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इतवार की कविता: रघुवीर सहाय और मंगलेश डबराल की कविताएं

नौ दिसंबर हिंदी के प्रतिष्ठित कवि और पत्रकार रघुवीर सहाय का जन्मदिन था और इसी दिन दूसरे प्रतिष्ठित कवि और पत्रकार मंगलेश डबराल की पुण्यतिथि थी। आज इतवार की कविता में आइए पढ़ते हैं इन दोनों कवियों की एक-एक महत्वपूर्ण कविता।
raguveer and manglesh

हँसो हँसो जल्दी हँसो

 

हँसो तुम पर निगाह रखी जा रही जा रही है

 

हँसो अपने पर न हँसना क्योंकि उसकी कड़वाहट पकड़ ली जाएगी

और तुम मारे जाओगे

ऐसे हँसो कि बहुत खुश न मालूम हो

वरना शक होगा कि यह शख़्स शर्म में शामिल नहीं

और मारे जाओगे

 

हँसते हँसते किसी को जानने मत दो किस पर हँसते हो

सब को मानने दो कि तुम सब की तरह परास्त होकर

एक अपनापे की हँसी हँसते हो

जैसे सब हँसते हैं बोलने के बजाए

 

जितनी देर ऊँचा गोल गुंबद गूँजता रहे, उतनी देर

तुम बोल सकते हो अपने से

गूँज थमते थमते फिर हँसना

क्योंकि तुम चुप मिले तो प्रतिवाद के जुर्म में फँसे

अंत में हँसे तो तुम पर सब हँसेंगे और तुम बच जाओगे

 

हँसो पर चुटकलों से बचो

उनमें शब्द हैं

कहीं उनमें अर्थ न हो जो किसी ने सौ साल साल पहले दिए हों

 

बेहतर है कि जब कोई बात करो तब हँसो

ताकि किसी बात का कोई मतलब न रहे

और ऐसे मौकों पर हँसो

जो कि अनिवार्य हों

जैसे ग़रीब पर किसी ताक़तवर की मार

जहाँ कोई कुछ कर नहीं सकता

उस ग़रीब के सिवाय

और वह भी अकसर हँसता है

 

हँसो हँसो जल्दी हँसो

इसके पहले कि वह चले जाएँ

उनसे हाथ मिलाते हुए

नज़रें नीची किए

उसको याद दिलाते हुए हँसो

कि तुम कल भी हँसे थे !

-    रघुवीर सहाय

तानाशाह

तानाशाहों को अपने पूर्वजों के जीवन का अध्ययन नहीं करना पड़ता। वे उनकी पुरानी तस्वीरों को जेब में नहीं रखते या उनके दिल का एक्स-रे नहीं देखते। यह स्वत:स्फूर्त तरीके से होता है कि हवा में बन्दूक की तरह उठे उनके हाथ या बँधी हुई मुठ्ठी के साथ पिस्तौल की नोक की तरह उठी हुई अँगुली से कुछ पुराने तानाशाहों की याद आ जाती है या एक काली गुफ़ा जैसा खुला हुआ उनका मुँह इतिहास में किसी ऐसे ही खुले हुए मुँह की नकल बन जाता है। वे अपनी आँखों में काफ़ी कोमलता और मासूमियत लाने की कोशिश करते हैं लेकिन क्रूरता एक झिल्ली को भेदती हुई बाहर आती है और इतिहास की सबसे क्रूर आँखों में तब्दील हो जाती है। तानाशाह मुस्कराते हैं, भाषण देते हैं और भरोसा दिलाने की कोशिश करते हैं कि वे मनुष्य है, लेकिन इस कोशिश में उनकी भंगिमाएँ जिन प्राणियों से मिलती-जुलती हैं वे मनुष्य नहीं होते। तानाशाह सुन्दर दिखने की कोशिश करते हैं, आकर्षक कपड़े पहनते हैं, बार-बार सज-धज बदलते हैं, लेकिन यह सब अन्तत: तानाशाहों का मेकअप बनकर रह जाता है।

इतिहास में कई बार तानाशाहों का अन्त हो चुका है, लेकिन इससे उन पर कोई फ़र्क नहीं पड़ता क्योंकि उन्हें लगता है वे पहली बार हुए हैं।

-    मंगलेश डबराल

(साभार: कविता कोश)

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