कृषि क़ानूनों को निरस्त करने के बाद भाजपा-आरएसएस क्या सीख ले सकते हैं
यह एक ऐसी लामबंदी थी, जिसका मक़सद पूरी तरह स्पष्ट था। जब कभी प्रदर्शनकारी सड़कों पर उतरते हैं, तो वे अक्सर यह कल्पना कर लेते हैं कि उनकी मांगें तो कुछ ही दिनों में पूरी हो जायेंगी, लेकिन एक साल पहले जब किसान सिंघू बॉर्डर पर इकट्ठे हुए थे, तो उन्होंने ऐलान किया था कि वे यहां छह महीने रहने के लिए तैयार हैं। वे जानते थे कि इन क़ानूनों को निरस्त करने के लिए क्या करना होगा। इस तरह की अनोखी स्पष्टता आंशिक रूप से वाम-उन्मुख किसान संगठनों की भूमिका के कारण थी, लेकिन अंत तक लड़ने का संकल्प उन अमीर किसानों की मौजूदगी से आया था, जिनके पास संसाधन और समझ दोनों थे और जो शासक अभिजात वर्ग के आधिपत्य वाले तबके का हिस्सा बने रहे हैं।
स्वतंत्र भारत के बाद के इन अमीर किसानों से ही उभरते औद्योगिक पूंजीपति वर्ग और शहरी-पेशेवर मध्यम वर्ग के साथ-साथ शासक अभिजात वर्ग बने हैं। जहां कृषि क्षेत्र को बहुत ही व्यवस्थित रूप से सरकारी निवेश से दरकिनार किया जाता रहा है, वहीं सरकार की नीति एक 'अंतर्राष्ट्रीय पूंजीवादी वर्ग' और एक उभरते वैश्विक मध्यम वर्ग के साथ गठबंधन बनाते हुए कॉर्पोरेट पूंजी की ओर झुकी हुई रही है। खपत, बड़े-बड़े विकास के काम और आक्रामक शहरीकरण ने ग्रामीण भारत को नज़रदअंदाज़ करने के लिए प्रेरित किया, हालांकि ज़्यादातर आबादी अपनी आजीविका के लिए खेती-बाड़ी पर ही निर्भर रही है। यूपीए सरकार में वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने कभी ऐलान किया था कि 2050 तक भारत की 80% आबादी शहरों में निवास करेगी। इस संवृद्धि और विकास ने शहरी क्षेत्रों में अनौपचारिक क्षेत्र का विस्तार किया है और एक तीव्र कृषि संकट को बढ़ावा दिया है। ये कृषि क़ानून इसलिए तबाही का कारण बनते, क्योंकि ये क़ानून छोटे किसानों को स्थायी रूप से भूमिहीन और वंचित अमीर किसानों को शासक तबके में महत्वहीन बना देते।
एक तरफ़ जहां किसान आंदोलन समग्र रूप से कृषि क्षेत्र के लिए एक ऐसा संघर्ष है, जिसमें छोटे किसान और भूमिहीन और शासक अभिजात वर्ग के रूप में धनी किसान शामिल हैं,वहीं दूसरी ओर इसमें कई इलाक़े और कई धार्मिक पहचान वाले किसान भी शामिल हैं।इनमें हिंदू, सिख और मुसलमान,सभी धर्म से आये किसान शामिल रहे हैं। विरोध की यही दोहरी विशेषता इस आंदोलन के केंद्र में है।
इस समय इसी बात को सुनिश्चित करने की ज़रूरत है कि धनी किसान अपने मौजूदा प्रतिरोध के तौर-तरीक़े और सामाजिक रूप से उस परिवर्तनकारी भूमिका से पीछे नहीं हटे, जो उन्होंने दलितों को समायोजित करके, मुसलमानों से माफ़ी मांगकर और महिलाओं को अहमियत देकर प्रदर्शित किया है। उन्हें ख़ुद का उस 'पुराने अभिजात वर्ग' के रूप में सोचने का विरोध करना होगा और उस आधिपत्य समूह में शामिल होने से बचना होगा, जहां से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण बदलाव की इस कोशिश से कहीं ज़्यादा आकर्षक लगता है। विशेष रूप से उत्तर प्रदेश में इस ध्रुवीकरण की एक धारा भीतर ही भीतर जारी है। जहां उनकी मौजूदा भूमिका एक साझा लोकनीति को दर्शाती है, वहीं उनके पहले वाला विचार एक हिंदू आधिपत्य वाला था।
हालांकि, भारत में लोकतंत्र को और ज़्यादा मज़बूती देने के लिए किसानों की इस परिवर्तनकारी भूमिका के साथ-साथ हमें सामाजिक रूप से परिपक्व मध्यम वर्ग की भी ज़रूरत है। सट्टे की पूंजी से आगे बढ़ते नव-उदारवादी सुधारों ने पेशेवर वर्गों के चरित्र को बदलकर रख दिया है। अपने पेशे और कौशल पर गर्व करने से होते हुए वे उपभोग-केंद्रित होने और सामाजिक रूप से बचकाने नज़रिया अपनाने की तरफ़ चलते गये। भारतीय मध्यम वर्गों को अपने बचकानी आत्ममुग्घता से बाहर निकलने की ज़रूरत है। उन्हें सामूहिकता की एक नयी सोच को अपनाने की ज़रूरत है, और उम्मीद है कि किसान संघर्ष उन्हें इस लिहाज़ से कहीं ज़्यादा संतुलित और नपा-तुला बनाने में सहायक होगा।
