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कितना व्यावहारिक है पश्चिम बंगाल का विभाजन और एक अलग राज्य उत्तर बंगाल का निर्माण

हाल के विधानसभा चुनाव में पश्चिम बंगाल में पूरी तरह से नाकाम होने के बाद भाजपा की ओर से हालिया प्रस्तावित बंगाल का विभाजन ममता बनर्जी के लिए समस्यायें पैदा करने के मक़सद से रचा गया एक गेम प्लान हो सकता है।
कितना व्यावहारिक है पश्चिम बंगाल का विभाजन और एक अलग राज्य उत्तर बंगाल का निर्माण
'प्रतीकात्मक फ़ोटो'

एक बार फिर पश्चिम बंगाल के बंटवारे और उत्तर बंगाल को अलग राज्य बनाने के मुद्दे पर पश्चिम बंगाल में हड़कंप मचा हुआ है। इस मुद्दे को लेकर समय-समय पर आवाजें उठती रही हैं। इस उत्तर बंगाल में गंगा के दूसरी ओर स्थित मालदा, उत्तर दिनाजपुर, दक्षिण दिनाजपुर, दार्जिलिंग, जलपाईगुड़ी, अलीपुरद्वार और कूच बिहार के मौजूदा ज़िलों के भौगोलिक क्षेत्र शामिल हैं। राजधानी शहर और राज्य के आर्थिक और राजनीतिक केंद्र  कोलकाता से दूर इस क्षेत्र का अपना ही सौंदर्य है और यह सौंदर्य है- पहाड़ियां, दुआर (तराई क्षेत्र) और मैदानी इलाक़ों के मामले में इसके प्राकृतिक संसाधन, अनूठी प्रकृति वाली नदियां, मानसून के दौरान मूसलाधार बारिश और गर्मी के आस-पास क़रीब-क़रीब सूखा। बहुत ज़्यादा वर्षा वाली इन जलवायु परिस्थितियों ने वनस्पतियों और जंगलों के प्रचूर विकास में योगदान दिया है, ऊपर-नीचे लहरें बनाती और ढलान वाली भूमि ने यहां की पहाड़ियों और दुआर में चाय बाग़ानों के विकास में मदद पहुंचायी है। चाय के बाग़ानों का विस्तार अब उन मैदानी इलाक़ों तक भी हो गया है, जहां पहले धान और जूट की फ़सल की खेती की जाती थी। जलवायु परिस्थितियों से जुड़े पहाड़ियों, चाय बाग़ानों और जंगलों की प्राकृतिक सुंदरता ने इस क्षेत्र में पर्यटन उद्योग के विकास में भी योगदान दिया है। पर्यटकों को घर पर ही ठहराने का चलन हाल के वर्षों में लोकप्रिय हो गया है। इस तरह, उत्तर बंगाल अपने क्षेत्र में तीन ‘T’,यानी टी(चाय), टिम्बर(इमारती लकड़ी) और टूरिज़्म(पर्यटन) के क्षेत्र में आजीविका के तीन अहम संसाधनों के लिए प्रसिद्ध है।

इस क्षेत्र में रहने वाले लोगों की जनसांख्यिकीय संरचना भी काफ़ी मोहक है। ऑस्ट्रिक, तिब्बती-चीनी, द्रविड़ियन और इंडो-यूरोपीय नामक चार नृजातीय परिवारों के लोग इस क्षेत्र में रहते हैं। बेशक इनमें इंडो-चाइनीज़ परिवार के तहत आने वाला मंगोलॉयड वंश के राजबंशी सबसे बड़ा नृजातीय समूह है। इस क्षेत्र में रहने वाले अन्य विभिन्न नृजातीय समूह हैं- नेपाली (गोरखा), भूटानी, तमांग, लेपचा, लिंबू, मेच, राभा, उरांव, मुंडा, संथाल, मालपहाड़ी, खारिया, मधेसिया, जुगी, खेन, पान, पलिया, देसी, नस्य शेख़(इस्लाम में धर्मांतरित राजबंशी) आदि हैं। इनमें से ज़्यादतर लोगों की अपनी-अपनी भाषायें हैं। इसके अलावा, सदरी या सादनी भाषा है, जो इस क्षेत्र के जनजातीय लोगों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली संचार की भाषा है। उत्तर बंगाल में ऐसी व्यापक विविधता है।

