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महिलाओं का लंबा क़ानूनी संघर्ष भी सेना में पितृसत्ता की जड़ें नहीं उखाड़ पा रहा!

सुप्रीम कोर्ट का फैसला महिलाओं के पक्ष में आने के बावजूद अभी तक 50 फीसदी महिला अफसरों को स्थायी कमीशन नहीं मिल पाया है, जो सेना में महिलाओं के साथ हो रहे भेदभाव को खुले तौर पर दर्शाता है।
महिलाओं का लंबा क़ानूनी संघर्ष भी सेना में पितृसत्ता की जड़ें नहीं उखाड़ पा रहा!
Image courtesy : Live Law

“हमारी सामाजिक व्यवस्था पुरुषों ने पुरुषों के लिए बनाई है, समानता की बात झूठी है।”

सुप्रीम कोर्ट की ये टिप्पणी सेना के भीतर व्याप्त पितृसत्तात्मक संरचना की पोल खोलने के लिए काफी है। सेना में स्थाई कमीशन के लिए महिलाओं ने लगभग 16 साल की लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी, फैसला महिलाओं के पक्ष में आया बावजूद इसके अभी तक 50 फीसदी महिला अफसरों को स्थायी कमीशन नहीं मिल पाया है, जो सेना में महिलाओं के साथ हो रहे भेदभाव को खुले तौर पर दर्शाता है।

आपको बता दें कि 17 फरवरी 2020 को सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए कहा था कि महिला अधिकारियों को परमानेंट कमीशन देने से इंकार करना समानता के अधिकार के ख़िलाफ़ है। सरकार द्वारा दी गई दलीलें स्टीरियोटाइप हैं जिसे कानूनी रूप से कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता है।

गुरुवार, 25 मार्च को सुप्रीम कोर्ट 80 महिलाओं द्वारा परमानेंट कमीशन दिए जाने के संबंध में दायर याचिका पर अपना फैसला सुना रही थी। इस फैसले में कोर्ट ने एक बार फिर सरकार और सेना को फटकार लगाते हुए कही महत्वपूर्ण बातें कहीं।

सुप्रीम कोर्ट की कुछ महत्तवपूर्ण टिप्पणीयां

- कोर्ट ने महिला अधिकारियों को स्थाई कमीशन न देने पर अप्रत्यक्ष रूप से ‘भेदभाव’ करने के लिए सेना की आलोचना की। कोर्ट ने कहा कि जिन महिलाओं ने सेना के अलग-अलग क्षेत्र में अपने काम से देश को गौरवान्वित किया, उन्‍हें सेना ने स्‍थाई कमीशन का उनका जायज हक नहीं दिया।

- जस्टिस डीआई चंद्रचूड़ ने कहा, “हमारे समाज का ढांचा पुरुषों ने पुरुषों के लिए खड़ा किया है। कहीं कहीं यह ढांचा ठीक है लेकिन ज्यादातर यह हमारे पितृसत्तात्मक व्यवस्था को ही प्रदर्शित करता है। समान अधिकारों वाला समाज बनाने के लिए सोच में बदलाव लाने एवं तालमेल बिठाने की जरूरत है।”

- सेना की आलोचना करते हुए जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा, “यह कहना गलत नहीं होगा कि सेना में महिलाएं सेवा दे रही हैं जबकि वास्तविक तस्वीर कुछ दूसरी है। समानता का कृत्रिम आवरण संविधान में दिए गए सिद्धांतों के सामने सही नहीं ठहरता।”

- कोर्ट ने सेना के नियमों को भेदभावपूर्ण बताते हुए कहा कि स्थाई कमीशन देने के लिए महिलाओं से जिस फिटनेस लेवल की उम्मीद की जा रही है, वो गलत, अतार्किक और मनमानीपूर्ण है। कोर्ट के मुताबिक जांच का ये तरीका महिलाओं के लिए आर्थिक और मनोवैज्ञानिक रूप से नुकसानदेह है।

- कोर्ट ने कहा कि महिला अधिकारियों ने स्थायी कमीशन दिलाने की मांग की है। वे चैरिटी अथवा उनका पक्ष लेने के लिए नहीं आई हैं। अदालत ने सेना को अपने नियमों की समीक्षा करने का निर्देश दिया। कोर्ट ने मानकों को पूरा करने वाली सभी महिला अधिकारियों को स्थानीय कमीशन देने की बात स्पष्ट करते हुए अपने आदेश में कहा कि विजिलेंस एवं अनुशासनात्मक रिपोर्ट में खरा उतरने वाली महिला अधिकारियों को स्थायी कमीशन देने के योग्य समझा जाए।  

सुप्रीम कोर्ट ने सेना को साफ-साफ आदेश दिया है कि दो महीने के भीतर सारी महिलाओं को स्‍थाई कमीशन दिया जाए। अब सेना के पास महिलाओं को स्‍थाई कमीशन देने के अलावा और कोई रास्‍ता नहीं है। निश्चित तौर पर ये आधी आबादी के लंबे संघर्ष की जीत है, लेकिन हमें ये कतई नहीं भूलना चाहिए कि संविधान से मिले बराबरी का हक़ पाने के लिए औरतों ने कोर्ट में 16 साल की लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी है।

आख़िर सेना महिलाओं को स्‍थाई कमीशन क्यों नहीं देना चाहती?

