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G—20: जब आएं मेहमान तुम्हारे मेरी दिल्ली भी दिखलाना

‘इतवार की कविता’ में उस दिल्ली की बात की गई है जिसे सरकार ‘लॉकडाउन’ लगाकर अपने विदेशी मेहमानों की नज़रों से लगभग ओझल/अदृश्य कर देना चाहती है।
G20

एक दिल्ली वो है जो हुक्मरान G—20 के मेहमानों को दिखाना चाहते हैं और एक दिल्ली वो है जो आम आदमी की दिल्ली है। मेहनतकश की दिल्ली है। प्रतिरोध और आंदोलन की दिल्ली है। इसी दिल्ली को मुकुल सरल ने अपनी कविता में दिखाने-बताने की कोशिश की है।

 

G—20: मेहमानों के लिए गाइड बुक

 

जब आएं मेहमान तुम्हारे

मेरी दिल्ली भी दिखलाना

मैं बतलाता हूं कुछ जगह

उनको बिल्कुल भूल न जाना

 

भूल न जाना शाहीन बाग़ को

लोकतंत्र की नई आग को

 

सबसे पहले लेकर आना

और उन्हें सच्चाई बताना

कैसा एक क़ानून था आया

जिसने धरम का भेद बढ़ाया

 

इसी धरम का भेद मिटाने

और अपना ये देश बचाने

निकली गली गली से औरत

और मिलकर आवाज़ लगाई

संविधान का हलफ़ उठाया

दिलों में हक़ की अलख जगाई

 

उन्हें सुनाना असल कहानी

कैसे लड़ीं दादी और नानी

रात-दिन धरने पर बैठीं

और यही हुक्काम से कहतीं

जितना है ये मुल्क तुम्हारा

उतना ही है मुल्क हमारा

तुम्हे दिखाए हम क्यों काग़ज़

 “मिट्टी दस्तावेज़ हमारा”*

 

उनको शायद मालूम होगा

फिर भी तुम उनको बतलाना

इन औरतों ने मुल्क बचाया

एक नया इतिहास बनाया

 

इसके बाद अगर चाहो तो

अपनी ‘सुंदरता’ दिखलाना

लेकिन साथ ही ये बतलाना

किसके दम से दिल्ली ये सजी हुई है

किसके ख़ून-पसीने से ये चमक रही है

किसने कितनी क़ुर्बानी दी

किसने क़ीमत अदा करी है

 

झुग्गियों के निशां दिखाना

मज़ारों की जगह बताना

जिनको तुमने मिटा दिया है

बुलडोज़र को चला दिया है

 

रेहड़ी—पटरी की गर पूछें

उनसे कहना—

हटा दिया है

 

दिल्ली संग एनसीआर घुमाना

लेकिन तुमसे कहता हूं मैं

किसान मोर्चे भूल न जाना

 

सिंघु बॉर्डर लेकर आना

टिकरी बॉर्डर भी दिखलाना

गाज़ीपुर बॉर्डर की उनको

पूरी दास्तान बताना

 

उन्हें बताना कैसे अन्नदाता

आकर सड़कों पर बैठे

गरमी-सरदी सारे मौसम

कैसे अपने सर पे सहते

 

कैसे थे क़ानून कृषि के

खेत-किसानी सब खा जाते

अगर कहीं लागू हो जाते

रोटी के लाले पड़ जाते

 

राजा के ‘मित्रों’ की ख़ातिर

जन ने कितनी ठोकर खाई

कितनी लंबी लड़ी लड़ाई

कितनों ने थी जान गंवाई

 

कैसे एक आंसू छलका था

कैसे राजा थरथर कांपा

देख किसानों की एकजुटता

उल्टे पांव पीछे भागा

.....

ख़ूब घुमाना, सैर कराना

अगर उन्हें अक्षरधाम ले जाना

मेरी यमुना भूल न जाना

जिसकी छाती के ऊपर ये

भव्य महल खड़ा किया है

 

दिखलाना कैसी ज़ख़्मी है

दिखलाना कितनी मैली है

किसने रोकी इसकी धारा

क्यों हुई ये ज़हरीली है

 

‘भव्यता’ से मन भर जाए

हिंदुत्वा से जी घबराए

तो फिर उसके बुर्ज से उनको

खादर का भी हाल दिखाना

 