ऐसी ही विविधता राजनीतिक क्षेत्र में भी देखी जाती है। मिसाल के तौर पर दार्जिलिंग को ही लें, जो उत्तर बंगाल के घटक ज़िलों में से एक है। दार्जिलिंग का राजनीतिक इतिहास बंगाल, नेपाल, भूटान, सिक्किम और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के इतिहास से जुड़ा हुआ है। 1815 में हुई सुगौली की संधि के तहत नेपाल ने अपने क्षेत्र का 4,000 वर्ग मील का इलाक़ा ब्रिटिश भारत को सौंप दिया था, और ब्रिटिश भारत ने 1817 में तित्ल्या में हस्ताक्षरित संधि के ज़रिये इस इलाक़े को सिक्किम के राजा को सौंप दिया था। फिर, उस संधि के दस साल बाद विवाद के निपटारे के सिलसिले में दार्जिलिंग समेत सिक्किम को नेपाल और भूटान के बीच एक बफ़र स्टेट बना दिया गया था। ब्रिटिश सैनिकों के लिए एक सेहतग़ाह के लिहाज़ से उपयुक्त क्षेत्र वाली जलवायु को देखते हुए गवर्नर जनरल भूमि का पट्टा चाहता था और दोस्ती की ख़ातिर सिक्किमपुट्टी राजा ने 'ग्रेट रनगीत नदी के दक्षिण में बालसुर, कहैल और लिटिल रनगीत नदियों के पूर्व और रुंगनो और महानदी के पश्चिम में स्थित ये सभी ज़मीन 1 फ़रवरी, 1835 को उसे पट्टे  पर दे दिये थे। डॉ कैंपबेल 1841 में कुमाऊं क्षेत्र से चीन के चाय के बीज ले आये थे और चाय उगाना शुरू कर दिया था, जिसके बाद कुछ अन्य लोगों ने भी चाय उगाना शुरू कर दिया था। धीरे-धीरे इस इलाक़े में कई चाय बाग़ान शुरू हो गये। इस क्षेत्र में चाय आधारित गतिविधियां तेज़ी से विकसित हो रही थीं,जिसकी वजह से राजा के भीतर डाह पैदा हो गयी, और उसने फिर डॉ. कैंपबेल और सर जोसेफ़ डाल्टन हुकर को क़ैद कर लिया, ये दोनों सिक्किम में भ्रमण कर रहे थे। जल्द ही कंपनी की तरफ़ से भेजे गये सैनिकों ने रंगीत को पार किया और राजा ने क़ैदियों को रिहा कर दिया, और दुश्मनी ख़त्म हो गयी, लेकिन सिक्किम वाले हिस्से में परेशानी और आगे कदाचार पाये जाने के परिणामस्वरूप इस क्षेत्र को ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य का हिस्सा बना दिया गया, और सिक्किम राज्य को एक संरक्षित राज्य बना दिया गया।

दार्जिलिंग नगरपालिका की स्थापना तो बहुत पहले 1850 में ही हो गयी थी। दार्जिलिंग ज़िला शुरू में एक 'ग़ैर-विनियमित क्षेत्र' था, फिर अस्थायी रूप से 1862 से 1870 के बीच इसे 'विनियमित क्षेत्र' बना दिया गया। इसे 1874 में एक अनुसूचित ज़िला बना दिया गया था, 1919 में पिछड़ा इलाक़ा और फिर 1935 में आंशिक रूप से विस्तारित क्षेत्र के रूप में वर्गीकृत कर दिया गया था,जो स्वतंत्रता तक बना रहा।

स्वतंत्रता से पहले एक समय में तो ब्रिटिश सत्ता इस इलाक़े को नेपाल को वापस देने के विचार के साथ भी खिलवाड़ कर रही थी, लेकिन ब्रिटिश राज इस योजना को इसलिए ख़ारिज कर दिया था,क्योकि उन्हें  आशंका थी कि इस तरह से इस इलाक़े को उपहार के तौर पर देने से भविष्य में राजनीतिक गोरखाओं की तरफ़ से परेशानी पैदा हो सकती थी। इसे 'चीफ़ कमिश्नर्स प्रोविंस' बनाने पर भी अंग्रेज़ों ने विचार किया था। मुस्लिम लीग के तत्कालीन नेता दार्जिलिंग आये थे, उन्होंने जिन स्थानीय नेताओं के साथ बातचीत की थी,वे पूर्वी पाकिस्तान के साथ विलय को लेकर सहमत हो गये थे। पांच दिनों तक दार्जिलिंग टाउन हॉल पर पाकिस्तानी झंडा फहराता रहा। हालांकि, ये तमाम अटकलें और भ्रम तब ख़त्म हो गये, जब 19 अगस्त, 1947 को टाउन हॉल पर पाकिस्तानी झंडे की जगह भारत के तिरंगे ने ले ली और तराई में दार्जिलिंग, कुर्सेओंग, कलिम्पोंग और सिलीगुड़ी उपखंड के पहाड़ी उपखंडों वाले गठित इस ज़िले को पश्चिम बंगाल राज्य में मिला दिया गया था। इसके बाद 1950 में पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना द्वारा तिब्बत पर किये जाने वाले कब्ज़े के परिणामस्वरूप इस इलाक़े में हज़ारों तिब्बती शरणार्थियों की आमद हुई,जिसका नतीजा यह हुआ कि इस ज़िले को कुछ जनसांख्यिकीय बदलाव का सामना करना पड़ा। ब्रिटिश शासन के दौरान नेपाल से बड़े पैमाने पर यहां लोगों का आना एक स्वाभाविक परिघटना थी।

