तेलंगाना एनकाउंटर की गुत्थी तो सुलझ गई लेकिन अब दोषियों पर कार्रवाई कब होगी?
हैदराबाद के बहुचर्चित 'दिशा गैंगरेप और हत्या' मामले में चार अभियुक्तों के पुलिस एनकाउंटर को सुप्रीम कोर्ट के गठित आयोग ने फ़र्ज़ी क़रार दिया है। आयोग की रिपोर्ट ने हैदराबाद पुलिस पर कई गंभीर सवाल भी खड़े करने के साथ ही इस कथित एनकाउंटर में शामिल सभी 10 पुलिसकर्मियों के खिलाफ हत्या की धारा में मुकदमा चलाने की सिफारिश भी की है। आयोग के मुताबिक एनकाउंटर के आरोप गलत हैं और आरोपियों के ऊपर जानबूझकर गोलियां चलाई गईं ताकि उनकी मौत हो जाए।
बता दें कि इस मामले में शुरुआत से ही पुलिस की कार्रवाई पर सवाल उठ रहे थे। हालांकि बहुत लोग एनकाउंटर के लिए पुलिस की तारीफ़ भी कर रहे थे। खुद मृतक पीड़िता के परिवार वालों ने भी पहले आरोप लगाया था कि पुलिस ने एफआईआर दर्ज करने में देरी की थी। जिसके बाद इस प्रकरण में तीन पुलिसकर्मियों को बर्खास्त भी किया गया था।
इस मामले में सबसे पहले सवाल 30 नवंबर 2019 को अंग्रेजी अखबार डेक्कन क्रॉनिकल में छपी एक रिपोर्ट ने उठाए थे। इसमें दावा किया गया था कि घटना के 24 घंटे बाद पुलिस ने दूसरे विकल्पों के बारे में सोचना शुरू कर दिया था। अख़बार की रिपोर्ट में कहा गया कि इस केस में पुलिस के अलावा राज्य में कानून व्यवस्था को लेकर मुख्यमंत्री केसीआर पर भी सवाल उठे हैं। अखबार के मुताबिक आरोपियों की गिरफ्तारी से पहले ही पुलिस कमिश्नर सीपी सज्जनार ने आरोपियों को सबक सिखाने को लेकर चर्चा की थी।
अखबार ने सूत्रों के हवाले से दावा किया था कि आम लोगों का गुस्सा शांत करने के लिए पुलिस वाले 'एनकाउंटर' जैसी चीजों पर भी विचार कर रहे हैं। दरअसल 11 साल पहले 2008 में आन्ध्र प्रदेश के वालंगर में पुलिस ने एसिड अटैक के एक केस में आरोपियों को एनकाउंटर में मार गिराया था और पुलिस यहां भी घटना के सीन को रि-क्रिएट करना चाहती थी। उस वक्त यहां के एसपी सीपी सज्जनार ही थे।”
बंद लिफाफे में रिपोर्ट
इस कथित एनकाउंटर की स्वतंत्र जांच की मांग करते हुए दो अधिवक्ताओं जीएस मणि और प्रदीप कुमार यादव ने अदालत में याचिका दायर की थी। इसी याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन चीफ़ जस्टिस एसए बोबडे की अदालत ने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज वीएस सिरपुरकार की अध्यक्षता में जांच आयोग का गठन किया था। इस कमीशन में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस वीएस सिरपुरकर के साथ बॉम्बे हाई कोर्ट की रिटायर्ड जज रेखा बालदोता और सीबीआई के पूर्व निदेशक डीआर कार्तिकेयन शामिल थे।
इस तीन सदस्यीय कमीशन ने इस साल 28 जनवरी को अपनी रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट को सौंपी थी। रिपोर्ट को सौंपने से पहले कमीशन के सदस्यों ने अलग-अलग घटनास्थलों का दौरा किया था। इन जगहों से सदस्यों ने अलग-अलग डॉक्यूमेंट्री एविडेंस जुटाए। साथ ही साथ इनवेस्टिगेशन रिकॉर्ड्स, फॉरेंसिंक और पोस्टमार्टम रिपोर्ट की भी जांच की। इनके आधार पर बनाई गई रिपोर्ट को कमीशन ने बंद लिफाफे में सुप्रीम कोर्ट को सौंपी थी।
सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार 23 फरवरी को इस रिपोर्ट को खोला था। तब तेलंगाना की तरफ़ से अदालत के समक्ष पेश होते हुए वरिष्ठ अधिवक्ता श्याम दीवान ने रिपोर्ट को सीलबंद ही रखने की अपील की थी लेकिन अदालत सहमत नहीं हुई। चीफ़ जस्टिस ने इससे इनकार करते हुए कहा, "यहां कुछ भी गोपनीय नहीं है। कोई दोषी पाया गया है और अब राज्य को ये मामला देखना है।"
वहीं दीवान ने तर्क देते हुए कहा था, "कृपया रिपोर्ट को फिर से सील कर दें। यदि ये सीलबंद नहीं रही तो इसका असर न्याय के प्रशासन पर हो सकता है।" इस पर चीफ़ जस्टिस ने कहा, "किसी जांच का मतलब ही क्या है यदि उसे दूसरे पक्ष को ना दिया जाए।"
क्या है आयोग की रिपोर्ट में?
