इतवार की कविता: “काश कभी वो वक़्त ना आए/ जब ये दहक़ां लौट के जाएँ/ गाँव की हदबंदी कर लें…”
दिल्ली की सरहद पर किसान आंदोलन अपने सौ दिन पूरे कर चुका है। इन सौ दिनों में किसानों ने क्या कुछ नहीं झेला, देशद्रोह के आरोप से लेकर पुलिस की लाठियां तक। वो कील-कांटे, दीवारें भी देखीं जो दिल्ली ‘सल्तनत’ ने उनके आगे खड़ी कर दीं। लेकिन फिर भी किसानों का हौसला और उम्मीद दोनों बरकरार हैं। आज ‘इतवार की कविता’ में पढ़ते भी हैं और सुनते भी हैं इन्हीं सब हालात को बयान करती शायर और वैज्ञानिक गौहर रज़ा की नई नज़्म ‘हदबंदी’।
हदबंदी
घर में चैन से सोने वालों
संघर्षों की पथरीली राहों पर चलना
बिल्कुल भी आसान नहीं है
ये दहक़ां जो सड़कों पर हैं
इन के लिए भी
खेतों को, खलियानों को
या बाग़ों को, चौपालों को
छोड़ के अपने हक़ की ख़ातिर
दिल्ली की सरहद तक आना
बिल्कुल भी आसान नहीं था
काश के ऐसा होता, दिल्ली
तुम ने बाहें खोली होतीं
इनको गले लगाया होता
ज़ख्मों पर कुछ मरहम रखते
इनके दुःख को साझा करते
और कुछ अपने ज़ख़्म दिखाते
इन से कहानी, इनकी सुनते
अपनी भी रूदाद सुनाते
काश के ऐसा होता, दिल्ली
तुम इनको मेहमान समझते
तुम इनको भगवान समझते
बाहें खोल के स्वागत करते
गर ये नहीं तो इतना करते
तुम इनको इंसान समझते
काँटों के ये जाल ना बुनते
पत्थर की दीवार ना चुनते
कीलों के बिस्तर ना बिछाते
उन पर तुम इल्ज़ाम ना धरते
तरह तरह के नाम ना धरते
काश के ऐसा होता हमदम
संघर्षों के इन गीतों में
एक नग़मा दिल्ली का होता
काश के आज़ादी की पहली
जंग की यादें ताज़ा होतीं
काश के तुम को याद ये रहता
मेरठ के जब बाग़ी पहुँचे
तुम ने क्या सम्मान किया था
दहक़ानों के उन बेटों पर
जान को भी क़ुर्बान किया था
काश कभी वो वक़्त ना आए
जब ये दहक़ां लौट के जाएँ
गाँव की हदबंदी कर लें
काँटों के कुछ जाल बिछाएँ
कीलों के बिस्तर फैलाएँ
और तुम देश के राज सिंहासन पर बैठे तनहा रह जाओ
- गौहर रज़ा
25-02-2021
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