सरकार का महिलाओं को स्‍थाई कमीशन और कमांडेंट पोजीशन न देने के पक्ष में जो तर्क थे वो किसी बाबा आदम के दकियानूसी विचारधारा से कम नहीं थे। जिस सरकार में रक्षामंत्री की पोस्ट पर निर्मला सीतारमण की ताज़पोशी कर बीजेपी देश को पहली पूर्णकालिक महिला रक्षामंत्री देने पर अपनी पीठ थपथपा रही थी वही सरकार तर्क दे रही थी कि ‘पुरुष महिला अधिकारियों से आदेश लेना पसंद नहीं करेंगे’, ‘महिलाओं में निर्णय लेने की क्षमता पुरुषों की तरह नहीं होती।’

इक्‍कीसवीं सदी में आधुनिक हथियारों से लैस दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी सेना का गर्व हासिल करने वाली भारतीय सेना 500 साल पुराने विचारों को अपनी ढाल बना रही थी। औरतों का शरीर मर्दों से अलग होता है, वो गर्भ धारण करती हैं, उन्‍हें हर महीने पीरियड्स होते हैं, ये सारे वाहियात तर्क दिए जा रहे थे सिर्फ ये साबित करने के लिए कैसे महिलाएं परमानेंट कमीशन और उस बहाने पेंशन से लेकर मेडिकल इंश्‍योरेंस तक तमाम जरूरी सुविधाओं की हकदार नहीं हैं, जो मर्दों को बड़ी आसानी से केवल मर्द होने के नाते मिल जाती हैं।

इसके अलावा सेना और सरकार ने महिलाओं की बायोलॉजी, उनके शरीर, प्रेग्‍नेंसी, पीरियड्स, मैटरनिटी लीव जैसी बातों को अपने पक्ष में एक हथियार की तरह इस्तेमाल करने की कोशिश की। और आखिर में जब बात नहीं बनी तो सेना ने अपने भेदभावपूर्ण फिटनेस और मेडिकल नियमों को अपनी रक्षा का सहारा बना लिया।

इसे भी पढ़ें: सेना में महिलाओं के स्थायी कमीशन को मंज़ूरी, सुप्रीम कोर्ट की फटकार के बाद बैकफ़ुट पर सरकार!

क्या है सेना में कमीशन देने की प्रक्रिया?

आर्मी में स्‍थाई कमीशन दिए जाने की एक प्रक्रिया है, जो पुरुषों पर भी लागू होती है। सेना में भर्ती के बाद सभी लोग पांच साल तक शॉर्ट सर्विस कमीशन के अंतर्गत ही होते हैं। पांच साल के बाद उनके फिटनेस लेवल की जांच होती है और फिर उसमें पास होने वाले पुरुषों को स्‍थाई कमीशन मिलता है। सेना में भर्ती की औसत उम्र के हिसाब से जिस वक्‍त पुरुष स्‍थाई कमीशन पाने के लिए फिटनेस टेस्‍ट दे रहे होते हैं, उस समय उनकी उम्र 25 साल से लेकर 32 साल के बीच होती है। सेना द्वारा तय किए गए फिटनेस के पैमाने भी उसी उम्र की फिटनेस को देखते हुए बनाए गए हैं।

अब जब सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद सेना को मजबूरन महिलाओं को परमानेंट कमीशन का आदेश मानना पड़ा तो उन्‍होंने उनके फिटनेस लेवल पर एक नया अडंगा लगा दिया। जांच के पैमाने वही थे, जो 25 से 32 वर्ष के पुरुषों के लिए तय किए गए थे। लेकिन यहां वे जानबूझ कर ये भूल गए कि जिन महिलाओं का फिटनेस लेवल वो अब जांच रहे थे, उन्होंने कोर्ट की लंबी लड़ाई लड़ी है, उनकी उम्र अब 25 से 32 साल नहीं थी। वो सब 10 से 20 साल का कार्यकाल पूरा कर चुकी थीं और उनकी उम्र 40 के पार थी।

आर्मी की ‘दोहरा रवैया’ यहीं साफ हो जाता है कि जिस उम्र में इन महिलाओं के साथ के मर्द फिटनेस चेकपोस्‍ट पास करके परमानेंट हो चुके थे, ये महिलाएं कोर्ट कोर्ट के चक्कर काट रही थीं। अब इतने साल बाद उन औरतों से ये उम्मीद करना कि वो 25 साल के मर्दों के लिए तय किए गए फिटनेस के पैमानों पर खरी उतरकर दिखाएं, ये निहायत ही जानबूझकर अपमान करने वाली हरकत थी।

आपको बता दें कि स्‍थाई कमीशन न मिलने पर महिलाओं का अधिकतम कार्यकाल 14 साल का ही होता था। परमानेंट कमीशन न मिलने का एक अर्थ ये भी था कि महिलाओं को कोई पेंशन, ग्रेच्युटी, मेडिकल इंश्‍योरेंस और रिटायरमेंट के बाद की सुविधाएं नहीं मिलती थीं, जो उनके साथ के और एक जैसा काम कर रहे सभी पुरुष सहकर्मियों को मिलती थीं।

‘जिन्हें रिजेक्ट किया गया, उन्हें एक और मौका मिले’

गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने कहा कि सेना में करियर कई इम्तिहानों के बाद बनता है। यह तब और मुश्किल होता है जब समाज महिलाओं पर बच्चों के देखभाल और घरेलू कामों की जिम्मेदारी डालता है। दिल्ली हाई कोर्ट ने इस पर 2010 में पहला फैसला दिया था, 10 साल बीत जाने के बाद मेडिकल फिटनेस और शरीर के आकार के आधार पर स्थायी कमीशन न देना सही नहीं है। महिला अफसर अपनी नौकरी के दसवें साल में जिस मेडिकल स्टैंडर्ड में थी, उसी के हिसाब से उनको आंका जाए। कोर्ट ने कहा कि ‘जिन्हें रिजेक्ट किया गया, उन्हें एक और मौका मिले।’

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