इन सभी परिघटनाओं ने दार्जिलिंग को जातीय, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से एक बहुत ही जटिल पहचान बनाने में योगदान दिया। इस विविध जातीय आबादी के कारण सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक तनावों का जन्म हुआ, जिससे उचित संदर्भ में सावधानी और सहानुभूति के साथ निपटने की ज़रूरत थी। 1917 में गठित हिलमेन्स एसोसिएशन ने प्रशासनिक अलगाव की मांग रखी। अखिल भारतीय गोरखा लीग की स्थापना 1928 में हुई। गोरखा इन्हीं संगठनों के ज़रिये अपनी शिकायतें सामने रखते रहे हैं। हालांकि, इस तरह के सभी आंदोलनों का असर काफ़ी हद तक महत्वहीन था। सुभाष घिसिंग के नेतृत्व में गोरखा नेशनल लिबरेशन फ़्रंट (GNLFF) की तरफ़ से जातीय आधार पर उठायी गयी एक अलग गोरखालैंड राज्य के निर्माण की मांग 1980 के दशक में बेहद लोकप्रिय हुई।

जीएनएलएफ़ की ओर से 'गोरखाओं की पहचान' से जुड़े बहुत सारे मुद्दे उठाये गये थे। उस दौरान पहाड़ियों में बंद, सामाजिक बहिष्कार, हड़ताल नियमित रूप से हो रहे थे। 1986 की शरद ऋतु तक यहां के राजनीतिक परिदृश्य में आगज़नी, लूट और क़ानून-व्यवस्था की गंभीर समस्यायें व्यापक तौर पर शामिल हो गयी थीं। पहाड़ों में आम जनजीवन पूरी तरह अस्त-व्यस्त हो गया था। पहाड़ों में अमन-चैन लाने के लिए प्रशासन अलग राज्य के अलावा किसी भी शर्त को मानने के लिए तैयार था। जीएनएलएफ़, राज्य सरकार और केंद्र सरकार के बीच हुई बातचीत के परिणामस्वरूप जीएनएलएफ़ सुप्रीमो सुभाष घिसिंग की अध्यक्षता में एक स्वायत्त निकाय दार्जिलिंग गोरखा हिल काउंसिल (DGHC) का गठन किया गया। दार्जिलिंग के लोगों को एक राज्य की जगह स्वायत्त निकाय मिला। तब से इन पहाड़ियों में बहुत सारे घटनाक्रम हुए हैं, जिससे इनकी स्थिति कमज़ोर होती गयी और अलग गोरखालैंड राज्य की मांग लगभग थम सी गयी। ये तमाम बातें उत्तर बंगाल के उत्तरी भाग दार्जिलिंग को लेकर हैं।

आइये, अब हम उस दूसरे अहम हिस्से की ओर बढ़ते हैं,जिसे पूर्वी भाग भाग कहा जाता है, अर्थात् कूचबिहार, जो प्रागज्योतिषपुर और प्राचीन कामरूप का कभी एक अंग हुआ करता था। मगर,बाद में इसका पूर्वी भाग असम का हिस्सा बन गया और पश्चिमी भाग कूचबिहार की जागीर बन गया। कामरूप का अपना प्रसिद्ध इतिहास, अपनी मानवशास्त्रीय और भाषायी विशेषतायें रही हैं। कामरूप के प्रसिद्ध राजा भगदत्त के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने महाभारत युग में हुए कुरुक्षेत्र की लड़ाई में भाग लिया था। कामरूप के सातवीं शताब्दी के राजा भास्करवर्मन, जो कन्नौज के हर्षवर्धन और बंगाल के शशांक के समकालीन थे, उन्होंने असम की उस पूरे ब्रह्मपुत्र घाटी पर शासन किया था, यह शासन उत्तर बंगाल में बहने वाली कराताओ नदी तक फैला हुआ था। चीनी यात्री ह्वेन-त्सांग भास्करवर्मन के इस राज्य का दौरा किया था और उसने यहां के लोगों और इस राज्य में बोली जाने वाली भाषा के बारे में बहुत अहम टिप्पणियां छोड़ी हैं। 15वीं शताब्दी में जब राजा ने 'कामतेश्वर' की उपाधि धारण की थी, तब इस क्षेत्र को कामता के नाम से जाना जाता था। यह क्षेत्र कुछ समय के लिए भुइयां के अधीन भी रहा।

