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नई शिक्षा नीति, सीयूसीईटी के ख़िलाफ़ छात्र-शिक्षकों ने खोला मोर्चा 

बीते शुक्रवार को नई शिक्षा नीति (एनईपी ), हायर एजुकेशन फंडिंग एजेंसी (हेफ़ा), फोर ईयर अंडरग्रेजुएट प्रोग्राम (FYUP),  सेंट्रल यूनिवर्सिटी कॉमन एंट्रेंस टेस्ट (सीयूसीईटी) आदि के खिलाफ दिल्ली विश्वविद्यालय के आर्ट्स फैकल्टी में छात्र-शिक्षकों के द्वारा एक सार्वजनिक चर्चा का आयोजन किया गया।  
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शिकाशविदों का हमेशा से ही मानना रहा है कि भारत को अपने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 6% शिक्षा पर खर्च करने की आवश्यकता है, वर्ष 1968 और उसके बाद की हर राष्ट्रीय शिक्षा नीति में यह अनुशंसा की गई है, लेकिन इसके 52 वर्ष बाद भी देश में सार्वजनिक शिक्षा पर महज 3.1% खर्च किया जा रहा है।  

हालांकि, शिक्षा के कई जानकारों का यह मानना है कि नई शिक्षा नीति शिक्षा में निजीकरण को प्रोत्साहित कर रहा है।

बीते शुक्रवार को नई शिक्षा नीति (एनईपी ), हायर एजुकेशन फंडिंग एजेंसी (हेफ़ा), फोर ईयर अंडरग्रेजुएट प्रोग्राम (FYUP),  सेंट्रल यूनिवर्सिटी कॉमन एंट्रेंस टेस्ट (सीयूसीईटी) आदि के खिलाफ दिल्ली विश्वविद्यालय के आर्ट्स फैकल्टी में छात्र-शिक्षकों के द्वारा एक सार्वजनिक चर्चा का आयोजन किया गया था।  

इस चर्चा में गोपाल प्रधान, आभा देव हबीब, नंदिता नारायण, माया जॉन और लक्ष्मण यादव सहित कई अकादमिक जगत से जुड़े लोग शामिल हुए। ‘आइसा’, ‘एसएफआई’, ‘डीएसयू’ सहित कई प्रगतिशील छात्र संगठन और शिक्षक संगठन ‘डीटीएफ’ के संयुक्त पहल पर ‘सेव डीयू’ कैम्पन के बैनर तले इस प्रतिरोध रूपी चर्चा का आयोजन किया गया था।

हाल ही में, दिल्ली विश्वविद्यालय के एग्जीक्यूटिव काउंसिल ने उच्च शिक्षा अनुदान एजेंसी (हेफ़ा) से एक हज़ार करोड़ रूपये से अधिक के ऋण लेने की मांग को मंजूरी दी है। यह ऋण मुख्य रूप से बुनियादी ढांचे के विकास और पूंजीगत संपत्ति के निर्माण के लिए लिया जा रहा है।

इस फंडिंग एजेंसी के अस्तित्व पर सवाल करते हुए अम्बेडकर यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर गोपाल प्रधान सभा को संबोधित करते हुए कहते हैं कि, “नीचे तबक़े के लोगों के भीतर ऊँची शिक्षा की आकांक्षा पैदा हुई है, इसी आकांक्षा का फायदा उठाकर सरकार यह कहते हुए कि जो पुराने शैक्षिणक संस्थान हैं, वह एलिटिज्म को बढ़ावा देते थे इसलिए हम इसे ख़त्म करना चाहते हैं। लेकिन असल में वह यह कर रहे हैं कि नीचे के तबक़े को और अधिक पीछे धकेल रहे हैं; मसलन- सीटों की कटौती कर रहे हैं।”

प्रधान आगे कहते हैं, “हेफ़ा के मार्फ़त लोन देना आदि। हेफ़ा को लाने का मकसद है- यूजीसी को ख़त्म करना। हायर एजुकेशन में नीचे तबक़े के लोग जब आते थे तो उन्हें यूजीसी द्वारा प्राप्त फ़ेलोशिप के माध्यम से चार-पांच साल तक अपनी पढाई जारी रखना आसान हो जाता था। लेकिन यूजीसी को खत्म कर अब फंडिंग हेफ़ा से की जाएगी, जो असल में लोन के नाम पर आर्थिक मदद करेगी। इसका सीधा मतलब है कि छात्र-छात्राओं को नौकरी पाने से पहले ही कर्ज़दार बना दिया जाएगा। और इस तरह हायर एजुकेशन को डिफण्ड कर देने से नाश सिर्फ अपने देश का नहीं, बल्कि अपने देश के कद का भी विनाश होगा।”

