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तमिलनाडु विधानसभा चुनाव: कई गठबंधन बदल चुकी पीएमके के पास स्पष्ट दृष्टिकोण की कमी

पीएमके के पास विधानसभा और लोकसभा में कोई सीट नहीं है। प्रभुत्वशाली वन्नियार जाति का प्रतिनिधित्व करने वाली पीएमके अब सरकारी नौकरियों में 20 फ़ीसदी आरक्षण के लिए जोर लगा रही है।
PMK founder S. Ramadoss (left) and Dr. Anbumani Ramadoss (right) with PM Narendra Modi

चेन्नई: तमिलनाडु के विधानसभा चुनाव जैसे-जैसे नज़दीक आते जा रहे हैं, वैसे-वैसे राज्य का राजनीतिक माहौल गर्म होता जा रहा है। इस बीच कुछ नए चुनावी गठबंधन बन रहे हैं, तो कुछ टूट रहे हैं।

20 साल बाद एक बार फिर पट्टलि मक्कल काटची (पीएमके), सत्ताधारी एआईएडीएमके के साथ विधानसभा चुनावों में गठबंधन करने जा रही है। 2019 के लोकसभा चुनावों में भी पार्टी ने एआईएडीएमके के साथ गठबंधन किया था, लेकिन पीएमके कोई खाता भी नहीं खोल पाई थी। 

चलिए हम पीएमके के बदलते गठबंधनों पर नज़र डालते हैं और जानने की कोशिश करते हैं कि पार्टी आज की चुनावी तस्वीर में कहां खड़ी है।

पीएमके की स्थापना 1989 में एस. रामदास ने प्रभावशाली वन्नियार जाति के चुनावी चेहरे के तौर पर की थी। वन्नियार वर्ग के पास उत्तरी तमिलनाडु के कांचीपुरम, वेल्लोर, धरमपुरी, सेलम और थिरुवनामलाई जिलों में बहुत राजनीतिक प्रभुत्व है। यह पार्टी राजनीतिक फायदे के लिए हिंसा और दलित समुदायों के लिए नफरत के लिए जानी जाती है। 

वन्नियार लोगों को पहले 'पल्ली' नाम से जाना जाता था, इस जाति को शूद्र के तौर पर वर्गीकृत किया जाता था। 1931 तक समुदाय मद्रास जनगणना में अपने नाम से 'पल्ली' हटवाने में कामयाब हो गया। इस जनगणना में समुदाय को 'वन्निया कुल क्षत्रिय' नाम से दर्ज किया गया। वक़्त के साथ-साथ राज्य का विकास हुआ और अपने राजनीतिक प्रभुत्व का इस्तेमाल कर वन्नियार जाति का एक बड़ा वर्ग ग्रामीण इलाकों में श्रम जाति से भूमि स्वामित्व वाली कृषि जाति बनने में कामयाब रहा।

पीएमके का दावा है कि राज्य की कुल आबादी में वन्नियार जाति की हिस्सेदारी 25 फ़ीसदी है। लेकिन इस बारे में कई अलग-अलग दावे हैं। एक सूत्र के मुताबिक़, 1985 के एक अध्ययन से पता चलता है कि वन्नियार जाति की राज्य में 13 फ़ीसदी आबादी है, वहीं एक दूसरा अध्ययन इस हिस्सेदारी को 22 फ़ीसदी बताता है। लेकिन तथ्य यह है कि पीएमके 2019 के लोकसभा चुनावों में सिर्फ़ 5.42 फ़ीसदी वोट हासिल करने में ही कामयाब रही थी। पार्टी तब एक भी सीट नहीं जीत पाई थी।

पार्टी के संस्थापक एस रामदास इस बात से नाराज हैं कि पार्टी बनने के तीन दशक बाद भी इसे सिर्फ़ 5 फ़ीसदी मतदाताओं का ही समर्थन है और पीएमके काफ़ी संघर्ष कर रही है। यह बात तार्किक भी लगती है। उन्होंने हाल में पार्टी के कार्यकर्ताओं से मैदान पर ज़्यादा काम करने और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मॉडल का पालन करने के लिए कहा। वह आने वाले विधानसभा चुनावों में कम से कम 60 सीटें हासिल करना चाहते हैं।

