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कोविड-19 के चलते अनाथ हुए बच्चों की स्तब्ध करती तादाद

विशेषज्ञ कहते हैं कि यह बाल संरक्षण की आपातकालीन स्थिति है, जिससे विपदाग्रस्त बच्चों के मसले को व्यवस्थित तरीके से हल करने की सख्त ज़रूरत है। 
कोविड-19 के चलते अनाथ हुए बच्चों की स्तब्ध करती तादाद
छवि केवल प्रतीकात्मक उपयोग के लिए। 

उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले की रीतिका उपाध्याय (नाम बदला हुआ) ने  बचपन बचाओ आंदोलन (बीबीए) की एक हेल्प लाइन पर त्राहिमाम कॉल किया, जिसमें उन्होंने अपने पड़ोसी गुड्डू श्रीवास्तव (नाम बदला हुआ) की कोविड-19 से हुई मौत का हवाला देती हुई उनके परिवार के लिए मदद की गुहार कर रही थी। गुड्डू अपने परिवार में इकलौता कमाने वाला था। पांच लोगों के उसके परिवार में उसकी पत्नी और तीन बच्चे असहाय हो गए हैं। बीबीए की टीम ने जिले में एनजीओ नेटवर्क के जरिए परिवार को तत्काल सूखा राशन मुहैया करवाई, बच्चों को कोविड- 19 की जांच कराई (बाद में रैपिड एंटीजन टेस्ट में ये बच्चे नेगेटिव आए)  और बच्चों को अपने समक्ष पेश करने के लिए बाल कल्याण समिति (सीडब्ल्यूसी) को  लिखा ताकि उन्हें सरकारी योजनाओं के तहत मिलने वाली सहायता से जोड़ा जा सके। 

यह आपदा में रह रहे बच्चों को सहायता देने की एक वैधानिक प्रक्रिया है, लेकिन इसके बारे में लोगों को बहुत कम जानकारी है। 

चौंकाती तादाद 

महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने घोषणा की है कि 1 अप्रैल  2020 से लेकर 25 मई 2021 तक कोविड-19 के चलते 577 बच्चे अनाथ हो गए हैं। 

राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) ने विभिन्न राज्यों से मिले आंकड़ों के आधार पर सर्वोच्च न्यायालय को हाल ही में सूचित किया कि 5 जून 2021 तक, 30,071  से अधिक बच्चे अनाथ हुए हैं,  उनके माता-पिता दोनों की मृत्यु हो गई है या वे महामारी के कारण बेसहारा हो गए हैं। कुल संख्या में से 26,176 बच्चों ने अपने माता-पिता को खो दिया है, 3,621 अनाथ हो गए हैं और 274 बच्चों को त्याग दिया गया है। 

एनसीपीसीआर ने आगे कहा कि 1 अप्रैल 2020 और 5 जून 2021 के बीच बच्चों ने कोरोना एवं अन्य कारणों से या तो अपनी मां को खो दिया है या पिता को या फिर उनके माता-पिता, दोनों की ही मौत हो गई है।

माता-पिता की क्षति  

दिल्ली सरकार के अंतर्गत गठित दिल्ली बाल अधिकार संरक्षण आयोग (डीसीपीसीआर) के अध्यक्ष अनुराग कुंडू कहते हैं कि माता-पिता की मौत की स्थिति में बच्चों के बाल मस्तिष्क पर वित्तीय और मनोवैज्ञानिक दोनों ही तरह का दुष्प्रभाव पड़ता है। “जब कोई बच्चा अपने माता-पिता को खो देता है,  तो सबसे पहले उन्हें अपनी सुख-सुविधा के छीन जाने की पीड़ा होती है;  वे चिंतित रहने लगते हैं, उनका मूड गड़बड़ रहने लगता है और भूख कम हो जाती है।  निम्न मध्य और मध्य आय वर्ग की बच्चे वित्तीय रूप से सर्वाधिक बुरी तरह से पीड़ित हो जाते हैं  क्योंकि राशन तक उनकी पहुंच नहीं होती है और आखिरकार उनकी आमदनी कम होती जाती है। फिर बच्चों को या तो स्कूल छोड़ना पड़ता है या फिर खराब पढ़ाई-लिखाई वाले स्कूलों में जाना पड़ता है।” 

इसीलिए चिंता उन बच्चों की प्रभावी सहायता करने के तरीके तलाशने की होनी चाहिए, जिन्होंने अपने माता-पिता गंवा बैठे हैं या जो भारी आपदा में हैं।

