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तमिलनाडु-शैली वाला गैर-अभिजातीय सामाजिक समूहों का गठबंधन, राजनीति के लिए इतना महत्वपूर्ण क्यों है? 

देश में तमिलनाडु के पास सबसे अधिक सामाजिक रुप से विविध विधायी प्रतिनिधित्व है, और साथ ही देश में सभी जातीय समूहों का समानुपातिक प्रतिनिधित्व मौजूद है।
MK Stalin
चित्र साभार: विकिमीडिया कॉमन्स 

अपनी नवीनतम पुस्तक ‘मोदी का भारत: हिन्दू राष्ट्रवाद और नृजातीय लोकतंत्र के उभार’ के बारे में बात करते हुए विख्यात राजनीतिक विज्ञानी क्रिस्टोफ जाफरेलाट पाते हैं कि हिन्दू राष्ट्रवादियों द्वारा की जा रही सदियों पुरानी राजनीतिक लामबंदी ने लगता है भारत में विविधता, सामाजिक, राजनीतिक या यहाँ तक कि आध्यात्मिकता तक को भी अवांछनीय बना डाला है। इसी का परिणाम है कि आज हम एक संहिताबद्ध हिन्दू पहचान को पाते हैं जो निषेधात्मक होने के साथ-साथ आंतरिक तौर पर भेदभावपूर्ण स्वरुप लिए हुए है। इस नए हिन्दू पहचान के राजनीतिक तौर पर प्रसार को लोकलुभावनवाद, राष्ट्रवाद और अधिनायकवाद के सम्मिश्रण से तैयार किया गया है, और इसने संख्यात्मक तौर पर बहुसंख्यक वर्ग को बड़े स्तर पर नुकसान पहुंचाया है जो सामाजिक, शैक्षिक और परिणामस्वरूप आर्थिक रूप से पिछड़ी अवस्था में जीवन-यापन कर रहे हैं।

इस प्रति-क्रांति, जैसा कि जीन द्रेज़ इसे कहेंगे, की सफलता मुख्य रूप से दो कारकों, बाहरी और आंतरिक कारकों की वजह से रही है। बाहरी कारणों में गैर-अभिजात्य जातीय समूहों के बीच में सम-स्तरीय एकजुटता को स्थापित कर पाने की असमर्थता और अभिजात्य जातियों के समानांतर विशिष्ट सामाजिक-सांस्कृतिक प्रदर्शनों की सूची, प्रतीकों और मुहावरों की फेहरिस्त का अभाव इसकी असफलता की मुख्य वजह रहा है। इसके अलावा, सबसे दबे-कुचले वर्गों के उदय, जाफरेलॉट के शब्दों में ‘मौन क्रांति’ के इर्द-गिर्द शत्रुतापूर्ण विमर्श ने लोगों के मस्तिष्क में दबे-कुचलों की मान्यता, पुनर्वितरण और प्रतिनिधित्व के लिए संघर्ष को अमान्य बना डाला है।

आंतरिक कारकों में समूचे निम्न जाति समूहों के बीच में असमान वर्गीय एवं प्रतिनिधित्वकारी निष्कर्ष शामिल हैं, जिसने पूर्व में दबे-कुचलों के आंदोलनों में अग्रणी भूमिका निभाई थी। इसने गैर-प्रभुत्वशाली समुदायों को अलगाव की स्थिति में डाल दिया, जो धीरे-धीरे हिंदुत्व की लपेट में आकर्षित होते चले गए और तत्पश्चात जिसने जाति-विरोधी आंदोलन के लाभार्थियों के प्रति अपनी शत्रुता को बढ़ावा देना शुरू कर दिया था। इसके परिणामस्वरूप, पदानुक्रमित जातीय क्रम के सभी वर्गों के बीच में एक सैंडविच गठबंधन स्थापित होने लगा, जो आकांक्षी मध्यवर्गीय तबके को समाज के “शुद्ध” उच्च एवं छूट गए निचले तबके के वर्गों के गठबंधन के खिलाफ भिड़ाने का काम करता है।

