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भारत में लोकतांत्रिक प्रक्रिया का पतन 

राज्य के मामले अपने नागरिकों एवं नीति-निर्माताओं दोनों से ही इस मसले पर तत्काल ध्यान देने की मांग करते हैं।
भारत में लोकतांत्रिक प्रक्रिया का पतन 

संसदीय प्रक्रिया में जवाबदेही के उपायों को कमजोर करने के कारण, हाल के वर्षों में संसदीय जवाबदेही में भारी गिरावट आई है, प्रणव देवराज लिखते हैं।

लोकतांत्रिक प्रक्रिया की पवित्रता-शुद्धता को लोकतंत्र के एक अपरिहार्य अवयव के रूप में स्वीकार किया गया है। हालांकि, ऐसा मालूम होता है कि विगत के कुछ निश्चित चरणों में, खास कर भारत में हालिया वर्षों में, उस लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर चोट पहुंची है। विशाल संसदीय बहुमत पर आई सरकार की उस प्रक्रिया की अवहेलना में तेजी आई है। 

अध्येयताओं ने भारतीय संविधान में व्यापक बहुमत एवं मजबूत सरकारों की स्थिति में सत्ता को केंद्रित करने की उनकी प्रवृत्तियों के बारे में काफी कुछ लिखा है। लोकतांत्रिक प्रक्रिया के ढ़ांचे में सहभागिता के आधार पर निर्णय लेने, भूलों को सुधारने, और निजी निरंकुशताओं के प्रबंधन को शामिल किया गया है। यह प्रक्रिया बुद्धि-विवेक एवं अखंडता का अनुगमन करती है, वह लोकतंत्र की उन विशेषताओं के बारे में दृढ़ स्वर में बोलती है, जिनका हम सब व्यवहार करते हैं। इसलिए यह नोट करना गहरी चिंता का कारण है कि कैसे इस प्रक्रिया पर अनेक मोर्चों से हमले किए जा रहे हैं।

कार्यपालिका की जवाबदेही में कमी 

संविधान के अनुच्छेद 75(3) के मुताबिक प्रधानमंत्री एवं मंत्रिपरिषद लोकसभा के प्रति जवाबदेह हैं। कार्य में इस विभाजन के माध्यम से राज्य की विधायी शाखा के प्रति कार्यकारी शाखा की जवाबदेही सुनिश्चित की जाती है। 

सरकार के संसद में पेश किए गए विधेयक पर कानून बनने के पहले प्रतिनिधियों के बीच वोटिंग कराई जाती है। इसके लिए कुछ प्रक्रियाएं बनाई हैं। जैसे कि संसद में शून्य काल में सांसदों को विषय की समीक्षा करने तथा सरकार से सवाल पूछने का मंच दिया गया है और संसद का एक दूसरा सदन राज्य सभा है, जो राज्यों का प्रतिनिधित्व करती है।

ऐसा सरकार की जवाबदेही सुनिश्चित करने की भावना से किया गया है। इनमें से कई विशेषताएं सामान्यतया हमारी जैसी संसदीय प्रणालियों में हैं। लेकिन संसद में किसी एक दल के प्रभुत्व ने इस विभाजन एवं ऐसी जवाबदेही को को धुंधला कर दिया है, जिसे वह हासिल करने की अपेक्षा करती है।

भारतीय जनता पार्टी अथवा, कोई भी बड़ी पार्टी, जिसका लोकसभा में बहुमत होता है और उसका सरकार पर दखल होता है, वह ऐसी किसी भी पर्याप्त जांच एवं छानबीन से अपने को प्रभावी रूप से मुक्त कर लेती है। एक गौर करने वाला एवं हालिया उदाहरण 2020 का है, जब महामारी के शुरू होने के बाद आयोजित संसद के पहले सत्र में ही शून्यकाल को निलंबित कर दिया गया था। हालांकि इस पर काफी हो-हल्ला हुआ था। 

विपक्षी दलों द्वारा वापसी और लोकसभा में सरकार की उनकी निगरानी, जो किसी न किसी रूप में प्रचलित है, वह कमजोर हुई है और उसने वांछित प्रभाव नहीं डाला है। शायद कार्यपालिका और विधायिका के बीच हमारे वर्तमान संबंधों पर पुनर्विचार करने से जवाबदेही की यह व्यवस्था व्यवहार में और अधिक सार्थक हो जाएगी। 

