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पठान की सफलता बनाम बीबीसी डॉक्यूमेंट्री पर प्रतिबंध

वह डॉक्यूमेंट्री जिसे वे नहीं चाहते थे कि आप देखें और वह फ़िल्म जो सभी ने देखी।
BBC Doc Pathaan

भारत के राजनीतिक संदर्भ ने, पठान फिल्म को बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री-इंडिया: द मोदी क्वेश्चन को आमने-समाने खड़ा कर दिया है। छह दिनों के अंतर से रिलीज़ हुई दोनों फिल्में हमारी संवेदनाओं को छूने का संघर्ष करती नज़र आती है, और इस प्रकार बायनेरिज़ का एक मिश्रण बनाती हैं- रील इंडिया बनाम रियल इंडिया, यादें बनाम विस्मरण, और दमन बनाम अवज्ञा।

रुबीना मोहसिन (दीपिका पादुकोण) ने पठान (शाहरुख खान) के साथ एक डांस सीक्वेंस में जो भगवा बिकनी पहनी है, उसके कारण पठान को बदनाम करने का प्रयास किया गया था। और फिल्म को "गंदी मानसिकता के साथ शूट" करने का आरोप लगाया गया।

हिंदुत्व ट्रोल्स को उम्मीद थी कि दर्शक पठान का बहिष्कार करेंगे। इसके विपरीत, वह हुकूमत थी जिसने इंडिया: द मोदी क्वेश्चन डॉक्यूमेंट्री पर ऑनलाइन प्रतिबंध लगा दिया था यह विश्वास जताते हुए कि भारतीयों को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कथित अनुचित अतीत को नहीं देखना चाहिए।

पठान और बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री दोनों राजनीतिक हैं। पठान संदेश के लिए दो-अर्थ वाले संवादों का इस्तेमाल करती हैं। मोदी क्वेश्चन, एक पूरी तरह से राजनीतिक डॉक्यूमेंट्री/वृत्तचित्र है। जस्टिस (सेवानिवृत्त) मार्कंडेय काटजू जैसे लोग पठान को सर्कस जैसा कुछ बताते हुए खारिज कर रहे हैं।

लेकिन भारत के सबसे दिमाग़ी फिल्म निर्देशकों में से एक अनुराग कश्यप ने एक साक्षात्कार में कहा, "लोग कहते रहे हैं कि फिल्म देखते समय अपने दिमाग घर छोड़ कर जाना चाहिए। मैं उन्हें बताता हूं कि मैं फिल्म देखने के लिए अपना पूरा दिमाग साथ लेकर गया था। मैंने देखा कि कितनी चतुराई से... [फिल्म] ने एकता का संदेश दिया है। मैं उस पर आश्चर्य कर रहा हूं।

कश्यप, आश्चर्य इसलिए जताते हैं क्योंकि वे भी हमारी तरह, सामाजिक रूप से विखंडित भारत में रह रहे हैं। ऊपर दिए गए साक्षात्कार में, उन्होंने कहा, "बॉलीवुड का बहिष्कार, मुस्लिम विरोधी आडंबर, या आप इसे कुछ भी कह सकते हैं, यह सिर्फ थका देने वाला है।" उन्होंने कहा कि यह नकारात्मक ऊर्जा समाप्त हो रही है, क्योंकि पठान सिर्फ एक फिल्म नहीं है। यह एक त्योहार है, एक उत्सव है [एकता का]।

डार्क मिशन 

अतीत में भी भारत में सामाजिक एकता पर समय-समय पर दबाव बनाया जाता रहा है। लेकिन शायद ही कभी एकता इतनी टूटी हो जितनी 2002 के गुजरात दंगों के दौरान टूटी थी।  मुसलमान इसके मुख्य पीड़ित थे, जो मारे गए और जिनका बलात्कार किया गया, और जो सबसे अधिक असहाय और निराश दिखे। तब गुजरात के मुख्यमंत्री मोदी थे, जो अब खुद के  लिए मानवतावाद का एक नया व्यक्तित्व गढ़ रहे हैं। फिर भी मुसलमानों को शत्रु की तरह पेश करना एक स्वीकार्य बात हो गई है, कम से कम यह इसलिए भी हुआ कि मोदी ने गृह मंत्री अमित शाह जैसे लोगों को कभी भी नफ़रत भरे भाषणों को देने से नहीं रोका। 