बीबीसी की खबर के अनुसार आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा है, "पुलिस का ये कहना है कि अभियुक्तों ने पिस्टल छीनकर भागने की कोशिश की, विश्वसनीय नहीं हैं और इसके समर्थन में कोई सबूत भी नहीं है।"
"हमारी राय ये है कि अभियुक्तों पर जानबूझ कर उनकी हत्या के इरादे से गोली चलाई गई और गोली चलाने वालों को ये पता था कि इसके नतीजे में संदिग्धों की मौत हो जाएगी।"
जांच आयोग ने ये भी कहा है कि शैक लाल माधर, मोहम्मद सिराजुद्दीन और कोचेरला रवि के ख़िलाफ़ आईपीसी की धारा 302 के तहत हत्या का मुक़दमा चलना चाहिए और उन्हें आईपीसी की धारा 76 के तहत राहत नहीं मिलनी चाहिए। आयोग के मुताबिक आईपीसी की धारा 300 के तहत अपवाद 3 की राहत भी इन्हें नहीं मिलनी चाहिए क्योंकि उनकी इस बात को अविश्वसनीय पाया गया है कि उन्होंने सही इरादों से गोली चलाई थी। आयोग का कहना है कि उसके समक्ष प्रस्तुत की गई सामग्री से पता चलता है कि घटना के वक़्त दस पुलिसकर्मी मौजूद थे।
क्या है पूरा मामला?
ये पूरा मामला नवंबर 2019 का है। हैदराबाद में एक 27 साल की वेटनरी डॉक्टर के साथ दुष्कर्म और फिर हत्या का मामला सामने आया था। पीड़िता का शव शादगनर में एक पुल के नीचे जली हुई अवस्था में मिला था। घटना का पता चलने के बाद हैदराबाद पुलिस ने इस मामले में चार आरोपियों मोहम्मद आरिफ, चिंताकुंता चेन्नाकेशावुलू, जोलू शिवा और जोल्लू नवीन को गिरफ्तार किया था।
लेकिन 6 दिसंबर 2019 की सुबह-सुबह खबर सामने आई कि चारों आरोपियों को पुलिस ने मुठभेड़ में मार गिराया है। तेलंगाना पुलिस के मुताबिक आरोपियों को मौका ए वारदात पर सीन रिक्रिएशन के लिए ले जाया गया था। जहां उन्होंने भागने की कोशिश की, जिसके बाद नेशनल हाईवे 44 पर चारों आरोपियों की पुलिस के साथ मुठभेड़ हुई। इस मुठभेड़ में चारों आरोपियों को गोली लगी और इससे उनकी मौके पर ही मौत हो गई। मारे गए चार अभियुक्तों में से तीन नाबालिग थे।
एनकाउंटर का विरोध
गौरतलब है कि देश की एक बड़ी आबादी इस एनकांउटर पर संतुष्टि जाहिर कर रही थी। लेकिन इन सब के बीच एक ऐसा तबका भी था पीड़िता के लिए इंसाफ की मांग करते हुए अपराधियों की सज़ा तो चाहता था, लेकिन इस एनकाउंटर को लोकतंत्र और न्यायिक व्यवस्था की हत्या के रूप में भी देख रहा था।
एनकाउंटर के बाद इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट की वकील और मानवाधिकार कार्यकर्ता वृंदा ग्रोवर ने पुलिस पर मुकदमा दर्ज करने की मांग की थी। उन्होंने कहा था कि पुलिस पर मुकदमा के साथ ही पूरे मामले की स्वतंत्र न्यायिक जांच कराई जानी चाहिए। महिला के नाम पर कोई भी पुलिस एनकाउंटर करना गलत है।
तब लंबे समय से देश-विदेश में महिला सशक्तिकरण और मानवाधिकारों के लिए संघर्षरत कमला भसीन ने न्यूज़क्लिक से कहा था, "मैं इस एनकाउंटर के खिलाफ हूं। जो पुलिस एफआईआर तक दर्ज नहीं करती, वो क्या किसी को न्याय देगी? हमें न्याय और न्यायिक प्रक्रिया की इज्ज़त करने के साथ जल्द न्याय की मांग करनी है। हम पीड़िता के लिए इंसाफ चाहते हैं, किसी और के साथ नाइंसाफी नहीं।"
उन्होंने आगे कहा कि पुलिस एनकाउंटर के बहाने पहले से मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, आरटीआई कार्यकर्ताओं को मारती रही है। क्योंकि ये एक वैचारिक लड़ाई बनती जा रही है। जो भी सत्ता या प्रशासन की विचारधारा से मेल नहीं खाता, उन्हें मिटाने की साजिश एनकाउंटर के जरिए की जा रही है।
अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति (एडवा),अखिल भारतीय प्रगतिशील महिला समिति (एपवा) समेत कई महिला संगठनों ने भी इस एनकाउंटर की निंदा की थी। एपवा की ही कविता कृष्णनन ने कड़े शब्दों में इस एनकाउंटर का विरोध करते हुए कहा था कि सरकार और पुलिस महिला सुरक्षा के मुद्दे पर विफल रही है। जो पुलिस आदतन महिला पीड़ित को ही और प्रताड़ित करती है, वो आज चार शवों पर महिलाओं की रक्षक बनने का दिखावा कर रही है।
बहरहाल, सिरपूरकर आयोग की रिपोर्ट ने दो साल पहले हुए इस एनकाउंटर से तो पर्दा उठा दिया है। लेकिन आज भी देश के सामने ऐसी कई न्यायिक और गैर-न्यायिक हत्याएं हैं, जो महज़ पुलिस की लीपापोती का शिकार हो गई हैं। जो लोग इस कथित त्वरित 'न्याय' पर खुश होते हैं वे ये भूल जाते हैं कि एक अन्याय से दूसरा अन्याय दूर नहीं किया जा सकता। एक बलात्कार, दूसरे बलात्कार का बदला नहीं हो सकता। ना ही एक हत्या की वजह से दूसरी हत्या जायज ठहराई जा सकती। इसलिए कानून और अदालतें इंसाफ़ के लिए बने हैं, बदले के लिए नहीं।
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