पार्टी का लक्ष्य है कि एक वन्नियार तमिलनाडु का मुख्यमंत्री बने, इसके लिए पार्टी संस्थापक एस रामदास के बेटे डॉ अंबुमणि रामदास के लिए ज़मीन भी तैयार की जा रही है। अंबुमणि रामदास मनमोहन सिंह की सरकार में कैबिनेट मंत्री थे। इस लक्ष्य को हासिल करने, पार्टी का विस्तार करने और समुदाय का राजनीतिक प्रभुत्व बढ़ाने के लिए पीएमके अकसर महत्वकांक्षी ढंग से राजनीतिक ताकत की खोज में राज्य में अपना रवैया बदलती रहती है।

राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि पार्टी लगातार अपने चुनावी साझेदार बदलती रही है और एक व्यापक नज़रिए की कमी के चलते आज पार्टी के पास ना तो राज्य में और न ही केंद्र में कोई सीट है। 2001 के विधानसभा चुनावों में पीएमके ने 20 सीटें जीती थीं। लेकिन फिलहाल उसके पास संसद और तमिलनाडु विधानसभा में एक भी सीट नहीं है।

तेजी से बदलते साझेदार

जल्दी-जल्दी साझेदार बदलने के चलते पीएमके की छवि भरोसा न कर सकने लायक राजनीतिक दल की बन गई है। एक वक़्त था जब पार्टी को किसी गठबंधन में मतदाताओं का अपना खास हिस्सा लाने के लिए पहचान जाता था, जिससे सीटों की संख्या बढ़ती थी और गठबंधन जीत तक पहुंचता था। लेकिन 2009 में चुनावी हार के बाद पार्टी के लिए मुश्किल भरी राह रही है। तबसे अब तक पीएमके अपनी खोई हुई साख वापस नहीं ला पाई है।

2001 के विधानसभा चुनाव में पीएमके, एआईएडीएमके के नेतृत्व वाले गठबंधन में शामिल थी। लेकिन 2006 और 2011 के विधानसभा चुनाव में पार्टी DMK के साथ चली गई। 2011 में यह गठबंधन चुनाव हार गया और पीएमके की सीटें 18 से महज 3 ही रह गईं।

2016 के चुनावों में पीएमके ने स्वतंत्र तरीके से चुनाव लड़ा। पार्टी ने खुद से सिर्फ़ वन्नियार वर्ग की पार्टी होने का ठप्पा हटाने और अपना आधार ज़्यादा व्यापक करने की कोशिश की। ताकि दो बड़ी द्रविड़ पार्टियों- DMK और एआईएडीएमके के अलावा तीसरा विकल्प तैयार किया जा सके। लेकिन इसका कोई अच्छा नतीज़ा नहीं निकला। पार्टी ने बड़ी महत्वाकांक्षा के साथ 234 विधानसभा सीटों पर प्रत्याशी उतारे थे, लेकिन 212 में इसके प्रत्याशियों की जमानत जब़्त हो गई।

पीएमके का विधानसभा चुनावों का इतिहास

आने वाले चुनावों में 20 साल बाद पीएमके ने एक बार फिर एआईएडीएमके के साथ हाथ मिलाया है।

लोकसभा चुनावों में भी पार्टी ने अपने साझेदारों में लगातार फेरबदल किया है। 1999 में पीएमके वाजपेयी के नेतृत्व वाले NDA का हिस्सा थी। 2004 में पार्टी कांग्रेस के नेतृत्व वाले UPA में शामिल हो गई। 2009 में तीसरे मोर्चे में नाकाम रहने के बाद एक बार फिर पार्टी 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में NDA में शामिल हो गई।

जाति आधारित अत्याचार

राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि पीएमके के राजनीतिक प्रभाव में कमी आने का एक अहम कारण पार्टी का पिछले दो दशकों में वैचारिक आधार का अस्थायित्व है। अपने गठन के वक़्त पार्टी वन्नियार समुदाय का चुनावी चेहरा थी। जब पार्टी को महसूस हुआ कि केवल वन्नियार वोट के दम पर वो कभी राज्य में बहुमत हासिल नहीं कर पाएगी, तो पीएमके ने अपना आधार बढ़ाना शुरू कर दिया।