पठान पर आते हैं, जिसमें पाकिस्तानी जनरल कादिर (मनीष वाधवा) कैंसर से पीड़ित हैं। उसके पास जीने के लिए अधिकतम तीन वर्ष बचे हैं। क्योंकि समय तेजी से बीत रहा है इसलिए कादिर का मानना है कि उसे भारत को धारा 370 को रद्द करने के निर्णय को पलटने के लिए मजबूर करना चाहिए। अपने मिशन के लिए, कादिर ने भारत की विदेशी खुफिया एजेंसी, रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) के एक ऑपरेटिव जिम (जॉन अब्राहम) को भाड़े पर लिया, जो अब देश के खिलाफ विद्रोही बन गया था।  

इतिहास के अतीत में जाएं तो, मोहम्मद अली जिन्ना भी, कादिर की तरह, एक लाइलाज बीमारी से पीड़ित थे, यद्यपि वे तपेदिक से पीड़ित थे-और उनके 1947 के बाद एक वर्ष भी ज़िंदा रहने की उम्मीद नहीं थी। शिक्षाविद स्टेनली वोलपर्ट कहते हैं कि जिन्ना ने रणनीति के रूप में, गंभीर रूप से बीमार होने के बावजूद, एक सामान्य व्यक्ति होने का नाटक किया। जिन्ना, पाकिस्तान एंड इस्लामिक आइडेंटिटी: द सर्च फॉर सलादीन में एस अकबर अहमद लिखते हैं, "अगर [वायसराय] माउंटबेटन को उनकी बीमारी का अंदाज़ा हो जाता, तो पाकिस्तान नहीं होता।"

यही कारण है कि जिन्ना टूट गए और गैर-जिम्मेदाराना ढंग से विभाजनकारी बन गए। भारत के विभाजन के परिणामस्वरूप एक लाख लोग मारे गए थे।

कादिर और उनकी बीमारी के ज़रिए, पठान फिल्म दर्शकों को 1947 के आघात से जोड़ती है। फिर भी गांधी-नेहरू का कम्पोजिट/मिला-जुला राष्ट्रवाद विफल नहीं हुआ था। इसकी सफलता का आदर्श इसका नायक है। यह पठान ही है, जो आखिरकार भारत को बचाता है। भले ही फिल्म उनकी पहचान के बारे में अस्पष्ट है, पठान नाम मुस्लिम होने की ओर इशारा करता है, खासकर इसलिए क्योंकि शाहरुख खान बिरादरी से भी पठान हैं। भारत के अलग-थलग पड़े मुस्लिम समुदाय, जिस पर भारत को विभाजित करने का आरोप लगाया जाता है, ने एक देशभक्त और राष्ट्रवादी पैदा किया है- रील इंडिया में पठान और रियल इंडिया में शाहरुख खान।

बीबीसी डॉक्यूमेंट्री में जिम और कादिर की अमानवीय खोज, गुजरात के राजनीतिक वर्ग से  मेल खाती है, क्योंकि जब गुजरात जल रहा था तब पुलिस की निष्क्रियता को दिखाती है। डॉक्यूमेंट्री में पुलिस को, संशोधित नागरिकता कानून के खिलाफ विरोध प्रदर्शनों को क्रूरता से दबाने और यहां तक कि 2020 के दिल्ली दंगों में भाग लेते हुए भी दिखाती है।

राज्य के खिलाफ हो जाना

क्या मुस्लिम पीड़ितों की पीड़ा उन्हें कटु और क्रोधित बनाती है?

पठान में, जिम बदमाश बन गया था क्योंकि आतंकवादियों को फिरौती न देने की भारत की नीति के कारण उसे अपनी पत्नी को आतंकियों के हाथों खोना पड़ा। इसलिए वह भारत को दंड देना चाहता था। जिम अपने राजनीतिक संदर्भ का उतना ही शिकार है, जितना गुजरात या दिल्ली में मारे गए लोगों के रिश्तेदार, क्योंकि राज्य ने उन्हें ज़ुल्मों-सितम के हवाले छोड़ दिया था।

लेकिन किसी व्यक्ति की पीड़ा उनके लिए अपने ही देश के खिलाफ जाने का औचित्य नहीं हो सकती है।