राज्य सभा की कमजोर होती भूमिका

संसद का दूसरा सदन,यानी राज्यसभा एक ऐसी संस्था है, जो हाल फिलहाल में नियमित रूप से संसदीय लड़ाइयों की खींचतान का गवाह रही है। जिस तरह से राज्य सभा अपने सदस्यों का चुनाव करती है, उससे सरकार अपने समर्थन की सहजता का इस्तेमाल उसी तरह नहीं कर सकती, जिस तरह वह लोकसभा में कर लेती है। इसका मतलब यह है कि राज्यसभा प्रक्रियात्मक औपचारिकता भर पूरी करने वाला सदन नहीं है,उससे कहीं ज्यादा कुछ है, और सरकार की बारीकी से जांच-पड़ताल करने की शक्ति रखती है।
 
हाल के वर्षों में जिन दो बहुत ही अहम तौर-तरीकों ने राज्य सभा और उसकी जवाबदेही के एक अहम साधन होने की इसकी क्षमता को कमज़ोर कर दिया है, वे हैं-इसकी संविधान प्रक्रिया में बदलाव, और धन विधेयक वाले रास्ते का बार-बार इस्तेमाल किया जाना।
 
राज्यसभा के सदस्यों का चुनाव राज्यों की विधानसभाओं द्वारा किया जाता है। राज्य सभा के सदस्य को उस राज्य से सम्बन्धित/निवासी होने की आवश्यकता होती है, जिसका कि वे सदन में प्रतिनिधित्व करते हैं, इस प्रावधान को दूसरे सदन, जिसका कि राज्य सभा प्रतिनिधित्व करता था और जवाबदेह था, उसके अपेक्षित उद्देश्य के उलट सदस्यों के रणनीतिक जगह पर रखने और नियंत्रण की अनुमति देते हुए 2003 में लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम में एक संशोधन से समाप्त कर दिया गया था।
 
धन विधेयक के मुद्दे पर पहले भी कई बार विस्तार से चर्चा की जा चुकी है। आवश्यक बात यह है कि जब खास तौर पर धन विधेयकों की बात आती है, तो लोक सभा का राज्य सभा के मुकाबले उन विधेयकों की शुरुआत और पारित होने पर ज्यादा नियंत्रण होता है। हमारी राजनीतिक बनावट की इस विशेषता का मौजूदा सरकार द्वारा लोकसभा में साधारण विधेयकों का भी धन विधेयकों के रूप में पारित करवाने को लेकर नियमित रूप से इसका दुरुपयोग किया गया है, जबकि इसे राज्यसभा में समर्थन हासिल नहीं है।
 
इस तरह की क़ानूनी कवायद करने के स्पष्ट खतरे केंद्रीय व्यवस्था की जवाबदेही और बारीक पड़ताल का लुप्त हो जाना हैं, यह कुछ ऐसी चीज़ें हैं, जो संसद के दो सदनों की व्यवस्था पर आधारित है।
 
विधेयकों के साथ व्यवहार 
 
संसदीय प्रक्रिया में एक और बेहद प्रभावी कदम विधेयकों को पारित करने की प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया के दो अहम चरणों पर यहां चर्चा की जा सकती है,ये चरण हैं: संसदीय समितियों द्वारा समीक्षा प्रक्रिया और मतदान प्रक्रिया।
 
संसदीय समितियां ऐसे अभेद्य निकाय होती हैं,जो विधेयकों पर उस तरह से विस्तारपूर्वक चर्चा और विचार-विमर्श करती हैं, जिस तरह से कभी-कभी संसद में हमेशा संभव नहीं हो पाता है। इनमें सभी दलों के सदस्यों शामिल होते हैं और अक्सर परामर्श देने वाले विशेषज्ञ भी होते हैं। वे विधेयकों पर ध्यान केंद्रित करते हैं और इन समितियों द्वारा विधेयकों पर जारी की जाने वाली रिपोर्टें आमतौर पर कानून बनाने की प्रक्रिया को और बेहतर करने में सहायक होती हैं। वे प्रक्रिया और कानून की मूल सामग्री, दोनों ही लिहाज से जांच-पड़ताल का एक अहम साधन हो सकते हैं।
 
हालांकि, इन समितियों की घटती कार्यकुशलता का सामने आना निराशाजनक और चिंताजनक है। स्वतंत्र अनुसंधान संस्थान पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च द्वारा किए गए विश्लेषण से पता चलता है कि विशेषज्ञों के जरूरी परामर्श और उस पर विचार-विमर्श बहरहाल अब नहीं होता है। ये समितियां उन निम्न बुनियादी ढांचे और साजो सामान के सहारे चलती हैं, जबकि इन समितियों में सदस्य बार-बार भाग लेते हैं।
 
