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सितंबर 2023 में बाइडेन की प्रस्तावित भारत यात्रा का सामरिक महत्व

अमेरिका पर भारत की ऐसी बढ़ती रक्षा निर्भरता निश्चित रूप से भारत की स्वायत्तता को कमजोर करती है। फिर भी, यदि मोदी एक जूनियर साझेदार के रूप में अमेरिकी खेमे में शामिल होने के इच्छुक हैं, तो वे स्पष्ट रूप से हारने वाले घोड़े पर दांव लगा रहे हैं।
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फ़ोटो साभार: PTI

हाल के दिनों में भारत-अमेरिका कूटनीति में बीती घटनाओं की सुगबुगाहट देखी जा रही है। इस लेख को लिखते समय, भारत और अमेरिका के बीच 15 दिवसीय संयुक्त हवाई अभ्यास का समापन भारत-चीन सीमा पर कालाकुंडा एयरबेस पर हो चुका है। जबकि भारतीय वित्त मंत्री सुश्री निर्मला सीतारमण  9 अप्रैल 2023 से अमेरिका के एक सप्ताह के दौरे पर थीं, अमेरिकी रक्षा सचिव लॉयड ऑस्टिन की 3 दिवसीय भारत यात्रा इससे पहले 19 मार्च 2023 को हुई थी।

हालांकि भारतीय वित्त मंत्री की अमेरिकी यात्रा मुख्य रूप से विश्व बैंक और आईएमएफ की वार्षिक वसंत बैठकों, जी-20 वित्त मंत्रियों और केंद्रीय बैंक गवर्नरों की बैठक के साथ-साथ अमेरिकी कॉर्पोरेट दिग्गजों और भारतीय डायस्पोरा के संग नियमित बैठकों के अवसर पर हुई, कथित तौर पर अमेरिकी अधिकारियों के साथ उनकी द्विपक्षीय बैठक अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन की सितंबर 2023 में होने वाली भारत यात्रा की तैयारी के लिए थी।

अमेरिकी रक्षा मंत्री लॉयड ऑस्टिन की भारत यात्रा इस लिहाज से ज्यादा महत्वपूर्ण मानी जा रही है। अपनी यात्रा के पहले दिन, उन्होंने भारतीय प्रधानमंत्री और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल के साथ बैठक की और दोनों देशों के बीच सैन्य सहयोग को बढ़ाने पर चर्चा की। इसे बाइडेन के आने पर अंतिम रूप दिया जाएगा।

यूक्रेन युद्ध के संदर्भ में भारत की अपेक्षाकृत स्वतंत्र विदेश नीति का दावा - जो अमेरिका-नाटो शक्तियों से खुद को दूर रखने और रूस का पक्ष लेने के रूप में प्रकट हुआ- को व्यापक रूप से भारतीय विदेश नीति में एक रणनीतिक बदलाव के रूप में व्याख्यायित किया गया है। लेकिन वास्तव में यह अमेरिका के साथ एक रणनीतिक विराम के अलावा कुछ भी नहीं था। बल्कि, इसने अमेरिका और भारत के बीच रणनीतिक सहयोग, विशेष रूप से रक्षा सहयोग में छिपे तौर पर काफी तेज़ी ला दी।

2008 में लगभग शून्य से, भारत में अमेरिकी सैन्य बिक्री 2020 में 20 अरब डॉलर को पार कर गई। भारत के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के अनुसार क्योंकि पाइपलाइन में कई प्रमुख सौदे हैं, यह अगले कुछ वर्षों में 100 अरब डॉलर तक पहुंचेगा ।

बढ़ते भारत-अमेरिका सैन्य सहयोग की पृष्ठभूमि

उन पाठकों के लिए जो भारत-अमेरिका सैन्य संबंधों पर बारीकी से गौर नहीं कर पाए हैं, आइए हम पहले संक्षेप में इसकी पृष्ठभूमि प्रस्तुत करें।