तमिल लचीलापन और इसके भीतर की झंकार

चुनावी सरगर्मी, राजनीतिक प्रासंगिकता, सामाजिक-सांस्कृतिक सामंजस्य और एक व्यापक गठबंधन को एक साथ लाने के सेवकीय अवसर द्वारा इसे प्रति-क्रांति के स्थायी समाधान के तौर पर प्रस्तावित किया जाता है। वास्तव में देखें तो तमिलनाडु में यह ऐतिहासिक लामबंदी एक अनुकरणीय केस स्टडी प्रस्तुत करती है। यहाँ पर राज्य हिंदुत्व लामबंदी के खिलाफ खड़ा नजर आता है, और केरल और आंध्रप्रदेश के साथ खुद को बहुसंख्यकवाद के खिलाफ अंतिम स्थायी गढ़ों के तौर पर पेश करता है।

देश में तमिलनाडु के पास सबसे अधिक सामाजिक रुप से विविध विधायी प्रतिनिधित्व है, और साथ ही देश में सभी जातीय समूहों का समानुपातिक प्रतिनिधित्व मौजूद है। कुलमिलाकर देखें तो द्रमुक के विधायकों में 37 विभिन्न जातियों एवं समूहों से संबंधित हैं, जबकि एआईडीएमके में 18 हैं। यदि तीन प्रमुख ओबीसी समूहों (वन्नियार, गौंडर और थेवर) को मिला दें तो इसके 133 विधायकों में से 48 जातियों का समूह बनता है। कांग्रेस के विधायकों का प्रोफाइल भी काफी विविधता लिए हुए है। इसके 18 विधायकों में 14 जातियों और समुदायों का प्रतिनिधित्व होता है। कम्युनिस्ट पार्टियों और वीसीके के मामले में भी यही स्थिति है। इन सभी ने विविध समूहों के उम्मीदवारों को चुनावी मैदान में उतारा था और वे किसी एकल जाति समूह का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं। तमिलनाडु ने द्रविड़-तमिल पहचान के जरिये सामाजिक न्याय, दबे-कुचलों की आर्थिक गतिशीलता और समावेशी सामाजिक-सांस्कृतिक पेशकश के प्रदर्शनों की फेहरिस्त को सबसे आगे रखने के क्रम को बरकरार रखा है।

हालाँकि, दो स्रोत ऐसे भी हैं जो तमिलनाडु में इस प्रकार की लामबंदी का मुकाबला करने की कोशिशों में जुटे हुए हैं। एक है इस विचार को कायम रखना कि समाज की तलछट पर मौजूद, जैसे कि, अनुसूचित जातियों और जनजातियों के बीच की दुश्मनी, यहाँ तक कि नफरत तक मौजूद है। इस धारणा ने द्रविड़ लामबंदी की वैधता को बाधित किया है और इसके स्थान पर एक स्वदेशी भाव और निषेधात्मक तमिल राष्ट्रवादी सामाजिक-राजनीति की भावना को कायम रखा है। जहाँ तक पूर्व-दैशीयता का प्रश्न है तो इसे मुख्यरूप से राज्य के भीतर अभिजात्य वर्ग द्वारा संचालित किया जाता है, जबकि बाद वाले को निचली जातियों के लोगों द्वारा अभिजात्य वर्ग को फायदा पहुंचाने के लिए स्वंय की कीमत पर चलाया जा रहा है। असल में, शुद्धता और वर्णात्मक श्रेष्ठता (जातीय गौरव) ने तमिल राष्ट्रवादी प्रदर्शनों की सूची में राज्य में हिन्दू राष्ट्रवादी प्रस्ताव के लिए मुहावरा प्रदान कर दिया है।