पठान में, रुबीना ने, पाकिस्तानी सेना द्वारा उसके पिता की हत्या करने के बावजूद, पाकिस्तान की जासूसी एजेंसी, इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस के एक एजेंट के रूप में काम किया। फिर भी जिम और कादिर का अमानवीय मिशन, रुबीना को पठान के साथ जुड़ने के लिए प्रेरित करता है ताकि लाखों लोगों को एक वायरस से बचाया जा सके। दूसरे शब्दों में, व्यक्ति को अपनी हुकूमत के खिलाफ खड़े होने के मामले में उचित ठहराया जाता है, यदि उसकी नीतियां सामूहिक विनाश की ओर ले जाती हैं।

लेकिन पीड़ित, हुकूमत के साथ कैसे मेल मिलाप करते हैं? जिम जैसे पीड़ित। गुजराती मुसलमानों की तरह। जैसे दिल्ली के मुस्लिम युवकों को गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम के तहत कैद किया गया। बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री के विपरीत, जो उनके विलाप को रिकॉर्ड करता है, पठान एक रास्ता सुझाते हैं- किंत्सुगी के सिद्धांत के अनुसार जीना, पिघले हुए सोने के साथ टूटे हुए मिट्टी के बर्तनों की मरम्मत करने की जापानी कला, जो इसे मूल रूप से इससे भी अधिक कीमती बनाती है। यह प्रयोग करने योग्य भी है।

इसी तरह, सामूहिकता के ज़रिए, राष्ट्र के लिए काम करके एक व्यक्ति के खंडित स्वयं को एक साथ जोड़ा जा सकता है। यह अहसास जिम को कभी नहीं आता।

धर्मनिरपेक्ष पहचान

ईसाई नाम जिम ने हमें यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि क्या फिल्म निर्माता ने जानबूझकर उन्हें हिंदू पहचान न देकर किसी विवाद को टाल दिया था। सबसे अधिक संभावना तो इसकी ही है। लेकिन यह भी सच है कि जिम ईसाई होने का एहसास नहीं कराते हैं। और इसी तरह वास्तव में, न ही पठान अपने मुस्लिम होने का प्रदर्शन करते हैं।

जिम और पठान दोनों हमारे देश के संस्थापकों के भारतीय होने के आदर्श के प्रतीक हैं जो उनके धर्म, जाति और भाषा से कहीं अधिक महत्व रखते हैं। जब लोग अपनी धार्मिक पहचान में फंस जाते हैं, जैसा कि अक्सर भारत में होता है, तो वे गैर-भारतीय और अमानवीय हो जाते हैं, जैसा कि बीबीसी के वृत्तचित्र में दर्शाया गया है।

पठान एक अवांछित बच्चा था। उनके माता-पिता ने उसे सबसे अधिक असंभव सी जगह - एक सिनेमा थियेटर में छोड़ दिया था। यह दर्शकों को हिंदी फिल्म उद्योग के बारे में सोचने का इशारा करती है कि जहां धार्मिक पहचान मायने नहीं रखती थी - और जहां इसे कोई  मायने भी नहीं रखना चाहिए। इस प्रकार यह बॉलीवुड को सांप्रदायिक बनाने की कोशिश करने वालों के प्रति थोड़ा आलोचनात्मक है, जो समग्र भारत के चमकने का उदाहरण है।

पठान को उनका नाम अफगानिस्तान के एक गाँव के निवासियों से मिला, जिस गांव को उसने धव्स्त होने से बचा लिया था। यह विषयगत दरार दर्शकों को सुझाव देती है कि अफगानिस्तान ने भले ही आतंकवादियों को जन्म दिया हो, लेकिन इसमें ऐसे मनुष्य भी हैं जो उदार और कृतज्ञ हैं। रुबीना भी अच्छे पाकिस्तानी की प्रतीक हैं। संदेश स्पष्ट है- मानवतावाद का सभ्यतागत सिद्धांत दक्षिण एशिया को जोड़ता है।

बीबीसी डॉक्यूमेंट्री पर प्रतिबंध के कारण लोगों को इसे देखने का एक तरीका मिल गया था। कई विश्वविद्यालयों में, छात्रों ने सार्वजनिक रूप से द मोदी क्वेश्चन को निडरता से देखा। पठान को लेकर मनगढ़ंत विवाद ने लोगों को सिनेमाघरों में उमड़ते हुए देखा, जो भाजपा को संकेत था और जैसा कि कश्यप ने कहा कि वे अब नफरत से बहुत थक चुके हैं।

लेखक एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिये गए लिंक पर क्लिक करें।

Success of Pathaan vs Ban on BBC Documentary

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