अमेरिका और भारत के बीच बढ़ते सैन्य सहयोग को 4 रक्षा समझौतों में औपचारिक रूप दिया गया है:

* अमेरिका और भारत के बीच लॉजिस्टिक्स एक्सचेंज मेमोरेंडम ऑफ एग्रीमेंट (LEMOA) पर हस्ताक्षर किया गया

* इसके बाद आया 2018 संचार, संगतता, और सुरक्षा समझौता (COMCASA), जिसके तहत भारत अमेरिका को एन्क्रिप्शन कोड्स सौंपता है;

* 2019 औद्योगिक सुरक्षा समझौता (ISA) जिसने अमेरिका के लिए भारतीय निजी रक्षा कंपनियों के साथ वर्गीकृत सूचना साझा करने की व्यवस्था का मार्ग प्रशस्त किया; और

* भारत और अमेरिका के बीच सैन्य खुफिया जानकारी साझा करने के लिए 2002 में हस्ताक्षरित सैन्य सूचना समझौते को और उन्नत (upgrade) किया गया है।

बाइडेन की प्रस्तावित सितंबर 2023 यात्रा के कारण इस तरह के संस्थागत रक्षा सहयोग में एक और छलांग लगने की उम्मीद है।

अमेरिका के साथ भारत का नया रक्षा सहयोग केवल कुछ संयुक्त सैन्य अभ्यासों तक सीमित नहीं था। ट्रंप के शासन में भारत-अमेरिका परमाणु समझौता भले ही ‘डेड-लेटर’ बन गया हो, लेकिन इससे पहले, 2016 में, ओबामा प्रेसीडेंसी के तहत भी भारत द्वारा  लॉजिस्टिक्स एक्सचेंज मेमोरेंडम ऑफ एग्रीमेंट (LEMOA) पर हस्ताक्षर करने के बाद, अमेरिका ने भारत को "प्रमुख रक्षा भागीदार" घोषित किया था । इस समझौते के तहत भारतीय बंदरगाहों और अन्य रसद सुविधाओं (logistics facilities) को अमेरिकी नौसेना और अन्य सैन्य प्रतिष्ठानों के नियंत्रण में रखा गया था - जाहिर तौर पर ईंधन भरने और सैन्य आपूर्ति को  मजबूत करने के नाम पर। इससे पहले 2015 में, भारत-अमेरिका रक्षा प्रौद्योगिकी और व्यापार पहल (DTTI) पर हस्ताक्षर किए गए थे, जिससे संयुक्त रक्षा अनुसंधान, विकास और उत्पादन का रास्ता साफ हो गया था।

2018 में, अमेरिका ने भारत के साथ रक्षा सहयोग को "रणनीतिक व्यापार प्राधिकरण, टियर -1" स्टेटस तक बढ़ा दिया, जिससे जापान और दक्षिण कोरिया के बाद, भारत एशिया में तीसरा देश बना, जिसे यह विशेषाधिकार प्राप्त है। इसका मतलब था कि भारत के संवेदनशील रक्षा और दोहरे उपयोग (dual-use) वाली तकनीकों के आयात पर अमेरिकी पेंटागन और वाणिज्य मंत्रालय के अधिकांश प्रतिबंध समाप्त हो गए। दूसरे शब्दों में, भारत लाइसेंस के बिना उच्च तकनीक वाले सैन्य हार्डवेयर और संवेदनशील रक्षा प्रौद्योगिकियों, जो पहले प्रतिबंधित थे, की एक विस्तृत श्रृंखला का आयात करने के लिए स्वतंत्र हो गया ।