विख्यात दार्शनिक नैंसी फ्रेजर ने राजनीतिक दावेदारी के व्याकरण में बदलाव की पहचान की है, जहाँ मान्यता प्राप्त करने के लिए संघर्ष राजनीतिक संघर्ष में प्रतिमान बनते जा रहे हैं, जबकि समतामूलक पुनर्वितरण के लिए संघर्ष कम होते जा रहे हैं। यहाँ पर जो चीज महत्वपूर्ण है वह समूह की विशिष्ट पहचान को मान्यता दिए जाने की मांग नहीं है, बल्कि सामाजिक पारस्परिक विचार-विमर्श में अन्य लोगों के साथ साथियों के बतौर भाग लेने में सक्षम, सामाजिक अंतःक्रियाओं में पूर्ण साझीदार के तौर पर उनकी स्थिति को मान्यता दिए जाने की उनकी मांग मुखरता लिए हुए है। यह आकांक्षा न्याय के लिए बुनियादी बात है और इसे सिर्फ पुनर्वितरण की राजनीति के जरिये संतुष्ट नहीं किया जा सकता है।

जहाँ एक तरफ राज्य में अनुसूचित जाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के बीच का वैमनस्य वास्तविक है, इसकी कहानी कई परतों में है और इसमें अंतरनिर्भरता के कई बिंदु शामिल हैं। इसमें मुख्य रूप से 1990 के दशक के दलित दावे और दलितों की शिकायतों को मुख्यधारा में लाने की दिशा में नई उर्जा को हवा देने का काम द्रविड़ नेताओं के द्वारा किया गया था, जैसा कि विदुथालाई चिरुथिगल काची (लिबरेशन पैंथर पार्टी) के प्रमुख थोल थिरुमवालवन का कहना था।

इसके अलावा, निचली जातियों के द्वारा दलितों के खिलाफ हिंसा किसी प्रभुत्व के कारण नहीं बल्कि असुरक्षा की भावना के चलते उत्पन्न हुई थी, और इसकी जड़ें दलितों की आर्थिक गतिशीलता के उत्थान में निहित हैं। भाजपा की रणनीति इन असुरक्षाओं का भरपूर लाभ उठाने और उन्हें वृहत्तर हिंदुत्व की राजनीति या हिन्दूकृत पहचान के भीतर समाहित कर लेने की रही है। संक्षेप में कहें तो ‘पीछे’ रह जाने के भय की राजनीति में।

देशभर में कई जगहों पर भाजपा ने चुनावी फायदे के लिए अंतरजातीय वैमनस्यता को प्रचारित करने का काम किया है। इसने तमिलनाडु में भी इस रणनीति को आजमाया है। उदाहरण के लिए, इसने वन्नियार संगम का समर्थन करते हुए देवेन्द्र कुल्ला वेल्लार (अतीत में जिन्हें अनुसूचित जातियों के तौर पर अधिसूचित किया गया था) को तसल्ली देने का काम किया, जो राज्य के उत्तरी हिस्से में अनुसूचित जातियों के खिलाफ अपनी निरंतर वैमनस्यता के लिए सुर्ख़ियों में रहा है। यही वजह है कि गैर-अभिजात्य वर्ग के सामाजिक समूहों के लिए परतदार और परिपक्व गठबंधनों में शामिल होना इतना महत्वपूर्ण क्यों है – क्योंकि दक्षिणपंथी उग्रवाद का हमला इस प्रकार के समूहों के कई गठबंधनों की पीठ सवारी कर रहा होता है। अक्सर, दक्षिणपंथ ऐसे गठबंधनों को विशुद्ध रूप से सत्ता को हासिल करने के लिए बनाता है।