डीयू के जीसस एंड मैरी कॉलेज में पढ़ा रही माया जॉन भी एनईपी के सम्बन्ध में इसी ओर इशारा करती हैं। वह कहती हैं कि नई शिक्षा नीति के बहुत सारे प्रावधान है, जो एक्सक्लूजन को बढ़ावा देगा। इससे शिक्षा के क्षेत्र में जो नौकरियां हैं, उसकी भी कटौती होने वाली है। एनईपी डिफार्म को ही कंसोलिडेट कर रहा है, रिफार्म की बात नहीं करता। 

उन्होंने आगे कहा कि, “सरकारी स्कूल के बच्चे सरकारी कॉलेज-यूनिवर्सिटी तक पहुँच नहीं सकते, हमारे कट ऑफ़ सिस्टम और प्रीमियम एलिट इंस्टीट्यूट्स के दायरे में यह बात इंश्योर होती है। प्रीमियम एलिट इंस्टीट्यूट्स कम सीटों पर टिका होता है इसलिए सीट बढ़ोतरी की बात कभी नहीं होती है। हाँ, सीयूसीईटी की बात जरूर होती है। सीट बढ़ेंगे तो जाहिर-सी बात है कि कॉम्पीटिशन कम होगा और ज्यादा बच्चे, जिसको अच्छे शिक्षक और क्लासरूम की जरूरत है, उनकी एंट्री होगी। लेकिन यह लोग छंटनी और नए तरीकों से कैसे कर सकते हैं, इसके बारे में जरूर सोचते हैं। अच्छे दिन का सपना दिखाकर, एनईपी को बार-बार आगे दिखा कर यह व्यवस्था हमें हर रोज मूर्ख बना रही है।”     

नई शिक्षा नीति के खिलाफ ज़ाकिर हुसैन कॉलेज में हिंदी पढ़ा रहें लक्ष्मण यादव कहते हैं, “आप तार्किक ढंग से सोचिये मत। आपके सोचने-समझने की क्षमता को खत्म कर देने का नाम है ‘नई शिक्षा नीति’। एनईपी को कोई ‘नई शिक्षा नीति’ कहते हैं। कोई इसे ‘राष्ट्रवादी शिक्षा नीति’ करते हैं। तो हम कहते हैं एनईपी का मतलब ‘नई शिक्षा नीति’ नहीं है, बल्कि ‘नहीं एजुकेशन पॉलिसी है यानी कि अब किसी को शिक्षा नहीं मिलेगी। इसी की रणनीति है यह शिक्षा नीति।”

आगे उन्होंने कहा कि, “यह सच है कि तमाम सेंट्रल यूनिवर्सिटीज के अच्छे कॉलेज में एडमिशन नहीं मिलता है। तो बीमारी तो सही पकड़ी आपने कि एडमिशन नहीं मिलता है। सही बात है। अब उसका इलाज क्या ढूंढा कि हम एक कॉमन एंट्रेंस टेस्ट देंगे। इसका सिलेबस किसका होगा, स्टेट बोर्ड का या सेंट्रल बोर्ड- सीबीएसई का! दूसरा सवाल कि अगर कॉमन एंट्रेंस टेस्ट होगा तो कोचिंग का एम्पायर खड़ा होगा। तो यह कोचिंग कहाँ खुलेगी, दिल्ली, लखनऊ, पटना जैसे शहरों में। गाँवों में कोई कोचिंग सेंटर नहीं खुला होगा। वहां कोई पढाई नहीं है। कंप्यूटर पर बैठकर मल्टीप्ल चॉइस क्वेश्चन का आंसर कौन दे सकता है! जिनकी पीढ़ियों में लोगों ने हाथ से कलम तक नहीं पकड़ी, उनके बच्चों की अंगुलियाँ कंप्यूटर पर जाने पर थरथराती हैं। आज हमारे विश्वविद्यालय में 50 लोगों की क्लास ऑनलाइन चली, तो 25-30 बच्चे गायब हो गए। जो 20-25 बच्चे नहीं आएं, उनमें 99 प्रतिशत प्रथम पीढ़ी के पढ़ाने वाले बच्चे थे। इस नई शिक्षा नीति और सीयूसीईटी के आने से सबसे पहले पढाई से दूर वह लोग होंगे, जो हजारों सालों से पढाई से दूर थे।”

ज्ञात हो कि शैक्षणिक जगत में नित नए प्रयोग किए जा रहे हैं। मसलन नई शिक्षा नीति के हवाले से अंडरग्रेजुएशन का कोर्स चार साल का होने जा रहा है। अब तक जो कॉलेज-यूनिवर्सिटी को संरचनात्मक विकास सहित अन्य शैक्षणिक कार्यों के लिए वित्तीय सहायता विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) से मिलता था, अब वह लोन (ऋण) के रूप में हेफ़ा से मिलेगा।

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