अमेरिका ने भारत को जो उन्नत रक्षा उपकरण बेचने की पेशकश की है उसमें एफ-16 जैसे लड़ाकू विमान, सैन्य हेलीकॉप्टर, मानव रहित हवाई वाहन, ड्रोन, और यहां तक कि मिसाइल तकनीक भी शामिल है। भारत पहला गैर-नाटो देश था जिसे अमेरिकी रक्षा कॉरपोरेट प्रमुख जनरल एटॉमिक्स द्वारा निर्मित मानव रहित एरियल सिस्टम (UAS), सी गार्जियन (Sea Guardian) की पेशकश की गई; यह प्रतिबंधित मिसाइल प्रौद्योगिकी नियंत्रण व्यवस्था श्रेणी 1 के अंतर्गत आता है। इसका मतलब है कि रक्षा संबंधों में अमेरिका के अटलांटिक साझेदारों और जापान का विशेषाधिकार भारत को प्राप्त हुआ, जो ऑस्ट्रेलिया या कनाडा के पास भी नहीं है।

संयोग से, इसने पाकिस्तान के साथ अमेरिकी संबंधों से भारत के साथ अमेरिकी संबंधों के तथाकथित "डी-हाइफनेशन" में और प्रगति को चिह्नित किया और भारत-अमेरिका रक्षा सहयोग को अमेरिका व पाकिस्तान के बीच रक्षा व्यापार की तुलना में अधिक उच्च स्तर तक पहुंचा दिया।

विशुद्ध आर्थिक दृष्टि से, अमेरिका ने भारत में ही ऐसे सैन्य हार्डवेयर के संयुक्त उत्पादन की भी पेशकश की। इसके साथ ही, सीमित क्षेत्रों को छोड़कर, मोदी सरकार ने एक ही झटके में रक्षा खरीद और रक्षा उत्पादन का निजीकरण कर दिया और भारत में रक्षा उत्पादन उद्योगों में एफडीआई (FDI) का उदारीकरण किया।

और फिर सितंबर 2019 का ‘मैडिसन मोमेंट’ आया, जो डोनाल्ड ट्रंप के साथ मोदी की दोस्ती का चरम बिंदु था। यह केवल प्रचार का तमाशा नहीं रहा। इसके करीब पहुंचते हुए भी, ट्रम्प ने 2018 में भारत को छह अपाचे (Apache) सैन्य हमलावर हेलीकॉप्टरों और 2019 में 24 MH-60R सीहॉक (Seahawk) नौसैनिक हेलीकॉप्टरों की बिक्री को मंजूरी दे दी थी; दोनों का कुल मूल्य 5.43 अरब डॉलर था।

जबकि भारत-अमेरिका सामरिक और वाणिज्यिक वार्ता 2015 में शुरू हुई थी, 2018 में इसे 2 + 2 भारत-अमेरिका मंत्रिस्तरीय सामरिक वार्ता में उन्नत किया गया था, जिसमें दोनों देशों के विदेश और रक्षा मंत्री शामिल थे। इसके तत्वावधान में, भारत-अमेरिका रक्षा नीति समूह की बैठकें प्रतिवर्ष आयोजित की जाती हैं, जहां "क्षेत्रीय" सुरक्षा मुद्दों पर चर्चा होती है।

संयोग से, यह वही अवधि थी जिसमें एशिया, प्रशांत, यूरोप, पश्चिम एशिया और उत्तरी अफ्रीका को शामिल करते हुए अमेरिका की भू-राजनीतिक रणनीति को ‘हिंद-प्रशांत रणनीति’ के रूप में पुनर्परिभाषित किया गया। इस इंडो-पैसिफिक रणनीति की अभिव्यक्ति में, अमेरिकी सुरक्षा प्रतिष्ठान ने न केवल एक रक्षा साझीदार के रूप में, बल्कि चीन की बढ़ती ताकत के खिलाफ निर्देशित एक प्रमुख रणनीतिक राजनीतिक साझीदार के रूप में भारत की महत्वपूर्ण भूमिका तय किया। औैर यह न केवल एशियाई संदर्भ में, बल्कि पूरे विशाल भारत-प्रशांत क्षेत्र में किया गया।