बच्चों के गोद लेने की प्रक्रिया 

हालांकि गोद लेने का रूमानीकरण कर दिया गया है, लेकिन इसके लिए कड़ी कानूनी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है।  रिस्टोरेटिव प्रैक्टिसेज, एनफोल्ड प्रोएक्टिव हेल्थ ट्रस्ट की प्रमुख स्वागता राहा ‘अनाथ’ शब्द की कानूनी परिभाषा को स्पष्ट करती हैं: “किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल एवं संरक्षण) अधिनियम 2015 की धारा 2 (42), कहती है कि अनाथ एक ऐसा बच्चा है, जिसके जैविक माता-पिता नहीं हैं, कानूनी अभिभावक नहीं हैं या उसके कानूनी अभिभावक तो हैं पर वे बच्चों की परवरिश करने में लाचार हैं या उसका पालन-पोषण करने के लिए राजी नहीं हैं।” 

कानूनी प्रक्रिया को अपनाएं बिना ऐेसे बच्चों को गोद ले लेना एक दंडनीय अपराध है। केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने माता-पिता खो चुके बच्चों की कानूनी तरीके से सहायता करने के बारे में एक ट्वीट कर सूचित किया : “अगर आपको मालूम होता है कि किसी बच्चे/बच्ची के माता-पिता की कोविड-19 की वजह से मौत हो गई है और उसका/ उसकी देखभाल करने वाला कोई नहीं है, तो इसकी सूचना तुरंत पुलिस को दें या  संबद्ध जिले की बाल कल्याण समिति को सूचित करें या चाइल्ड लाइन 1098 पर संपर्क करें। यह आपका वैधानिक दायित्व है।” 

सर्वोच्च न्यायालय ने की हाल ही में राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों को यह निर्देशित किया है कि वे ऐसे  व्यक्तियों और गैर सरकारी संगठनों पर कड़ी कार्रवाई करें जो कोविड-19 महामारी में अनाथ हुए बच्चों को अवैध तरीके से गोद लेने के लिए लोगों को आमंत्रित करते हैं। 

स्वतंत्र पत्रकार औऱ न्यूजवर्दी की संस्थापिका अनुभा भोंसले, जिन्होंने कोविड-19 से पीड़ित हुए बच्चों के लिए संसाधन सूचिका की एक व्यापक मार्गदर्शिका बनाई हैं, वे कहती हैं, “कोई भी एकदम से जा कर किसी बच्चे या बच्ची को गोद नहीं ले सकता, जैसा कि सोशल मीडिया पर इस आशय के संदेशे दिए जाते हैं। हालांकि वे  अच्छी नीयत से ही दिए जाते हैं। गोद लेना सेंट्रल अडॉप्शन रिसोर्सेज अथॉरिटी (सीएआरए) के तहत एक कानूनी प्रक्रिया है। और एक बच्चा/बच्ची जिसने अपने माता-पिता को गंवा दिया है, वे आवश्यक रूप से “गोद लेने के लिए” नहीं हैं। लोगों को इस बारे में व्यापक रूप से जागरूक करने की जरूरत है  कि अगर किसी बच्चे/बच्ची को संकट में देखते हैं तो उन्हें तुरंत ही नेशनल चाइल्ड हेल्पलाइन नम्बर 1098 पर कॉल करना चाहिए, यह महत्वपूर्ण है।” 

विस्तृत परिवार और समुदाय की देखभाल

दिल्ली अवस्थित प्रोत्साहन इंडिया फाउंडेशन की संस्थापक सह निदेशक सोनल कपूर कोरोना महामारी की वजह से आपदा में पड़े बच्चों को सहायता देने के लिए ड्रीम अ ड्रीम द्वारा आयोजित एक ऑनलाइन सेशन में माना कि ऐसे बच्चों की संस्थागत देखभाल के काम को एक अंतिम उपाय के रूप में ही आजमाया जाना चाहिए। उनका कहना है “हर अनाथ बच्चा या बच्ची को बाल देखभाल गृह/संस्थान में अंततः नहीं पहुँचना चाहिए। सीमित संसाधन वाला एक सरल परिवार या विस्तृत परिवार अपेक्षित है।” 

स्वागता का एनफोल्ड प्रोएक्टिव हेल्थ ट्रस्ट कहता है कि कानून इस काम में परिवार और समुदाय की जिम्मेदारी को मानता है और इसलिए केवल कुछ निश्चित स्थितियों में ही बच्चे को कानूनी प्रक्रिया के दायरे में लाया जाना चाहिए। “यह श्रम कानूनों उल्लंघन के कारण शोषित बच्चों, शोषणकारी स्थितियों में रहने वाले बच्चे, तस्करी किए जा रहे या किए जा चुके बच्चे, हिंसा झेलने वाले बेसहारा बच्चे और ऐसे बच्चे जिनका विवाह कर दिए जाने का खतरा हो, ऐसे बच्चों को इस प्रक्रिया में शामिल किया जा सकता है।" 