हाल दिखाना और बताना

कैसे आती बाढ़ यहां पर

कैसे मचती ख़ूब तबाही

कितने हो जाते हैं बेघर

नहीं कहीं कोई सुनवाई

 

कहां जाते हैं तबाह लोग ये

कैसे सड़कों पर रहते हैं

कैसे कटते रात-दिन हैं

कैसा यह जीवन जीते हैं

 

मेट्रो में भी ख़ूब घुमाना

और उनको ये बात बताना

कितने कैसे लोग यहां पर

खुले में ही सोते थे अक्सर

मेट्रो के ही वजह से उनको

हुए हैं सर पर शेड मयस्सर**

 

जब पूछें वो लोग कहां हैं

तब उनको ये सच बतलाना

आपकी ख़ातिर, आपकी ख़ातिर

सबको दूर खदेड़ दिया है

 

ले जाना मज़दूर की बस्ती

ले जाना उन फैक्टरियों में

जहां लगती हर बरस आग है

और निकलने का कोई रस्ता

बना नहीं है बचा नहीं है

 

नई दिल्ली भी तुम दिखलाना

लेकिन पुरानी भूल न जाना

तंग अंधेरी गलियों में

कैसा दुख का डेरा है

मेहनतकश के जीवन में

क्यों होता नहीं सवेरा है

 

लाल क़िला भी ख़ूब घुमाना

और उन्हें ये बात बताना

कैसे एक नायाब क़िले को

ठेके पे दे रक्खा हमने

 

कुतुब मीनार भी लेकर आना

और उन्हें ये भी बतलाना

ढूंढ रहे हैं इसमें मंदिर

जल्दी ही मिल जाएगा वो

फिर इसको मिसमार*** करेंगे

 

वो दिल्ली भी तुम दिखलाना

जहां कराए तुमने दंगे

हिंदू-मुस्लिम आग लगाकर

वोट बढ़ाए तुमने अपने

 

उन सड़कों पर भी ले जाना

जहां चले मज़दूर थे पैदल

कोविड के इस लॉकडाउन में

कितना जीवन हुआ था मुश्किल

 

जेएनयू भी लेकर आना

जामिया भी लेकर आना

और ख़ूं के निशां दिखाना

 

बतलाना कैसे बच्चों के

सर पे तोड़ी तुमने लाठी

कैसे तानी बंदूकें थीं

कैसी डाली नई परिपाटी

 

शिक्षा को बर्बाद किया है

शिक्षक को बदनाम किया है

छात्रों को जेलों में डाला

एंटीनेशनल नाम दिया है

 

फिर भी न झुकते न डरते

सच्चाई के लिए ही लड़ते

 

और आख़िर में कहता हूं मैं

जंतर-मंतर भूल न जाना

सारे मेहमानों को अपने

एक बार तो लेकर आना

 

उन्हें दिखाना क्यों कहते हो

‘लोकतंत्र की जननी’ ख़ुद को

कितना तुमने प्यार दिया है

धरने का अधिकार दिया है

 

जेलनुमा एक जगह बनाई

और ऐसी है क़ैद लगाई

घुट जाए आवाज़ जहां पर

मर जाए फ़रियाद जहां पर

 

फिर भी जुटते लोग यहां हैं

फिर भी डटते लोग यहां हैं

.........

हां तुमसे एक बात बताऊं

एक चालाकी भी समझाऊं

दिल्ली के भीतर ही रखना

नहीं देश की बात बताना

मणिपुर का नाम भी भूले

अपने मुंह पर तुम न लाना

 

नहीं बताना गुजरात-अयोध्या

नूंह का भी कोई ज़िक्र न करना

बस्ती बस्ती आग लगी है

लेकिन इसकी फ़िक्र न करना

 

महंगाई की बात न करना

बेकारी का नाम न लेना

जनता कैसी ठगी खड़ी है

जनता का पैग़ाम न लेना

 

बस तुम ‘मन की बात’ सुनाना

हंस-हंस के हर बात बताना

कैसे एक संसद के होते

दूजी का निर्माण किया है

राजदंड को लागू करके

लोकतंत्र को कुचल दिया है

...............

मुकुल सरल 

कवि—पत्रकार

1.  *“मिट्टी दस्तावेज़ हमारा” यह पंक्ति शोभा सिंह के कविता संग्रह से

2.  ** कीर्तिश के एक कार्टून से प्रेरित पंक्ति

3.  ***मिसमार— विध्वंस, ध्वस्त

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