यह भारत के लिए न केवल एक एशियाई शक्ति के रूप में बल्कि एक वैश्विक भूमिका हेतु मोदी की महत्वाकांक्षा के अनुरूप था। बतौर पहला कदम, भारत अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया और भारत के चतुर्भुज QUAD गठबंधन में शामिल हो गया, जिसे भारत-प्रशांत क्षेत्र के एशियाई रणभूमि में एक प्रमुख रणनीतिक गठबंधन के रूप में उभारना तय था।

भारतीय और चीनी सैनिकों के बीच गलवान घाटी संघर्ष का रणनीतिक प्रभाव और यूक्रेन युद्ध

इस पृष्ठभूमि में, जबकि 24 फरवरी 2022 को रूस द्वारा यूक्रेन पर हमले ने दुनिया के पूरे भू-राजनीतिक परिदृश्य को बदल दिया, इससे पहले 5 मई 2020 को लद्दाख की गलवान घाटी सीमा संघर्ष और 20 भारतीय सैनिकों की शहादत ने नए उभरते परिदृश्य में भारत की रणनीतिक स्थिति को नाटकीय रूप से बदल दिया। दोनों ने भारतीय विदेश नीति में विपरीत दिशाओं में खिंचाव पैदा किया। हालांकि, सीमा संघर्ष के बावजूद, मोदी ने रणनीतिक संतुलन नहीं खोया और यूक्रेन युद्ध में रूस का पक्ष लेकर भारत के राष्ट्रीय हितों की स्वायत्तता का दावा किया।

इस बीच, अब तक माना गया "एकध्रुवीय" उत्तर-शीत युद्ध में अमेरिकी साम्राज्यवाद के एक प्रमुख प्रतिद्वंद्वी और प्रतियोगी के रूप में चीनी पूंजीवाद के उदय ने केवल ट्रम्प- शासित  अमेरिका और चीन के बीच व्यापार युद्ध नहीं शुरू किया था। बल्कि, बढ़ती चीन-रूस धुरी और अंत में (जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है) यूक्रेन पर रूसी आक्रमण ने वैश्विक भू-राजनीतिक परिदृश्य में तीव्र परिवर्तन ला दिया। वैश्विक परिदृश्य एक ओर नाटो शक्तियों सहित अमेरिका और बाकी तथाकथित "मुक्त दुनिया", और दूसरी ओर चीन-रूस धुरी के बीच तीव्र ध्रुवीकरण का था, जो यूक्रेन में युद्ध से गहरा गया।

यूक्रेन युद्ध के बाद के परिदृश्य में सबसे बड़ा आश्चर्य- और भारत-प्रशांत रणनीति में अमेरिका के लिए सबसे बड़ा कूटनीतिक झटका था - भारत का अमेरिका से खुद को दूर करना और रूस का पक्ष लेना।

भू-राजनीतिक पर्यवेक्षकों के बीच व्यवहारवादियों (pragmatists)ने सस्ते रूसी तेल और हथियारों की आपूर्ति पर भारत की निर्भरता को भारत के पक्ष-परिवर्तन (volte-face) का कारण बताया।  हालांकि, कुछ अन्य भू-राजनीतिक विचारकों ने इसे अपेक्षाकृत स्वायत्त रणनीतिक वैश्विक भूमिका की भारत की महत्वाकांक्षा की प्रारंभिक अभिव्यक्ति के रूप में व्याख्यायित किया। यानि, अमेरिका के नेतृत्व वाले खेमे और चीन-रूस धुरी, दोनों से समान दूरी का बेहतर संतुलन बनाए रखना।

भारत कब तक अपना संतुलन बनाए रख सकता है?

क्या ताइवान जलडमरू (strait) और दक्षिण चीन सागर में युद्ध और संभावित सैन्य संघर्षों के बीच बढ़ते ध्रुवीकरण के मध्य भारत अपनी समान दूरी बनाए रख सकता है?