कूच-राजबंशी वंश के बिस्वा सिंह ने अलग-अलग भुइयों के अधीन रहे इन क्षेत्रों पर कब्ज़ा कर लिया और इसे 1515 में एक राज्य के रूप में संगठित कर दिया। उनके बेटे नरनारायण ने अपने भाई,चिल्ला राय के समर्थन से इस राज्य का विस्तार किया और उसे फिर से संगठित किया। चिल्ला राय के बारे में कहा जाता है कि वह दुनिया के सबसे महान जनरलों में से एक था। इस राजवंश के राजाओं ने उस कूच बिहार राज्य नाम से इस राज्य पर शासन किया, जो राज्य को 1949 में भारत के डोमिनियन में मिला दिये जाने  तक पूरे पूर्वी भारत में सबसे बड़ी रियासत था। अब हमें यहां अधिग्रहण प्रक्रिया पर नज़र डालने की ज़रूरत है।

राज्य मत्रालय के प्रमुख सरदार पटेल और इस मंत्रालय के सचिव वी. पी. मेनन ने राजकुमारों (जिनकी संख्या लगभग 580 थी) के साथ लगातार बातचीत करते हुए उन्हें डोमिनियन में लाने के लिए कड़ी मेहनत की थी। राजकुमारों के साथ मिलकर इस मंत्रालय ने विलय के एक दस्तावेज़ और एक स्थिर समझौते का मसौदा तैयार किया। जब कूचबिहार राज परिवार से जुड़े तमाम बड़े महाराजाओं और नवाबों ने विलय पत्र और समझौते पर हस्ताक्षर कर दिये, तो कूचबिहार के महाराजा के पास और कोई विकल्प नहीं रहा। उन्होंने भी 9 अगस्त, 1947 को उस पत्र पर हस्ताक्षर कर दिये। कुछ ज़रूरी संशोधन जारी करने और अन्य आवश्यक औपचारिकताओं को पूरा करने के बाद 28 अगस्त, 1949 को महाराजा ने उस विलय समझौते पर हस्ताक्षर किये थे, जिससे राज्य को चीफ़ कमिश्नर प्रोविंस बना दिया गया था। फिर कूचबिहार को पश्चिम बंगाल में मिलाने का फ़ैसला लिया गया। पश्चिम बंगाल सरकार ने 1 जनवरी, 1950 को भारत सरकार की अधिसूचना के अनुसरण में इस आशय की अधिसूचना जारी कर दी कि उक्त तिथि से कूचबिहार के चीफ़ कमिश्नर प्रांत को पश्चिम बंगाल के एक ज़िले रूप में गठित किया जाये।

इस घटनाक्रम को लेकर इतिहासकारों और विद्वानों ने बहुत कुछ लिखा है। हालांकि, अपने गौरवशाली इतिहास और भाषा और संस्कृति सहित समृद्ध परंपरा पर गर्व महसूस करने वाले वफ़ादार प्रजाओं, वंशजों और रिश्तेदारों की तरफ़ से इस तरह के घटनाक्रम को स्वीकार कर पाना बहुत ही मुश्किल है। लेकिन, उत्तर बंगाल के इस हिस्से में ऐसा हुआ है। वफ़ादार प्रजा, मूल निवासियों की संतानें, यानी राजबंशी, नस्य सेख़, जुगी, आदि की एक अच्छी-ख़ासी आबादी  निराश और क्षुब्ध हो गये और उन्होंने विभिन्न आंदोलनों के ज़रिये अपनी नाख़ुशी, असंतोष, रोष और शिकायतों को व्यक्त किया। यह स्थिति मूल निवासियों के सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक विकास को लेकर व्यापक योजना की कमी, प्रशासन और उनके प्रति कोलकाता में रह रहे नेताओं के रवैये के कारण ज़्यादा थी।