विधेयकों को समितियों के हवाले किया जाना अनिवार्य तो नहीं है(तब भी आदर्श तो है ही); लेकिन मौजूदा शासन के तहत इसमें भारी गिरावट आयी है। उदाहरण के लिए, संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकारों की 14वीं और 15वीं लोकसभा ने क्रमशः 60% और 70% विधेयकों को संसदीय समितियों के हवाले किया था,जबकि इसके उलट राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन-बहुमत वाली 16वीं लोकसभा (2014-2019 से) ने ऐसा महज प्रस्तावित कानून के केवल 27% किया था। पिछले कुछ सालों में कई महत्वपूर्ण विधेयकों को इस स्थायी समितियों के हवाले किये बिना ही पारित कर दिया है, इससे उन कानूनों और उनके प्रभाव और उनके अनपेक्षित नतीजों को बारीकी से जांच-पड़ताल करने के मौके से वंचित कर दिया गया है।
 
इससे भी बुरी बात वह हैरतअंगेज तरीका है,जिसको अपनाते हुए विधेयकों को संसद के माध्यम से पेश किया गया है। उदाहरण के लिए, सितंबर 2020 में पारित तीन विवादास्पद कृषि विधेयकों को हंगामे और गरमागरम बहस के बीच मंजूरी दे दी गई थी। अधिकांश विपक्षी सांसदों की ओर से उठाए गए आपत्तियों के बावजूद उन पर शायद ही चर्चा की गई थी, और इन विवादित कानूनों को ज़बरदस्त ध्वनि मत से पारित कर दिया गया। हमने उसके विरोध में विपक्ष का वाकआउट भी देखा था।
 
शायद यह मान लिया गया हो कि इस तरह के रुख को सदन के साथी विधायक स्वीकार करें लेगे और उसका सम्मान करेंगे। लेकिन, हद तो तब हो गयी,जब इसके बाद करीब 15 विधेयकों को पारित किया गया, विपक्ष के सदन में मौजूद नहीं होने के मौके का इस्तेमाल उधम मचाने के लिए किया गया और सरकार द्वारा संसद के 'उत्पादक' सत्र का जश्न मनाया गया।

हाल ही में संपन्न हुए संसद सत्र में भी यही सब दोहराया गया,चूंकि लोकसभा और राज्यसभा ने विधेयकों को पारित करने से पहले औसतन केवल 34 मिनट और 46 मिनट की ही चर्चा की, इसलिए दोनों सदनों में केवल एक विधेयक पर ही एक घंटे से अधिक की चर्चा हो पाई। बीमा संशोधन विधेयक राज्यसभा में अव्यवस्था और गैर-संसदीय आचरण के अभूतपूर्व दृश्यों के बीच पारित किया गया था।
 
यहां तक कि हाल ही में भारत के मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमना ने भी सार्वजनिक रूप से उस जल्दबाजी पर खेद व्यक्त किया था, जिस जल्दबाज़ी के साथ संसद विधेयकों को पारित कर रही है और इसे "अफ़सोसनाक स्थिति" करार दिया है। उन्होंने इस तथ्य पर प्रकाश डाला कि यदि यही प्रक्रिया जारी रहती है, तो इसका नतीजा वैधानिक प्रावधानों में अस्पष्टता के तौर पर ही सामने आयेगा, जिससे न्यायिक व्याख्या की मांग करने वाले मामलों की बाढ़ आ जाएगी।
 
ये सभी प्रवृत्तियां भारत में संसदीय लोकतंत्र के धीरी-धीरे लगातार हो रहे पतन का सूचक हैं। जिस तरह की स्थिति है,वह स्थिति नागरिकों और नीति-निर्माताओं, दोनों से ही तत्काल ध्यान दिये जाने की मांग करती है। आखिरकार, लोकतांत्रिक और राजनीतिक मानदंड किसी स्वस्थ लोकतंत्र की जीवन-शक्ति होते हैं।
 
(प्रणव देवराज जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी स्थित जिंदल ग्लोबल लॉ स्कूल में कानून के छात्र हैं। लेख में व्यक्त विचार इनके निजी हैं।)
 
यह लेख मूल रूप से द लीफलेट में प्रकाशित हुआ था।

 
अंग्रेजी में मूल रूप से प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

The Decline of the Parliamentary Process in India

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