डोकलाम के बाद भी और यूक्रेन में अतिक्रमित रूसी सैन्य कारोबार के बावजूद, भारत ने रूसी हमले की निंदा न करके और तत्काल युद्धविराम के आह्वान तक खुद को सीमित करके अपना संतुलन बनाए रखा। संयोग से, चीन ने भी यूक्रेन में सैन्य शत्रुता को समाप्त करने का आह्वान ही किया, और यहां तक कि 12 सूत्री गति योजना (pace plan)का भी प्रस्ताव रखा। इसी तरह, यूक्रेन युद्ध के बाद, भारत शायद QUAD को एक मृत योजना बना देने में सफल रहा हो। QUAD पहल का एकमात्र अर्थहीन परिणाम त्रिपक्षीय मालाबार संयुक्त नौसैनिक अभ्यास था, जिसमें से ऑस्ट्रेलिया भी बाहर हो गया था! इन सब के बावजूद, भारत-अमेरिकी रक्षा सहयोग में वृद्धि क्या इस क्षणिक "तटस्थता" और संतुलन का अंत कर देगी?

पहले तो हम यह ध्यान रखें कि यूक्रेन युद्ध के संदर्भ में भारत की "स्वतंत्रता" के मायने था यूक्रेन पर हमले के लिए रूस की खुले तौर पर निंदा न करना। उसने संयुक्त राष्ट्र में उन अमेरिकी प्रस्तावों के पक्ष में मतदान करने से इनकार कर दिया जो रूस के खिलाफ थे। संयुक्त राज्य अमेरिका से कड़ी आपत्तियों - और यहां तक कि प्रतिबंधों के खतरे - को धता बताते हुए, भारत ने रूस से, अक्सर पश्चिम द्वारा निर्धारित मूल्य सीमा को न मानते हुए, बड़े पैमाने पर तेल आयात किया।

बेशक, यह अमेरिका के लिए एक बड़ा कूटनीतिक झटका था। फिर भी, जैसा कि हमने शुरु में उल्लेख किया है, इसे शायद ही यूएस-नाटो ब्लॉक के साथ भारत के रणनीतिक विराम के रूप में व्याख्यायित किया जा सकता है।

यह नोट करना भी महत्वपूर्ण है कि प्रतिक्रिया में यूएस-नाटो शक्तियों ने भी यूक्रेन के सवाल पर भारत की सीमित स्वतंत्रता के दावे को अनिच्छा से स्वीकारा। उन्होंने बदले की भावना के बजाय भारत की "अवज्ञा" को संजीदगी से निपटने का विकल्प चुना। रूस से भारत को दूर करने की कूटनीतिक चुनौती का मुकाबला करते हुए, अमेरिका और उसके यूरोपीय सहयोगी और जापान व ऑस्ट्रेलिया भारत के साथ आर्थिक व सैन्य सहयोग बढ़ाकर इसे हासिल करने की उम्मीद करते हैं। इस अर्थ में, भारत और पश्चिमी शक्तियों के बीच दिख रही खुली और क्षणिक कूटनीतिक कलह भारत-अमेरिका के बढ़ते रक्षा और सामरिक सहयोग को कुछ हद तक छिपाने का काम करती है।

भारत के सामरिक समुदाय की धारणा में,  नंबर 1 सुरक्षा खतरे के रूप में चीन पाकिस्तान की जगह ले रहा है। दुर्भाग्य से, भारत और चीन के बीच बढ़ते रणनीतिक संमिलन (strategic convergence) के बावजूद, चीन भी भारत को आश्वस्त करने की परवाह नहीं करता कि डोकलाम दोहराया नहीं जाएगा और भारत के स्वाभिमान को ठेस नहीं पहुंचेगी। बल्कि, लगता है सीमा के दोनों ओर प्रतिस्पर्धी सैन्य निर्माण एक लघु बॉर्डर आर्म्स रेस का रूप धारण कर रहा है। भारत न केवल चीनी नौकरशाही की इन कोशिशों के कारण अमरीकी हाथों में खेलेगा बल्कि अमेरिका द्वारा सैन्य और आर्थिक सहयोग की पेशकश भी उसके लिए कहीं अधिक आकर्षक होगी।

क्या मोदी के नेतृत्व में भारत अमरीकी जाल में फंसेगा? इस संदर्भ में और क्या- क्या सैन्य व सामरिक सहयोग होने वाला है?

