इतवार की कविता : साधने चले आए हैं गणतंत्र को, लो फिर से भारत के किसान

भारत के किसान
लो आ ही गए
फिर से किसान।।
ठिठुरते लोकतंत्र की
इबारतों के बीचोंबीच;
शहरों के गोल चक्करों पर,
लम्बी-लम्बी सड़कों पर;
जहां जनतंत्र की झांकी निकलती है,
विदेशी मेहमानों को बुला
सेना कदमताल करती है।
ठंडक भरी,
सर्दियों में,
पानी की फुहारों में जमने,
अपने ही हौसलों से जंग लड़ने;
सरकारी तंत्र की
पेचीदगियों में,
उलझते-सुलझते,
हुक्मरानों की
कलाबाजियों के हुनर
को सुलटते-समझते,
लो आ ही गए
फिर से किसान।।
आश्वासनों के जादू की
जादूगिरी के जाल,
सरकारी करतब कमाल,
नौकरशाही के बहाने
और,
उसके साथ
बनते-बिगड़ते अफ़साने।
इंसाफ़ की तराजू पर
न्यायगिरी की लम्बी जुबान
छूती आसमान।
हर ओर
चुभते शब्दों के वार,
बेशर्म-
लाचार सवाल;
बस,
संघर्ष-जज्बात की बात,
देती है आस।
राजनीति के गोल-गोल बोल
भीतर से पोलमपोल,
ज्यों पैसीफायर दे
बच्चों को फुसलाया जाता है,
झूठे और खोखले दिलासे से
रोने पर अंकुश लगाया जाता है।
राजनीति के जानिब
हमवतनों का
दिल कत्ल करवाया जाता है,
बागी होने का
तमगा पहनाया जाता है,
जन-मन को बंटवाया जाता है।
राजा और वजीर की चाल
हाथी और घोड़ा कमाल
मोहरे भी कर रहे धमाल।
सरकारी जुमलों की
बदलती जुबान
और, देखो
आज
खुले आसमान तले
मैदान-ए-संघर्ष में हैं
फिर से
गांव के किसान।।
सत्य है
सब जानते हैं
मुफ़लिस हो और
चाहे हो हुक्मरान,
कि
बेशक
राह नहीं आसान
लेकिन
फिर भी
साधने चले आए हैं
गणतंत्र को,
लो, फिर से भारत के किसान।।
-उषा बिंजोला
साहित्य में रुचि रखने वाली उषा बिंजोला भारत सरकार के लिए काम कर रिटायर हो चुकी हैं। आजकल वे अमरीका में हैं और वहीं से ' न्यू इंडिया' में चल रही उथल पुथल पर नज़र बनाए हुए हैं।
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