कुछ थोड़े वक़्त के लिए पार्टी ने अखिल-तमिल पहचान की राजनीति की। पीएमके ने दलित वर्ग पर आधारित पार्टी विदुधलाई चिरुथाईगल काची (वीसीके) से भी अच्छे संबंध बरकरार रखे। दोनों ही पार्टियों कई मौकों पर एक दूसरे को चुनावी समर्थन देती रहती थीं।

लेकिन 2009 में लोकसभा चुनाव और 2011 में विधानसभा चुनाव में अपनी हार के बाद पीएमके ने फिर जातिगत हिंसा का सहारा लेना शुरू कर दिया। 2012 में हुई धरमपुरी हिंसा को पीएमके की चुनावी हार का नतीज़ा ही माना जाता है, इस घटना में कथित तौर पर पीएमके ने प्रभुत्वशाली जातियों को दलितों के खिलाफ़ भड़काया। इससे हिंसा हुई और बड़े पैमाने पर संपत्तियों को नुकसान पहुंचाया गया।

इस हिंसा से पीएमके को लाभ भी मिला और अंबुमणि रामदास धरमपुरी लोकसभा क्षेत्र से 2014 में चुनाव जीतने में कामयाब रहे। उस साल पार्टी ने यही एकमात्र सीट जीती थी।

खुद को प्रासंगिक बनाए रखने के क्रम में पीएमके ने 2012 में दलित विरोधी OBC मोर्चा बनाने की कोशिश की। ताकि पार्टी खुद को पिछड़ा वर्ग के मसीहा के तौर पर पेश कर सके। लेकिन OBC मोर्चा एक समग्र राजनीतिक शक्ति केंद्र बनाने में नाकामयाब रहा।

2021 के चुनाव में पीएमके ने एक बार फिर अपना राजनीतिक दृष्टिकोण बदल लिया है और पार्टी वापस अपनी वन्नियार पहचान पर केंद्रित हो गई है।

वन्नियारों के लिए 20 फ़ीसदी आरक्षण

लेकिन इस बार पीएमके ने अपनी राजनीतिक पैंतरेबाजी तेज कर दी है, ताकि एआईएडीएमके-BJP गठबंधन में ज़्यादा मोलभाव की शक्ति पार्टी को हासिल हो सके। पार्टी ने गठबंधन में बातचीत से पहले, एआईएडीएमके की सरकार के खिलाफ़ वन्नियार समुदाय को अति पिछड़े वर्ग (MBC) आरक्षण के भीतर 20 फ़ीसदी आरक्षण की मांग के साथ धरना प्रदर्शन शुरू कर दिए हैं। पार्टी ने इस बदलाव को यह कहते हुए सही ठहराया है कि पीएमके की मातृसंस्था वन्नियार संगम ने MBC आरक्षण का गठन करने में अहम भूमिका निभाई थी, पार्टी का कहना है कि MBC में शामिल दूसरी जातियों को भी प्रतिनिधित्व दिया जाना चाहिए। पीएमके का मानना है कि MBC आरक्षण से वन्नियार समुदाय को जो लाभ मिलना था, वह नहीं मिला है। क्योंकि इस आरक्षण वर्ग में 108 जातियां शामिल हैं।

हालांकि एआईएडीएमके सरकार का कहना है कि पीएमके की वन्नियार आरक्षण की मांग को लागू करने के पहले वो कोर्ट के आदेश का इंतज़ार कर रही है। कोर्ट को जरूरी आंकड़े उपलब्ध करवाने के लिए मुख्यमंत्री ई पलनीसामी ने 1 दिसंबर 2020 को राज्य में जातिगत सर्वे करवाने के लिए एक आयोग के गठन का फ़ैसला किया है। 

पीएमके विपक्षी DMK गठबंधन की तरफ भी कुछ इशारे कर रही है। लेकिन यहां उसकी सबसे बड़ी बाधा विदुथलाई सिरुथाईगल काची (वीसीके) है। वीसीके के नेता और सांसद थोल थिरुमालवन साफ़ कह चुके हैं कि वे ऐसे किसी भी गठबंधन का हिस्सा नहीं रहेंगे, जिसमें बीजेपी या पीएमके शामिल होगी।

इस लेख को मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

TN Assembly Polls: Amid Frequent Shifting of Alliances, PMK Strays Without Clear Vision

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