इन सबसे अभाव और शोषण की एक आम भावना पैदा हुई और इस क्षेत्र में 1970 के दशक में उत्तर खंड आंदोलन के रूप में पहली बार विस्फोटक हालात देखे गये। उत्तर खंड दल ने पांच निर्वाचन क्षेत्रों से विधानसभा चुनाव लड़ा, लेकिन मुश्किल से उसे 5-7% वोट ही हासिल हुए। उनकी मुख्य शिकायतें भूमि सुधारों और वाम मोर्चे के विकास से जुड़ी अन्य नीतियों के इर्द-गिर्द केंद्रित थीं। शुरुआत में तो उन्होंने तीस्ता परियोजना के लागू नहीं किये जाने जैसे उत्तर बंगाल के सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक उत्थान पर ध्यान केंद्रित किया। लेकिन,राज्य सरकार ने शायद ही इस पर कोई ध्यान दिया, और फिर उन्होंने पैम्फ़लेट, पर्चे, बैठकों आदि के ज़रिये व्यापक प्रचार करते हुए एक अलग राज्य की मांग कर डाली। हालांकि, उचित नेतृत्व और लोकप्रिय समर्थन की कमी के कारण यह आंदोलन नाकाम रहा।

इसके बाद उत्तर बंगाल विश्वविद्यालय के छात्रों का एक संगठन, उत्तर बांगो तपसिली जाति ओ आदिवासी संगठन (उत्तरी बंगाल पिछड़ी जाति और आदिवासी संगठन, UTJAS) का आंदोलन हुआ, जो मुख्य रूप से अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति वर्ग के लिए आरक्षण को उचित रूप से लागू किये जाने,भूमि सीमा में बढ़ोत्तरी, कुछ और ग़रीब जातियों को मंडल आयोग में शामिल करने आदि जैसे मुद्दों पर लड़ रहा था। कई मौक़ों पर उन्होंने धीमे स्वर में ही सही,मगर अलग राज्य के लिए भी आवाज़ उठायी थी। यह सब 1980 के दशक में चल रहा था।

लेकिन, वह कामतापुर पीपुल्स पार्टी (KPP) ही थी,जिसने इस क्षेत्रीय राजनीति को एक नया मोड़ दे दिया और विरोध के लिए एक नया उत्साह पैदा कर दिया। 1995 में गठित केपीपी कामतापुरी भाषा की मान्यता के साथ-साथ एक अलग कामतापुर राज्य की मांग के साथ सामने आयी। इसे हासिल करने के उद्देश्य से केपीपी ने कामतापुर राज्य के इतिहास और कामतापुरी भाषा को सबसे आगे रखा। केपीपी ने यह मांग रखी कि उत्तर बंगाल के मूल निवासी राजबंशी की बोली जाने वाली भाषा को राजबंशी नहीं, बल्कि कामतापुरी के नाम से जाना जाये। यह दावा भी किया गया कि कामतापुरी भाषा, बांग्ला का एक रूप नहीं, बल्कि एक अलग भाषा ही है। लेकिन, कोलकाता स्थित दक्षिण बंगाल के लेखकों और साहित्यकारों ने राजवंशियों की इस जातीय पहचान और उनकी भाषा और संस्कृति को लेकर अक्सर आपत्तिजनक और कभी-कभी तो बेहद अप्रिय टिप्पणियां तक की हैं। आगे यह दावा भी किया गया कि राजबंशी बंगाली नहीं हैं। कामतापुर गौरवशाली सांस्कृतिक और भाषायी विरासत वाला राज्य था। इसमें एक राज्य होने के सभी पहलू हैं  और इसीलिए, अलग राज्य की उनकी मांग बेहद जायज़ है।

केपीपी का एक चरमपंथी शाखा भी है, जिसे कामतापुर लिबरेशन ऑर्गनाइजेशन (KLO) के नाम से जाना जाता है। केएलओ ने कई मौक़ों पर चरमपंथी विध्वंसक गतिविधियों का भी सहारा लिया। केएलओ के कार्यकर्ताओं को ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (AASU) और ऑल बोडो स्टूडेंट्स यूनियन (ABSU) जैसे संगठनों द्वारा प्रशिक्षित किया गया है। उन्हें भूटान के जंगल में भी चरमपंथी प्रशिक्षण हासिल था। केएलओ शाखा की सहायता से केपीपी ने 1990 के दशक के अंत में शांतिपूर्ण और हिंसक,दोनो ही तरह के बहुत सारे आंदोलनों किये।