सीमन का तमिल राष्ट्रवाद: समस्तरीय एकजुटता के लिए अभिशाप 

खुद को लिबरेशन टाइगर्स ऑफ़ तमिल ईलम के प्रमुख, दिवंगत प्रभाकरन का अनुयायी घोषित करने वाले सीमन की प्रसिद्धि की राह 2000 के दशक में द्रविड़ सामूहिकों द्वारा आयोजित बैठकों में उनके दिए गए सार्वजनिक भाषणों के जरिये बनी थी। 2009 के युद्ध काल के बाद, सीमन और उनके अनुयायियों ने द्रविड़ लामबंदी को अवैध बनाने के लिए कई गतिविधियों की श्रृंखला को अपनाने का सहारा लिया। उदाहरण के लिए, एआईडीएमके के पूर्व मंत्री और वर्तमान में भाजपा के विधायक नयनार नागेन्द्रन ने तमिलनाडु में पेरियार ईवी रामासामी के जन्मदिन को सामजिक न्याय दिवस के रूप में मनाये जाने के फैसले का स्वागत किया था, लेकिन सीमन ने पेरियार के खिलाफ एक प्रेस कांफ्रेंस आयोजित कर तीखा हमला बोल दिया।

जातीय समूहों के एक सैंडविच गठबंधन को जिसे इस द्रविड़ लामबंदी से लाभ पहुंचा है, और जो अब इसे अखिल-भारतीय आकांक्षाओं को आगे बढ़ाने की कोशिश में हैं, के साथ-साथ उन जातीय समूहों जिन्हें इन लामबंदियों से पर्याप्त लाभ नहीं मिला था, के द्वारा तमिलनाडु में हिन्दू राष्ट्रवाद और तमिल राष्ट्रवाद का समर्थन किया जा रहा है। इसके बावजूद तथ्य यह है कि भाजपा और एनटीके को अभी भी 15% बचे हुए वोट प्रतिशत के भीतर ही अपने कार्य-व्यापार को जारी रखना पड़ रहा है जबकि दोनों प्रमुख द्रविड़ गठबंधनों के पास अभी भी 85% मत मौजूद हैं। यह हमें द्रविड़ गठबंधनों के द्वारा राज्य के लोगों को दी जाने वाली विविध पेशकशों के बारे में सूचित करता है।

तमिल सिनेमा से संकेत 

तमिल फिल्में राज्य के जटिल चरित्रों और विविधता को प्रतिबिंबित करते हैं, और एक व्यापक गठबंधन को बनाने के लिए समझौतों को अपनाते हैं। उदाहरण के लिए, निर्देशक पा रंजित की हालिया-रिलीज सरपट्टा परंब्राई में तमिल समाज के भीतर गतिशीलता को हासिल करने से जुड़ी सामाजिक परतों और जटिलताओं को दर्शाया गया है। यह फिल्म खुद के लोगों से विश्वासघात का मुकाबला करने के लिए व्यापक नेटवर्क की तलाश स्थापित करने के बारे में है।

रंगन वाथियार, जिन्होंने नायक के मुक्केबाजी प्रशिक्षक की भूमिका को अभिनीत किया है, वे कोई परोपकारी बाहरी और सम्मानीय व्यक्ति नहीं बल्कि एक उड़नपीरप्पू (भाई) या कामरेड हैं। 1970 के दशक की प्रष्ठभूमि में, निर्देशक ने विभिन्न प्रकार के जटिल पात्रों और उनके द्वारा निर्मित किये गए गठबंधनों के माध्यम से उत्तरी मद्रास क्षेत्र को सबाल्टर्न समुदायों को पिघलते बर्तन के तौर पर चित्रित करने का साहसिक प्रयास किया है। उदाहरण के लिए, रंजीत ने शंकर और एआर मुरुगादोस द्वारा क्षेत्रों या समुदायों के अभी तक के व्यापक कूंची से सजाने से अलग हटकर काम किया है, हालाँकि इनमें से किसी की भी अभिजात्य पृष्ठभूमि नहीं है।