2020 में, भारत ने 6 P-8I समुद्री सर्विलान्स विमानों की खरीद के लिए 2.1 अरब डॉलर के सौदे पर हस्ताक्षर किए, मुख्य रूप से बंगाल की खाड़ी और हिंद महासागर में चीनी जहाजों की निगरानी के लिए। इसके बाद, तेजस हल्के लड़ाकू विमान, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस-आधारित सामरिक रेडियो निर्देशित एंटी-टैंक मिसाइल प्रौद्योगिकी, अधिक ऊंचाई वाले मानव रहित हवाई वाहन (यूएवी), एडब्ल्यूएसी और बहुत कुछ के सौदे हुए हैं।

अमेरिका पर भारत की ऐसी बढ़ती रक्षा निर्भरता निश्चित रूप से भारत की स्वायत्तता को कमजोर करती है। फिर भी, यदि मोदी एक जूनियर साझेदार के रूप में अमेरिकी खेमे में शामिल होने के इच्छुक हैं, तो वे स्पष्ट रूप से हारने वाले घोड़े पर दांव लगा रहे हैं। पुतिन निराशाजनक रूप से यूक्रेन में फंसे हुए हो सकते हैं और बाइडेन अपने दोबारा चुनाव को ध्यान में रखते हुए टैंकों, लड़ाकू विमानों और मिसाइलों की आपूर्ति करके यूक्रेन प्रतिरोध को बढ़ा सकते हैं। लेकिन अमेरिकी प्रभाव अब पश्चिम एशिया में निर्णायक नहीं रह गया है, जैसा कि सऊदी अरब और ईरान के बीच हाल ही में चीन की मध्यस्थता से हासिल शांति से प्रदर्शित होता है। अतीत में डी गॉल ने जो किया था, उसी तरह फ्रांसीसी राष्ट्रपति मैक्रॉन भी बीजिंग का दौरा करके तथाकथित इंडो-पैसिफिक "फ्री वर्ल्ड" में एकता भंग कर रहे हैं।

दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति रामफोसा ने अब पुतिन को ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में आमंत्रित किया है; और, पुतिन, जिन्हें पश्चिम द्वारा "युद्ध अपराधी" कहा जाता है, इसे विधिवत स्वीकार करते हैं! अमरीकी अधिकार अफ्रीका या यहां तक कि अपने स्वयं के देश के पिछड़े हिस्से में बड़े पैमाने पर नहीं चलता। यहां तक कि "बेल्ट एंड रोड" के पहुंचने से पहले ही, चीनी राजधानी इतनी मजबूत है कि अमेरिका के मोनरो सिद्धांत (जो लैटिन अमेरिका में किसी भी विदेशी हस्तक्षेप के खिलाफ था) को विफल कर सकती है। स्पष्ट रूप से, अमेरिका अब एकध्रुवीय महाशक्ति नहीं है, जिसकी कल्पना शीत युद्ध समाप्त होने के साथ पूरी दुनिया पर हावी होने वाले के रूप में की गई थी।

भारत के मामले में भी, शायद उसकी व्यापक सामरिक आवश्यकताओं को देखते हुए, उसके साथ कुछ प्रमुख संघर्षों में अमेरिका ‘बैकफुट’ पर था। भारत ने शुरू में ईरान के साथ व्यापार के लिए अमेरिकी प्रतिबंधों की धमकी को खारिज कर दिया और अमेरिका को उसे ईरानी प्रतिबंधों से छूट देनी पड़ी। लेकिन यह भी सच है कि भारत ने ईरानी गैस की अपनी खरीद को एकतरफा रूप से कम कर दिया है। इसी तरह, भारत ने रूस के एस-400 मिसाइल शील्ड सिस्टम की खरीद के खिलाफ अमेरिकी विरोध और प्रतिबंधों की धमकी को खारिज कर दिया । इस विषय में अमेरिका को डर था कि वह दक्षिण एशिया, और यहां तक कि बड़े ‘एशियाई थिएटर’ में अमेरिका की मिसाइल क्षमताओं को घटाएगा। लेकिन अमेरिकी कानून की किताबों में ‘काउंटरिंग अमेरिकाज एडवर्सरीज थ्रू सैंक्शंस एक्ट’ (CAATSA) मौजूद होने के बावजूद अमेरिका भारत पर प्रतिबंध लगाने के लिए खुद को तैयार न कर सका।