नतीजा यह हुआ कि राज्य सरकार ने इस आंदोलन को अलगाववादी आंदोलन क़रार दिया। कथित तौर पर एएएसयू और एबीएसयू द्वारा समर्थित होने की वजह से केएलओ की गतिविधियां राज्य सरकार के काम आयीं। केपीपी सदस्यों और केएलओ कार्यकर्ताओं की बड़े पैमाने पर की गयी गिरफ़्तारियों से केपीपी को बड़ा झटका लगा। केएलओ को प्रतिबंधित संगठन घोषित कर दिया गया और इसके कार्यकर्ता असम, भूटान और बांग्लादेश भाग गये। इस संगठन का मुखिया जीबन सिंघा बांग्लादेश में छुप गया था। ग़ौर करने वाली बात यह है कि केपीपी की गतिविधियां ख़ास तौर पर तराई-दूआर क्षेत्र में ही केंद्रित थीं। केपीपी ने संसदीय राजनीति में भाग लिया और जहां-जहां उसका वजूद था,वहां-वहां के मुख्य इलाक़ों के विधानसभा क्षेत्रों से उसने चुनाव लड़ा, लेकिन नतीजा बहुत अच्छा नहीं रहा,उसे मुश्किल से 10% वोट हासिल हुए। निराश और किंकर्तव्यविमूढ़ होकर उनकी प्रमुख महिला कार्यकर्ताओं में से एक मिताली रॉय अपने अनुयायियों के साथ तृणमूल कांग्रेस (TMC) में शामिल हो गयीं और 2016 में चुनाव लड़कर धूपगुड़ी की विधायक बन गयीं। बाद में पार्टी के प्रमुख्य नेता अतुल रॉय ने भी टीएमसी से हाथ मिला लिया। निखिल रॉय और पार्टी के दूसरे गुट के अन्य लोगों ने गतिविधियों में जाना लगभग बंद कर दिया। लगभग दो महीने पहले अतुल रॉय की मौत हो जाने के साथ ही केपीपी अब एक बिना किसी गतिविधि वाला संगठन बनकर रह गया है।

गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (GJMM) और केपीपी की गतिविधियों के बीच तराई-दूआरों के चाय बाग़ान क्षेत्रों में आदिवासी विकास परिषद की कुछ गतिविधियां ज़रूर हुई हैं। इसका उद्देश्य आदिवासियों की शिकायतों और समस्याओं को सामने रखना था। हालांकि, उनकी गतिविधियों का बाग़ानों में राजनीतिक दलों और ट्रेड यूनियनों की भूमिका के सामने ज़्यादा असर नहीं हुआ। इसके अलावा, उसके पास अपनी बातों को दमदार तरीक़े से रखने वाला कोई नेतृत्व भी नहीं था। इस आदिवासी संगठन ने इस तथ्य के बावजूद अपना कोई असरदार निशान नहीं छोड़ा है कि इस इलाक़े में उरांव, मुंडा, संथाल, खेरिया, मधेशिया, मेच, राभा, लेप्चा, लिंबू, तमांग, आदि विभिन्न आदिवासी समूह रहते हैं।

उत्तर बंगाल को अपने दक्षिण-पूर्वी क्षेत्र में मौजूदा शताब्दी के शुरुआती हिस्से में एक और आंदोलन का सामना करना पड़ा था। इस आंदोलन की शुरुआत 1998 में हुई थी। ग्रेटर कूच बिहार पीपुल्स एसोसिएशन ने अपना पहला ज्ञापन 26 अक्टूबर, 1998 को कूचबिहार के ज़िला मजिस्ट्रेट और फिर 18 जून, 2000 को केंद्रीय गृह मंत्री को सौंपा था। इस एसोसिएशन का गठन शुरू में कूच बिहार राज परिवार के वंशजों ने किया था और उनकी मांगें मुख्य रूप से कूच बिहार के भारत के डोमिनियन में विलय और एक ज़िले के रूप में पश्चिम बंगाल में इसके विलय से जुड़े मुद्दों से जुड़ी हुई थीं। मैंने ऊपर उसी इतिहास को संक्षेप में रखा है, जिसमें यह उल्लेख किया गया है कि महाराजा ने 9 अगस्त, 1947 को विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर दिये थे और फिर उन्होंने 28 अगस्त, 1949 को विलय समझौते पर हस्ताक्षर कर दिये थे। उस समझौते में नौ अनुच्छेद थे और पहले अनुच्छेद में कहा गया है: " कूचबिहार के महामहिम महाराजा एतद्वारा राज्य के शासन के सम्न्बन्ध में डोमिनियन सरकार को पूर्ण और अनन्य अधिकार, अधिकार क्षेत्र और शक्ति प्रदान करते हैं और 1949 के सितंबर माह की 12 तारीख़ के दिन राज्य के प्रशासन को डोमिनियन सरकार को स्थानांतरित करने के लिए सहमत हैं और उस दिन से डोमिनियन सरकार उक्त शक्ति, अधिकार और क्षेत्राधिकार का प्रयोग इस तरह से और ऐसी एजेंसी के माध्यम से करने के लिए सक्षम होगी, जो वह उचित समझे।"