जबकि विस्तृत परिवार को वरीयता दी जा सकती है पर सवाल है कि वे ऐसे बच्चे की देखभाल करने लायक हैं और क्या वे उनके इलाज से लेकर पढ़ाई तक खर्च उठा सकते हैं। इस समस्या को देखते हुए प्रोत्साहन  ऐसे परिवारों को उच्च प्रोटीन के घटक वाले सूखा राशन पहुंचाने, उन बच्चों एवं किशोरों को जरूरत के आधार पर स्कॉलरशिप दे रहा है, जिनके माता-पिता की कोरोना में मौत हो गई है,  बाल संरक्षण अधिकारियों एवं साझेदारों के साथ समन्वय कर वह इन बच्चों को सरकारी योजनाओं से जोड़ रहा है, तथा बाल उपयोगी अन्य गतिविधियों के अलावा कहानियां सुनाने के सत्रों का आयोजन करने का काम जमीनी स्तर पर कर रहा है।

सरकारी योजनाएं

राज्य सरकारों ने कोविड महामारी में अनाथ हुए बच्चों के लिए भी कई योजनाओं की घोषणा की हैं। इसके अलावा, केंद्र सरकार ने भी ऐसे बच्चों को पीएम-केअर्स स्कीम के तहत वित्तीय सहायता देने की घोषणा की है, जिनके माता-पिता, कानूनी अभिभावक या गोद लिए माता-पिता कोरोना में मर गए हैं। 

हालांकि, दस्तावेजीकरण ऐसी स्कीमों तक पहुंच बनाने में अड़चन पैदा कर सकता है। अनुराग कहते हैं, “सरकारी स्कीमों को इस तरह से डिजाइन किया जाता है कि उनका दुरुपयोग न हो। लेकिन दुरुपयोग न होना सुनिश्चित करने के फेर में, जैसे कि दस्तावेजीकरण पर जोर देने से, इस स्कीम के लाभ तक जरूरतमंदों की पहुंच कठिन हो जाती है। इसकी प्रक्रिया सरल और उदार होनी चाहिए।” 

अन्य कमजोरियां 

गोद लेने को लेकर सोशल मीडिया में भले ही उन्माद छाया हुआ है, इसकी सरजमीनी वास्तविकता बहुत ज्यादा जटिल है।  इस संदर्भ में कुछ अन्य कमजोरियों भी ध्यान में रखना  चाहिए। सोनल कहती हैं, “ हमने जिन मामलों में देखा है,  उनमें 5 से 8 फ़ीसदी बच्चों ने अपने माता-पिता खोए हैं, जबकि शेष 92 से 95% बच्चे बालश्रम, यौन दुर्व्यवहार और कौटुम्बिक व्यभिचार से गंभीर रूप से पीड़ित हैं।” 

सोनल ने आगे कहा, “विगत 3 महीनों में, समुदाय से आने वाले मामलों की खास तादाद में हमने बाल श्रम, भोजन या राशन के बदले में बच्चों (लड़के-लड़कियों दोनों) का ‘ट्रैन्जेक्शनल’ सेक्स के लिए इस्तेमाल किए जाने, परिवार की आमदनी में सहायता के लिए बालश्रम की तरफ ठेले जाने (यह नहीं कहा जा सकता कि वे बच्चे कोरोना की  मारक लहर थमने के बाद स्कूल लौट पाएंगे) और कौटुम्बिक व्यभिचार के अनेक मामले मिले हैं।”

स्वागता ने आगे कहा कि विपदा के मारे इन बच्चों को विभिन्न अनुक्रमों में देखे जाने चाहिए। “बाल देखभाल संस्थाओं में कुछ बच्चे फंसे हैं, जिनका पुनर्वास या इसी तरह की कोई और व्यवस्था नहीं की गई है। ऐसे भी उदाहरण हैं, जहां संस्थान हड़बड़ी में संस्थान से फिर उसी बेसहारा स्थिति में छो़ड़ दिेए जा रहे हैं। कुछ बच्चे शारीरिक रूप से अक्षम हैं, जिन्हें इलाज की जरूरत है पर कोविड-19 के चलते उसे रोका गया है। बच्चे शरणार्थी शिविरों में भी रह रहे हैं और कुछ बच्चों ने अपने परिजनों को खो दिया है।”

बालमन पर मनोवैज्ञानिक दुष्प्रभाव 

अनुराग कहते हैं, माता-पिता न गंवाने के मामले वाले बच्चे खेलने में असमर्थ हुए हैं, उनके नियमित प्रतिरक्षण में व्यवधान पड़ा है और स्कूल बंद होने से उनकी पढ़ाई-लिखाई ठप पड़ गई है।

