इसकी रफ्तार और मार को भले ही थोड़ा तेज बेशक कर दिया हो लेकिन यह लंबे समय से चली आ रही नीतियों का नतीजा है। यह संकट उन तमाम अर्थव्यवस्थाओं के लिए है जो आयात पर बहुत ज्यादा निर्भर रहती हैं। घरेलू उत्पादन कम से कम होना, भ्रष्ट शासन, खराब राजकोषीय प्रबंधन, सत्ता पर चंद कुलीनों का कब्जा, अपनों की जेबें भरने की कवायद, दिशाहीन नीतियां, करों में उद्देश्यहीन कटौतियां लंबे समय में ऐसे हालात पैदा करते हैं। फिर जब कोविड के दो सालों में पर्यटन पर रोक लग गई, विदेशों से धन आना बंद हो गया तो अर्थव्यवस्था चरमरा गई।

यह सूरत भी कई महीनों से नजर आ ही रही थी लेकिन वहां की सरकार खुद को और देश के लोगों को भुलावे में रखती रही। आर्थिक लिहाज से इस तरह का संकट तब शुरू होता है जब आपका विदेशी मुद्रा भंडार, आपके द्वारा साल भर में किए जाने वाले कर्ज के पुनर्भुगतान की मात्रा से कम हो जाए। यानी तब आपके सामने यह सवाल खड़ा हो जाता है कि आप इस साल कर्ज की अदायगी कैसे करेंगे। फरवरी में श्रीलंका की हालत यह थी कि उसके पास केवल 2.31 अरब डॉलर का विदेशी मुद्रा भंडार था जबकि उसे 4 अरब डॉलर का पुनर्भुगतान इस साल में करना है। जनवरी 2020 के बाद से श्रीलंका के विदेशी मुद्रा भंडार में 70 फीसदी से ज्यादा गिरावट आई है। देर-सबेर इसका असर बैंकिंग व्यवस्था पर भी पड़ेगा।

इस तरह संकट दरअसल चीजों की कमी का नहीं होता बल्कि उन्हें खरीदने के लिए डॉलर की कमी का होता है। उस साख व आशंका का होता है कि आप कर्ज कैसे चुकाएंगे। साख जाती है तो आपको नया कर्ज मिलना बंद हो जाता है, जो आपको पुराने कर्ज को चुकता करने के लिए चाहिए होता है। इसके एक नतीजे के तौर पर आपको मुद्रा का अवमूल्यन करना पड़ता है जैसा कि पिछले दिनों श्रीलंका ने किया। कर्ज देने वाले हमेशा चाहेंगे कि आपकी मुद्रा का अवमूल्यन हो, वे फायदे में रहते हैं। आपके अपने देश का निर्यात बाजार भी पसंद करता है आपकी मुद्रा सस्ती रहे। लेकिन यह खेल तभी चल सकता है जब आयात व निर्यात में एक किस्म का संतुलन हो। अगर सारी निर्भरता आयात पर रहेगी तो मुद्रा का अवमूल्यन संकट को और बढ़ाएगी ही, और आपकी लाचारी को साबित करेगा। श्रीलंका तेल व दवाइयों के अलावा खाने-पीने की चीजों के लिए भी आयात पर खासा निर्भर है।

भारतीय विदेश मंत्री इस समय कोलंबो में हैं। कहा जा रहा है कि श्रीलंका के कर्जे में चीन का बहुत बड़ा योगदान है जब उसने अपने बेल्ट ऐंड रोड (बीआरआई) मकसद के तहत श्रीलंका को काफी धन दिया। आलोचकों का कहना है कि इसका खासा हिस्सा बेकार की परियोजनाओं में खर्च किया गया जिनसे कुछ हासिल होने वाला नहीं था। ऐसे में श्रीलंका की अर्थव्यवस्था भी भारत व चीन के बीच रस्साकसी का खेल जरूर बनेगी, ऐसे कयास लगना स्वाभाविक है। विश्व बैंक व आईएमएफ मदद करेंगे तो अपनी शर्तों पर और उनके दूरगामी नतीजे होते हैं, यह हम सब जानते हैं। हम अपने देश में देख चुके हैं।

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