बाक़ी अनुच्छेद महाराजा, उनके परिवार और राज्य के कर्मचारियों के विभिन्न विशेषाधिकारों और पात्रता से सम्बन्धित हैं। एसोसिएशन ने उस समझौते को चुनौती दी और केंद्र और राज्य सरकारों के विभिन्न इरादों को लेकर आशंका जतायी। उन्होंने दावा किया कि डॉ. बिधान चंद्र रॉय ने ताक़त के ज़ोर पर उस राज्य को पश्चिम बंगाल में मिला दिया था; एसोसिएशन ने कूचबिहार को 'सी' श्रेणी के राज्य के रूप में दर्जा दिये जाने को भी ग़लत माना। उन्होंने उस समझौते के उचित रूप से लागू किये जाने की मांग की, जिसमें उनका दावा था कि इतिहास, साहित्य, संस्कृति, शिक्षा, स्वास्थ्य, भोजन, कूचबिहार के लोगों के आश्रय को लेकर जतायी गयी प्रतिबद्धता और आश्वासन शामिल थे। उन्होंने इस क्षेत्र के ग़रीब, अनपढ़, आधे साक्षर लोगों को गुमराह करने के सिलसिले में पैम्फ़लेट, पर्ची और बैठकों के ज़रिये इस आशय का व्यापक प्रचार किया। इसे लेकर उन्होंने स्थानीय लोगों के मनोभावों और भावनाओं का इस्तेमाल किया। जब कुछ अर्ध-साक्षर अवसरवादी लोगों ने इसका नेतृत्व अपने हाथ में ले लिया,तब इस संगठन ने बाद में हिंसा और आतंकवाद का सहारा लेना शुरू कर दिया। उन्होंने इस क्षेत्र में कुछ उपद्रव और अशांति पैदा कर दी। बंशी बदन रॉय और इस एसोसिएशन की एक शाखा के कुछ अन्य लोगों को गिरफ़्तार कर लिया गया था।

कूचबिहार के स्वयंभू महाराजा, लेकिन कथित तौर पर असम में तैनात केंद्र सरकार के एक उपक्रम का ग्रुप-डी कर्मचारी अनंत महाराज असम भाग गया। अनंत महाराजा आले दर्जे का धोखेबाज़ है। कूचबिहार और निचले असम के विभिन्न स्थानों पर आयोजित सभाओं से उसने लोगों की भावनाओं का इस्तेमाल करते हुए आम लोगों के उपयोग के लिए बनाये जाने वाले महल के निर्माण के लिए भारी मात्रा में पैसे इकट्ठे किये। किसी क़िले के बजाय उसने वास्तव में एक महल जैसी इमारत का निर्माण किया है, और इसे अपने निवास के रूप में इस्तेमाल करता है। जेल से छूटने के बाद बंशी बदन रॉय ने टीएमसी से हाथ मिला लिया है और इसी के साथ आंदोलन संभवत: ख़त्म हो गया है।

यह सब तर्क उत्तर बंगाल को एक अलग राज्य बनाये जाने के दावों के पक्ष में दिया जा रहा है। सचाई तो यही है कि सुभाष घिसिंग के नेतृत्व में चले गोरखालैंड आंदोलन को छोड़कर बाक़ी कोई भी आंदोलन शायद ही अपना कोई असर छोड़ पाया है। घिसिंग कम से कम अपने पहाड़ी लोगों की आशाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए एक स्वायत्त निकाय को हासिल कर पाने में सफल रहे। उनके उत्तराधिकारी-बिमल गुरुंग, बेनॉय तमांग और उनके अनुयायियों के पास उनकी तरह का व्यक्तित्व और क्षमता नहीं है और इसलिए उनके पास राजनीतिक दलों, ख़ासकर भाजपा और टीएमसी की कठपुतली बनने के अलावा और कोई विकल्प ही नहीं है। केपीपी और (जीसीपीए के रूप में जाना जाता) जीकेपीए  ने राज्य सरकार और कोलकाता स्थित नेताओं की वजह से वंचना, उपेक्षा, शोषण के शिकार हुए लोगों की भावनाओं को हवा देने के मक़सद से इतिहास, भाषा और संस्कृति के विकृत विचारों को अपनाया और अपने ही लोगों को धोखा दिया। ज़ाहिर है,नतीजा वही निकला,जिसकी आशंका थी,यानी पूरी तरह से विफलता। यहां मैं ज़ोर देकर कहना चाहूंगा कि अलग उत्तर बंगाल राज्य का विचार बिल्कुल भी संभव नहीं है। सवाल है कि पहले से स्थापित कारणों के अलावा बाक़ी किन कारणों से दो दिनाजपुर और मालदा ज़िले गोरखालैंड या कामतापुर या ग्रेटर कूच बिहार को मंज़ूर करें, जबकि उनका अपना गौरवशाली अतीत रहा है,दिनाजपुर का अतीत बरेंद्र भूमि से जुड़ा है और मालदा का अतीत गौड़ शासन के इतिहास से जुड़ा है ? सचाई तो यही है कि इन तीन जिलों-राजबंशी, पान, पोलिया के मूल निवासियों के भीतर कथित कामतापुर को लेकर बहुत ही लेशमात्र भावनायें हैं।