बाल एवं किशोर  मनोचिकित्सक डॉक्टर भूषण शुक्ला कहते हैं बच्चों को मास्क के साथ खेलने की इजाजत देनी चाहिए और इस दौरान युवाओं को इसकी निगरानी करनी चाहिए। उन्होंने कहा कि डर का व्यापार करने की कोई जरूरत नहीं है। “हमें  सचेत रूप आशावादी होना चाहिए। हाउसिंग सोसाइटिज को अपने पैनिक मूड से बाहर निकलना चाहिए और बच्चों को  उनके दोस्तों के बीच खेलने देना चाहिए और कुछ समय के लिए उन्हें आपस में बातचीत करने देना चाहिए। कुछ बच्चे बाहर घूमना-फिरना पसंद करते हैं, उन्हें समाजीकरण की जरूरत होती है, कुछ बच्चे घर में रहना पसंद करते हैं, तो कुछ बच्चे घर और बाहर दोनों जगह रहना पसंद करते हैं।”

बच्चों को उनके माता-पिता की मृत्यु की खबर दिए जाने के मुश्किल काम की बाबत डॉ शुक्ला कहते हैं कि यह खबर उन्हें अवश्य ही दी जानी चाहिए। उन्होंने कहा, “युवा अक्सर सोचते हैं कि अगर बच्चों के माता-पिता के गुजर जाने की उन्हें खबर दी गई तो वे टूट जाएंगे लेकिन उन्हें समझना चाहिए कि बच्चे इतने नाजुक नहीं होते हैं। छिपाने से उलटे वे अक्सर शक करते हैं कि कुछ अघटित घटा है और  सही जानकारी के अभाव में अधर में रहते हैं, यह स्थिति उनके लिए पीड़ादायक होती है। उचित यही होगा कि परिवार भी बच्चे के साथ ही शोक करे, बजाय अकेले उसे दुख में डूबा छोड़ देने के।”  एक बच्चा जिसकी मां की मौत हो गई है, सांन्त्वना के क्रम में उसको एक माता जैसी छवि वाली स्त्री, मसलन दादी के सिपुर्द किया जा सकता है। 

निष्कर्ष 

आपदा में पड़े बच्चों के पुनर्वास के मामले में सरकार, गैर सरकारी संगठनों एवं नागरिक समाज को लंबी अवधि तक हस्तक्षेप करने की आवश्यकता है।  जैसा कि सोनल का आकलन है, “हम बच्चों की एक ऐसी पीढ़ी को देख रहे हैं, जो घनघोर संकट से जूझ रही है और प्रबल आघातों का सामना कर रही है, जो अब एक विखंडित व्यक्ति के रूप में जवान होगी। हरेक बचपन को एक सुरक्षित घर, प्यार करने वाले माता-पिता और डिजिटल कनेक्टिविटी मयस्सर नहीं होता। रोजाना ही दिल को दहला देने वाली खबरें तमाम जगहों से आती हैं, यहां तक कि सिविल सोसाइटियों के लिए भी यह ह्रदय विदारक है, जिन्होंने इस जगहों पर काम किया है।” उनके मुताबिक, कभी-कभार बच्चे अपने किसी आत्मीय की मृत्यु पर खुद को कुछ अधिक ही दोषी मानने लगते हैं और यह विश्वास करने लगते हैं कि उनके आचरण-व्यवहार में ही कोई खोट है, जिससे परिवार में कुछ बुरा घटित हुआ है। सोनल कहती हैं, “शोक के दौरान की जाने वाली काउंसिलिंग बच्चों में उनके खास भरोसे को पुख्ता करने और स्वयं के मूल्यवान होने का बोध कराने में मददगार हो सकती है।” 

सोनल रेखांकित करती हैं कि “यह बाल संरक्षण आपातकाल है। सोसाइटी को यह समझ लेने की जरूरत है कि आवश्यकता पर आधारित हस्तक्षेप ही पर्याप्त नहीं होगा; अधिकार पर आधारित सोच और नीति को बच्चों की सुरक्षा और उनको गोद लेने की वैधानिक प्रक्रिया जैसे मुख्य मसले, दूर-दराज के क्षेत्रों में टीके के प्रति हिचक को दूर करने और बेसहारा बच्चों के मुद्दे को व्यवस्थित तरीके से हल करने की जरूरत है। ये मसले एक दूसरे से असंबद्ध नहीं हैं बल्कि ये चकनाचूर होती विशाल प्रणाली के दूरगामी प्रभाव हैं। 

बच्चे को गोद लेने की नीति (बॉक्स)

  • किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल एवं संरक्षण) अधिनियम, 2015
  • केंद्र सरकार द्वारा राज्यों के लिए बनाए गए मॉडल रूल्स 
  • सेट्रल अडॉप्शन रिसोर्सेज अथॉरिटी (सीएआरए) द्वारा बच्चों को गोद लेने वाले संभावित माता-पिता की तय की अर्हता। स्रोत: cara.nic.in

(लेखिका एक स्वतंत्र पत्रकार हैं) 

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें।

Staggering Number of Children Impacted by Parental Loss, Abuse Due to Covid-19

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