‘इतवार की कविता’ : यह सदी किसके नाम

यह सदी किसके नाम
बेबाक नज़र थी
बातें
मीठे चश्मे के पानी-सी साफ़
सब की ज़रूरत रोटी
सदियों से
सबको रोटी जोड़ती
व्यापक एकता का सूत्र
जो कभी बनी थी
क्रांति का आह्वान संदेश
कठोर बिजली बादल पानी की गरज से
सवाल थे
क्यों
वे अपना मुल्क बेच रहे
अपना ज़मीर गिरवी
अब हमारी रोटी तक
बेच देना चाहते
भूख की सौदागिरी
वे खूंखार-अंधेरे के व्यापारी
वे सीधे सामने नहीं आते
अपने संरक्षक से
अपने हित के क़ानून पास करवाते
लूट को क़ानूनी जामा पहना
हड़प लेना चाहते
हमारी ज़मीनें
छीन लेना चाहते
हमारे बच्चों का भविष्य
फैलाते ख़ौफ़ का राज
लालच का साम्राज्य
उनके तिलस्म को तोड़ते
किसान
जो अन्न का उजाला
हमारी दुनिया में भरते
जो लोक + जमा तंत्र की
साज़िश
चुनावों में जीत की
दम्भी हेकड़ी
को
समझ बूझ गए
उनकी कतारों में
वक़्त के उस ताने-बाने में
आंदोलन की पुख़्ता बुनावट
डेरा डालो घेरा डालो
की रणभेरी बज रही थी लगातार...
स्त्री पुरुष का भेदभाव नहीं
सब समान, अगुआ भूमिका में
अपनी गरिमा के साथ
स्त्री किसान, पुरुष किसान
बने आंदोलन के सिपाही
इन्सानियत से भरपूर
संज़ीदगी की ढेर सारी
हुंकारें, एकताबद्ध
अपनेपन का सरमाया
बेमिसाल
उधर
बीतते हर दिन
गुपचुप साज़िशें
रचते सत्ता के गुर्गे
सुरक्षा के गोल छल्लों पर
नफ़रती हिंसा के
तीर चलाते
दुष्प्रचार करते
अपनी सामर्थ्य भर-आंदोलनकारी
षड्यंत्र की पहचान करते
उसे बेनक़ाब करते
लड़ाई अनवरत जारी रहती
गोदी मीडिया
आंदोलन की ख़बरों की
गहरी उपेक्षा करता
सत्ता की चाल
किसान उपेक्षा से थक हार
वापस लौट जाएं
समय का कड़वा सच यह भी
यदि किसान हारा
तो देश हार जाएगा
लोकतंत्र हार जाएगा
यह धरती की पीढ़ियां
हार जाएंगी
कड़ी मेहनत, क़ुर्बानियों के बाद
देश को ग़ुलामी से आज़ादी मिली
यह दूसरे किस्म की आज़ादी की
जंग है आरपार की
जीतने के दृढ़ संकल्प के साथ
बेशक वे हाथों से
कलमें छीन लें
अभिव्यक्ति की सारी आज़ादी छीन
जेलों में डाल दें
अन्नदाता की अगली कतारें तैयार हैं
आंदोलन के विस्तार को रोकना
नामुमकिन
दहशत की ख़ौफ़नाक परछाइयों के बीच
राह तलाशती आज़ाद रूहें
अपने को खोल रहीं
बंदिशों, वर्जनाओं से मुक्त
आज़ाद कर रहीं समूह को
देशप्रेम, लोकतंत्र बचाने का सपना
हज़ारों हज़ार आंखों में
अटल ध्रुव तारे सा झिलमिलाता
हां, विपरीत मौसम की चपेट
झेलते
पहलू में बैठने वाले साथियों को
खो देने का भारी दुख
थकते हैं वे
उन्हें गहरी नींद की दरकार
धरती अपना हरियाला आंचल
बिछा देती
उनकी थकन को
दरख़्तों की प्राणदायिनी हवा
हर लेती
जत्थे के जत्थे
मज़दूर किसान स्त्रियां
भोर की उजास फूटते ही
ताज़ा दम हो उठते
अपने सृष्टि बीजों को
अपनी विरासत सौंपते
अंधेरे युग में
रोशनी की बातें करते
कहते ग़ाफ़िल नहीं होना
मुकम्मल दुनिया के लिए
लड़ना ज़रूरी क्यों
पूरे आत्मविश्वास से
लड़ाई लंबी है
इक्कीसवीं सदी
हमारे नाम
लिखी जाएगी
देखना । ।
शोभा सिंह
(कवि-संस्कृतिकर्मी)
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