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इतवार की कविता: जहां-तहां दगने लगी शासन की बंदूक

जनवादी कवि बाबा नागार्जुन का आज स्मृति दिवस है। आज ही के दिन 87 वर्ष की आयु में 5 नवंबर, 1998 को बिहार के दरभंगा में उनका निधन हो गया था। इतवार की कविता में आइए पढ़ते हैं उनकी दो महत्वपूर्ण कविताएं
nagarjun

शासन की बंदूक

 

खड़ी हो गई चाँपकर कंकालों की हूक

नभ में विपुल विराट-सी शासन की बंदूक

 

उस हिटलरी गुमान पर सभी रहें है थूक

जिसमें कानी हो गई शासन की बंदूक

 

बढ़ी बधिरता दस गुनी, बने विनोबा मूक

धन्य-धन्य वह, धन्य वह, शासन की बंदूक

 

सत्य स्वयं घायल हुआ, गई अहिंसा चूक

जहाँ-तहाँ दगने लगी शासन की बंदूक

 

जली ठूँठ पर बैठकर गई कोकिला कूक

बाल न बाँका कर सकी शासन की बंदूक

 

रचनाकाल: 1966

 

मेरी भी आभा है इसमें

 

नए गगन में नया सूर्य जो चमक रहा है

यह विशाल भूखंड आज जो दमक रहा है

मेरी भी आभा है इसमें

 

भीनी-भीनी खुशबूवाले

रंग-बिरंगे

यह जो इतने फूल खिले हैं

कल इनको मेरे प्राणों ने नहलाया था

कल इनको मेरे सपनों ने सहलाया था

 

पकी सुनहली फसलों से जो

अबकी यह खलिहाल भर गया

मेरी रग-रग के शोणित की बूंदें इसमें मुसकाती हैं

 

नए गगन में नया सूर्य जो चमक रहा है

यह विशाल भूखंड आज जो चमक रहा है

 

-   नागार्जुन

रचनाकाल : 1961

(दोनों कविताएं साभार कविता कोश)

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