भारत के वाणिज्य और उद्योग मंत्री पीयूष गोयल ने 2030 तक भारत और अमेरिका के बीच 1 खरब डॉलर के व्यापार के लक्ष्य की घोषणा की है। यह सच है, कुछ संक्षिप्त अंतराल के बाद, अमेरिका फिर से भारत के नंबर 1 व्यापारिक भागीदार के रूप में चीन से आगे निकल गया है। जबकि 2021-22 में कुल दो-तरफा भारत-अमेरिका व्यापार (two-way Indo-US trade) लगभग 120 अरब अमेरिकी डॉलर था, उस वर्ष भारत-चीन व्यापार 115 खरब अमेरिकी डॉलर था। पर भले ही अमेरिका भारत का शीर्ष व्यापारिक भागीदार हो,  जून 2022 से फरवरी 2023 के दौरान अकेले संयुक्त अरब अमीरात के साथ भारत का व्यापार 62 अरब डॉलर था, वित्त वर्ष 2021-22 में भारत-सऊदी अरब का व्यापार 42 अरब डॉलर था और 2018-19 में ही खाड़ी सहयोग परिषद राज्यों के साथ भारत का कुल व्यापार 121 अरब डॉलर से अधिक था! इसी तरह, वित्त वर्ष 2021-22 में आसियान देशों के साथ भारत का व्यापार 110 अरब डॉलर तक पहुंच गया था, यानी भारत-अमेरिका व्यापार से केवल 10 अरब डॉलर कम। इसके अलावा, भारत-अमेरिका व्यापार कई जटिल द्विपक्षीय व्यापारिक मुद्दों से भरा हुआ है, जैसे भारत में कथित उच्च टैरिफ, अमेरिका की डेटा स्थानीयकरण मांगें और कुछ क्षेत्रों में एफडीआई प्रतिबंधों को जारी रखना- जैसे बैंकिंग, परमाणु ऊर्जा, रेलवे, बहु-ब्रांड खुदरा व्यापार, रियल एसटेट सहित कुछ वित्तीय सेवाएं, और कृषि तथा फूलों की खेती और पशुपालन। दूसरी ओर, भारत अधिक एच1-बी वीजा और भारतीय टेक प्रोफेश्नल्स के लिए अमेरिका जाने के लिए यात्रा परमिट में आसानी के लिए अमेरिका के साथ कड़ी सौदेबाजी कर रहा है।

इसी तरह, भले ही अमेरिका भारत में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) का एक प्रमुख है, लेकिन यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि 2021 तक छोटे से देश सिंगापुर, मॉरीशस और संयुक्त अरब अमीरात के बाद अमेरिका भारत में एफडीआई के स्रोत के रूप में चौथे स्थान पर था और 2022 में ही अमेरिका सिंगापुर के बाद दूसरे स्थान पर आया, लेकिन मॉरीशस और यूएई से थोड़ा ही आगे रहा। मुद्दा यह है कि भारत अपने औद्योगीकरण को बढ़ावा देने के लिए अमेरिका की वित्तीय पूंजी पर इतना भी निर्भर नहीं है।

फिर भी, अगर मोदी हारने वाले घोड़े पर दांव लगाते हैं, तो आगे क्या होगा हम समझ सकते हैं!

(लेखक आर्थिक और श्रम मामलों के जानकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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