1990 के दशक में, तमिलनाडु का सिनेमा एक स्वदेशी चरण के दौर से गुजरा था जिसमें जातिगत पहचानों और चरित्रों का खुले तौर पर जश्न मनाने और उनकी सराहना की जाती थी। उस जमाने की फिल्मों में महिलाओं के चरित्र को बेहद नाजुक दिखाया जाता था, और सतीत्व और सम्मान तब आम विषयवस्तु हुआ करते थे। अधिकांश पात्रों को उनकी संस्थाओं से पदच्युत कर दिया गया था। 2000 के मध्य के दशक में इस प्रवृत्ति में तब परिवर्तन हुआ जब फिल्मों में जाति-विरोधी सक्रियता को प्रमुखता से दिखाया जाने लगा, जिसमें सबाल्टर्न और सर्वहारा वर्ग की शिकायतों को प्रमुखता से दिखाया जाने लगा। इन फिल्मों ने दलितों सहित सबाल्टर्न की शिकायतों को आगे कर मुख्यधारा में लाने का काम किया, जबकि सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों ने इसके साथ-साथ इस मुहिम को आगे बढ़ाया।

आज के दिन, तमिलनाडु में जाति-वर्ग के विभेद ने पिछड़ी जातियों के निचले तबके को अस्थिर कर दिया है, जिसका एक हिस्सा पुराने पदानुक्रमित यथास्थिति को बनाये रखने की कोशिश में पीछे जा रहा है। कुछ इसी प्रकार की चिंता फिल्म जगत में भी घुस चुकी है। इसे लेकर निर्देशक मोहन जी की हालिया रिलीज़ हुई विवादस्पद फिल्म, रुद्रा थंडवम एक मूल्यवान केस स्टडी है। यह फिल्म उन लोगों की अनुसूचित जाति की स्थिति की पड़ताल का दावा करती है जिन्होंने अपना धर्म और इसके इर्दगिर्द की राजनीति को बदलकर रख दिया है। लेकिन असल में, यह घनिष्ठ समुदायों के बीच में शत्रुता को पैदा करता है और राज्य के भीतर कष्टसाध्य तरीके से स्थापित की गई समस्तरीय एकजुटता को तोड़ने का काम करता है।

निर्देशक का हिंदुत्व की राजनीति के प्रति झुकाव दर्शकों को सामाजिक-आर्थिक वास्तविकताओं और समाधान की तलाश से परे ले जाना चाहती है। इसलिए, पुनर्वितरण, कल्याण और सशक्तिकरण में निहित राजनीतिक शब्दावली का अनुसरण करने के बजाय यह दर्शकों को तात्कालिक पहचान की तर्ज पर सोचने और उनके बैचेन पूर्वाग्रहों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने के लिए प्रेरित करने में मदद करती है। इससे भी बदतर यह है कि यह आकांक्षी समुदायों को शत्रु या ‘अन्य’ के रूप में चुनौती देने के लिए पुनर्गठित करता है।

निष्कर्ष के तौर पर कहें तो तमिलनाडु विधानसभा में सभी जातियों के आनुपातिक प्रतिनिधित्व ने राज्य में जटिल एवं बहुजातीय सामाजिक अंतःक्रियाओं को रेखांकित किया है। राज्य की फिल्में भी बहुधा इसकी राजनीति और आकांक्षाओं को प्रतिबंबित करती हैं। इससे यह सीख ली जा सकती है कि पहचान की राजनीति को सिर्फ चुनावी लाभ के लिए ही किसी औजार के तौर पर नहीं भुनाया जाना चाहिए। ऐसा करना समूचे देश में जातीय, वर्गीय एवं धार्मिक विचार-विमर्श की विवधता के लिए अत्यंत विरोधात्मक बात होगी।

विग्नेश कार्तिक केआर किंग्स इंडिया इंस्टीट्यूट, किंग्स कॉलेज लंदन में डॉक्टरेट शोधार्थी हैं। विशाल वसंतकुमार हार्वर्ड ग्रेजुएट स्कूल ऑफ़ एजुकेशन से स्नातक हैं और एक स्वतंत्र शोधकर्ता हैं जो जाति, राजनीति और शिक्षा के मिलान पर काम कर रहे हैं। व्यक्त किये गये विचार व्यक्तिगत हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

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