नव-उदारवादी सुधारों ने उस मध्यम वर्ग को सामाजिक रूप से विस्थापित कर दिया है, जो अब ख़ाली समय में मीडिया की बनायी छवियों के ज़रिये संचालित हो रहे हैं। इसलिए, वे आदर्श रूप से उन धारणाओं का शिकार होने के लिए अभिशप्त रहे हैं, जो अति-कल्पनावादी हैं और जो अति-विकास का वादा करती हैं। लेकिन, समाज के कई दूसरे वर्ग तात्कालिकता में जीते हैं। वे उस बहुचर्चित सांस्कृतिक बहस की गिरफ़्त में होते हैं,जो उन्हें अपनेपन की भावना देती है, लेकिन वे रोज़मर्रा की ज़िंदगी में जो कुछ भी अनुभव कर रहे हैं,मगर जिसके उलट जो कुछ कहा जा रहा है, इसकी जांच और मूल्यांकन करने की क्षमता पर पकड़ बनाये भी रखते हैं। इसलिए, जहां एक तरफ़ सांस्कृतिक रूप से किसी ख़ास समुदाय के विरुद्ध कही जाने वाली बातें उन्हें मनोवैज्ञानिक राहत पाने में मदद करती है, वहीं उनके पास इसे बार-बार जांचने-परखने और मूल्यांकन करने की क्षमता भी होती है।
आख़िरकार, भाजपा-आरएसएस गठबंधन के लिए सबसे बड़ा सबक़ तो यही होगा कि वे दीवार पर लिखी इबारत पढ़ने को तैयार हो जायें। हिंदू पहचान कोई तुरूप का पत्ता तो है नहीं,जो जादू की छड़ी की तरह काम कर सके,जबकि लोगों को वह हिंदू होने का एहसास है, जो उन्हें अंधा या उन्मादी नहीं बनाता। यह सोचना कि धार्मिक मान्यता के चलते हर बात पर सहमति मिल जायेगी,यह पागलपन भरी कल्पना बेपर्द हो चुकी है। धर्म न सिर्फ़ आस्था का मामला होता है, बल्कि एक ऐसी मूल्यांकन संस्था भी है, जहां अच्छे और बुरे, पवित्र और अपवित्र की भावना होती है। बहुसंख्यकवादी परिदृश्य 'झूठी विशिष्टता' की भावना देता है; जैसे कि यह अपने रास्ते में पड़ने वाले सब कुछ को ध्वस्त कर सकता है।इस सीख की गांठ बांध लेनी चाहिए कि लोग बदतरीन परिस्थितियों में भी समझदार बने रह रहते हैं। लोगों ने भाजपा को उसी समझदारी के साथ वोट दिया था, जो व्यावहारिक होने के साथ-साथ प्रामाणिक अर्थों में मूल्यांकन करने वाली भी है। बीजेपी-आरएसएस की समस्या यह है कि वे पहले वाले हिस्से को तो मान लेते हैं,मगर बाद वाले हिस्से की अनदेखी कर देते हैं।
आत्मविश्वास से जूझ रहे इस समाज में शेख़ी और अहंकार विरल ही हैं। कई लोगों ने प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की नेतृत्व शैली को कमियों को पूरा करने वाली युक्ति के रूप में सराहा था, लेकिन जब उनकी यही शैली उनके ख़िलाफ़ चली गयी, तब इसकी स्पष्ट सीमायें भी नज़र आने लगी हैं। मोदी और उनके आस-पास के लोग ख़ास तौर पर अपने दूसरे कार्यकाल में साफ़ तौर पर मतदाताओं के उस बड़े वर्ग को लेकर सोच रहे हैं और बोल रहे हैं, जो अक्सर उनसे उन बातों और कार्यों से सहमत हो जाते हैं,जो वे कहते हैं और करते हैं। लेकिन, उस मूल मतदाताओं से परे भी उनके ही भीतर अपार विविधता है, और कारगर फ़ीडबैक नहीं मिलने के चलते मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के लिए इस स्थिति का आकलन कर पाना कठिन हो गया है। भ्रम की यह स्थिति दिल्ली चुनाव, फिर पश्चिम बंगाल चुनाव के दौरान दिख रही थी और अब यही स्थिति किसान आंदोलन के दौरान भी दिखायी दे रही है।
इससे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को भी सीख लेने की ज़रूरत है, जो बल प्रयोग और डराने-धमकाने के मामले में मोदी-शाह से एक क़दम आगे जाना चाहते हैं। इसे अपराध के सिलसिले में तो मंज़ूरी मिल सकती है,लेकिन छात्रों और किसानों के साथ होने वाले बर्ताव के सिलसिले में कत्तई नहीं मंज़ूर किया जा सकता। हिंदू-मुसलमान का मामला कोई ऐसा बटन नहीं है, जिसे संकट आने पर हर बार दबाया जा सके। समाज का निर्माण शक्ति, व्यावहारिकता और स्वार्थ से उतना ही होता है, जितना कि एकजुटता की तीव्र भावनाओं से होता है। भाजपा-आरएसएस के हाथ में आधिपत्य की लगाम इसलिए थमा दी गयी थी,क्योंकि वे सार्वभौमिकता की वह भाषा बोल रहे थे, जिसे लोगों ने हाथों हाथ लिया था, जबकि भाजपा ख़ुद इसे एक चतुर रणनीति मान रही थी। ज़ाहिर है,जब अपनेपन और एकजुटता की भावना दोनों के साथ धोखा मिला हो, तो लोगों को दूसरी तरफ़ रुख़ कर लेना स्वाभाविक ही है। उम्मीद है कि मिली हुई सीख से सत्ता में बैठे लोग ख़ुद की अति-काल्पनिक और अतिरंजित छवि को सुव्यवस्थित कर पायें।
लेखक दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के राजनीतिक अध्ययन केंद्र में एसोसिएट प्रोफ़ेसर हैं। इनके व्यक्त विचार निजी हैं।
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें
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