अगर ऐसा है, तो सवाल पैदा होता है कि एक कमज़ोर स्वर का असर इतना ज़्यादा कैसे दिखायी दे रहा है ? मेरे ख़्याल से यह तो महज़ एक खेल है, जिसे खेला जा रहा है। पश्चिम बंगाल में हालिया विधानसभा चुनाव में पूरी तरह से विफलता का स्वाद चखने वाली अति ब्राह्मणवादी पार्टी भाजपा की तरफ़ से पेश किया गया यह एक ऐसा गेम प्लान भी हो सकता है, जिसका मक़सद ममता बनर्जी के लिए समस्यायें पैदा करना हो सकता है। दरअस्ल यह मांग अपने ही समुदाय के मंच आदिवासी विकास परिषद को छोड़कर भाजपा में शामिल हुए मुंडा जनजाति के अलीपुरदुआर सांसद जॉन बारला ने उठायी है। यह व्यक्ति अपनी ख़ुद की जनजाति के विकास को लेकर भी कभी मुखर नहीं रहा है। बारला को अब केंद्रीय मंत्रालय में पद देकर पुरस्कृत किया गया है। जिस तरह से पार्टी ने गोरखाओं से गोरखालैंड का वादा किया था और इस संसदीय क्षेत्र में जीत हासिल की थी,उसी तरह कामतापुरी भाषा को मान्यता देने सहित विभिन्न मुद्दों पर झूठे वादे करके भाजपा कुछ समय से राजबंशी लोगों को लुभाने की कोशिश कर रही है। असम के उत्तम कुमार बर्मन जैसे कामतापुर राज्य के कुछ समर्थक भाजपा में शामिल हो गये हैं। केएलओ के कुख्यात नेता जीबन सिंघा एक बार फिर सामने आया है और उसने कामतापुर की मांगों वाला एक ताज़ा वीडियो जारी कर दिया है। कहा जाता है कि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने उत्तर बंगाल और असम के अपने आख़िरी दौरे के दौरान असम में अनंत महाराज से मुलाक़ात की थी। ऐसे में एक मामूली आदिवासी नेता की ओर से पश्चिम बंगाल को विभाजित करने के लिए उत्तर बंगाल राज्य को बनाने की यह कुलबुलाहट भाजपा की जानबूझकर की गयी साज़िश हो सकती है।

जैसा कि मैंने ऊपर तर्क दिया है कि एक राज्य के रूप में उत्तर बंगाल बनाये जाने का प्रस्ताव व्यावहारिक नहीं है। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को हालांकि बहुत ही फूंक-फूंककर कदम बढ़ाना चाहिए। उन्हें किसी भी ऐसे काम से बचना चाहिए, जो किसी भी स्तर पर केपीपी,जीकेपीए और अन्य विविध तत्वों की गतिविधियों को प्रोत्साहित करे। उन्हें उत्तर बंगाल के सिलसिले में चल रही विकास नीति की भी समीक्षा करनी चाहिए। विभिन्न समुदायों के लिए राजबंशी विकास बोर्ड, तमांग विकास बोर्ड जैसे विकास बोर्डों को स्थापित करने और उन्हें सालाना ख़र्च के लिए कुछ लाख रुपये देने से कुछ ही व्यक्तियों को मदद मिलती है, समुदायों को कोई फ़ायदा नहीं मिलता। उत्तर बंगाल के पहाड़ में बसे लोगों और एससी और एसटी श्रेणियों के हाशिए के लोगों के उत्थान के लिए व्यापक विकास नीति की ज़रूरत है।

डॉ सुखबिलास बर्मा एक सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी और ‘सोशियो-पॉलिटिकल मुवमेंट इन नॉर्थ बंगाल’ के खंड 1 और खंड 2 के संपादक हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

The Feasibility of Bifurcating West Bengal And Creating a Separate State of North Bengal

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