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हिजाब विवादः समाज सुधार बनाम सांप्रदायिकता

ब्रिटेन में सिखों को पगड़ी पहनने की आज़ादी दी गई है और अब औरतें भी उसी तरह हिजाब पहनने की आज़ादी मांग रही हैं। फ्रांस में बुरके पर जो पाबंदी लगाई गई उसके बाद वहां महिलाएं (मुस्लिम) मुख्यधारा से गायब हो गईं।
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कर्नाटक हाई कोर्ट में लंबित हिजाब विवाद पर मौलिक अधिकारों के संदर्भ में क्या निर्णय आता है यह तो देखा जाना है लेकिन इसी संदर्भ में मार्च 2011 में इंडिया टुडे कान्क्लेव की एक बहस प्रासंगिक है। बहस का विषय था क्या बुरका और बिकनी एक साथ रह सकते हैं ?  इस बहस में हिस्सा लेते हुए मशहूर नारीवादी लेखिका जरमेन ग्रीयर ने कहा न तो बुरका दमन का प्रतीक है और न ही बिकनी मुक्ति का प्रतीक है। वे दोनों एक साथ रहे हैं और आगे भी रहे हैं। वे अपने समय से खत्म हो जाएंगे। बिकनी जिसे मुक्ति का प्रतीक कहा जाता है वह वास्तव में वैसी नहीं है।

ग्रीयर का कहना था कि बिकनी वास्तव में महिलाओं को बदरूप करने वाला परिधान है। 99 प्रतिशत महिलाएं उसमें भयानक लगती हैं। वे इस बात को जानती भी हैं। क्योंकि महिलाओं का निचला हिस्सा(नितंभ) भारी होता है। लेकिन बुरके में वैसा नहीं दिखता। जरमेन ग्रीयर का कहना था कि आप किसी को डंडे के जोर पर मुक्त नहीं कर सकते। ब्रिटेन में तमाम लड़कियां बुरका पहनने की ओर बढ़ रही हैं। उन लड़कियों का कहना है कि वे बुरके में ज्यादा मुक्त महसूस करती हैं। क्योंकि ऐसे में मर्द उन्हें घूर नहीं पाते। बुरके के पीछे का इतिहास यही है।

ग्रीयर ने कहा था कि आधुनिकीकरण का मतलब अपने को बेचना नहीं है। बल्कि उसका मतलब यह है कि हमें अपनी पसंद की चीज हासिल करने की आजादी होनी चाहिए। मुक्ति का मतलब कपड़े उतार देने में नहीं है। ब्रिटेन में सिखों को पगड़ी पहनने की आजादी दी गई है और अब औरतें भी उसी तरह हिजाब पहनने की आजादी मांग रही हैं। फ्रांस में बुरके पर जो पाबंदी लगाई गई उसके बाद वहां महिलाएं (मुस्लिम) मुख्यधारा से गायब हो गईं।

इसी कार्यक्रम में पाकिस्तानी लेखिका फातिमा भुट्टो ने कहा था कि हिजाब महिलाएं अपनी मर्जी से पहनती हैं। पाकिस्तान में ज्यादा औरतें सिर ढक कर रखती हैं क्योंकि वे चाहती हैं कि उनकी परंपरा कायम रहे। वे हिजाब पहन कर राजनीतिक मुद्रा अपनाती हैं क्योंकि बुरका प्रतिरोध का प्रतीक है। बुरका बंद दिमाग का प्रतीक नहीं है। बल्कि एक वैकल्पिक नजरिया है। उनका कहना था कि बुरके के खिलाफ कड़ी प्रतिक्रिया वे जताते हैं जिन्होंने इसे कभी पहना नहीं है।

जिस भारत के मीडिया में बुरका और बिकनी पर इतनी बारीक बहसें होती रही हैं वहां आज हिजाब और बुरके के साथ शिक्षा के अधिकार पर एक तरह के युद्ध की दस्तक हो रही है। एक ओर शाहबानो विवाद में अपनी राजनीति को संघ परिवार की ओर मोड़ देने वाले केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान कह रहे हैं कि यह कोई विवाद ही नहीं है बल्कि मुस्लिम महिलाओं को घर की चहारदिवारी में बंद रखने की एक सोची समझी साजिश है। उन्होंने कहा कि यदि वह विश्वविद्यालय में हिजाब पहनेंगी तो कैसी कंपनियां उन्हें प्राथमिकता देंगी ? इससे तो महिलाएं अपनी शिक्षा और करियर को आगे नहीं बढ़ा पाएंगी। दूसरी ओर एआईएमआईएम के प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी ने हिजाब पहनकर स्कूल कालेज जाने को जायज ठहराते हुए कहा कि एक दिन हिजाब पहनने वाली महिला देश की प्रधानमंत्री बनेगी। उधर जम्मू और कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने कहा कि भाजपा सिर्फ हिजाब पर नहीं रुकेगी। वह मुसलमानों के और धार्मिक चिह्नों को निशाना बनाएगी।

पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला ने कहा कि प्रत्येक व्यक्ति  अपनी इच्छा के अनुसार पहनने, खाने और धार्मिक मान्यताओं के पालन को स्वतंत्र है। कुछ कट्टरपंथी तत्व चुनाव जीतने के लिए एक धर्म पर हमला कर रहे हैं।

कर्नाटक के मांड्या में बीबी मुस्कान ने हिजाब उठाकर जिस तरह से भगवा दुपट्टा डाले और `जयश्रीराम’ का नारा लगा रहे युवाओं को `अल्लाह हू अकबर’ का नारा लगाकर जवाब दिया उससे वह इस्लामी अस्मिता और स्वाभिमान के लिए लड़ने वाली अंतरराष्ट्रीय प्रतीक बन गई है। भारत परेशान है कि इसे अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बनाया जा रहा है और देश के आंतरिक मामलों में दखल दिया जा रहा है। बीबी मुस्कान कह रही है कि इस घटना से एक ओर उसके तमाम हिंदू साथी उससे दूर चले गए हैं तो दूसरी ओर दूसरे कई साथी उसका समर्थन कर रहे हैं।

इस घटना ने एक ओर फिर से 1985 के शाहबानो मामले के ऐतिहासिक प्रकरण की याद ताजा कर दी है तो दूसरी ओर इसने किसान आंदोलन के माध्यम से बनी हिंदू मुस्लिम एकता में दरार डालने की कोशिश की है। जयश्रीराम का नारा लगा रहे आक्रामक हिंदुत्ववादी युवाओं के विरुद्ध बीबी मुस्कान की तनी हुई मुट्ठी ने निश्चित तौर पर एक अलग आख्यान रचा है और उसके माध्यम से उस एकता को कमजोर करने का प्रयास चल रहा है जिसे मुजफ्फरनगर में  `हर हर महादेव’ और `अल्लाह हू अकबर’ का नारा एक साथ लगाकर कायम करने का प्रयास किया गया था।

लेकिन कर्नाटक के हिजाब विवाद में प्रगतिशील खेमा भी बंटा हुआ है। एक ओर तमाम ऐसे संगठन और नागरिक हैं जो मानते हैं कि यह विवाद बहुसंख्यक सांप्रदायिकता की ओर से खड़ा किया गया है और इस मामले में मुस्लिम लड़कियों का साथ देना चाहिए। दूसरी ओर ऐसे प्रगतिशील लोग हैं जो कह रहे हैं कि ऐसा ही तर्क उस समय भी दिया गया था जब 1987 में राजस्थान के सीकर जिले के देवराला गांव में रूपकंवर नाम की युवती सती हो गई थी। तब भी कहा गया था वह अपनी इच्छा से सती हुई है। हिजाब विवाद से खेल रही बहुसंख्यक सांप्रदायिकता इन प्रगतिशीलों को अपने पक्ष में इस्तेमाल कर रही है।

इस विवाद पर यह भी कहने वाले हैं कि यह भाजपा और ओवैसी की मिली भगत है ताकि किसान आंदोलन के बहाने जो ठोस आर्थिक और राजनीतिक मुद्दे राजनीति के केंद्र में आए हैं उनकी जगह पर फिर सांस्कृतिक और धार्मिक मुद्दों की ओर राजनीति को मोड़ा जा सके। वजह साफ है कि पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी की स्थिति ठीक नहीं है। उसे हर तरफ से चुनौती मिल रही है और उत्तर प्रदेश जैसे विशाल राज्य में उसकी सत्ता में लौटने की गारंटी नहीं है।

निश्चित तौर पर कट्टरता एक सामाजिक मनोवृत्ति है जिसकी जड़ें धर्म में हैं। कट्टरता से लड़ना हर उदार औऱ लोकतांत्रिक नागरिक का फर्ज है। यही आधुनिकता है लेकिन यह लड़ाई आधुनिक ही नहीं प्राचीन और मध्य सभी युगों में रही है। पर कट्टरता अपने में सांप्रदायिकता नहीं है। वह संप्रदाय के हितों की गलत तरीके से चिंता कही जा सकती है। लेकिन वह सांप्रदायिकता का रूप तब ले लेती है जब अपने धर्म की कट्टरता को बचाने और दूसरे धर्म की कट्टरता को मिटाने का प्रयास किया जाता है। पिछले 35 वर्षों में शाहबानो प्रकरण इसका सबसे ताजा उदाहरण है। शाहबानो प्रकरण में अपने समाज के कट्टरपंथी तबके पर कठोर हमला करके आरिफ मोहम्मद खान प्रगतिशील तबके के नायक बन गए थे। लेकिन राजीव गांधी की सरकार ने कट्टरपंथी तबके के दबाव में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने वाला विधेयक संसद में पेश किया तो वे अलग थलग पड़ गए। बाद में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने उन्हें लपक लिया।

इस पेच को बारीकी से समझना होगा। कहा जाता है कि अगर राजीव गांधी की सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति वाई. वी. चंद्रचूड़ के फैसले को पलटने वाला कानून न बनाया होता तो संघ परिवार को मंदिर आंदोलन तेज करने और देश के माहौल को सांप्रदायिक बनाने का मौका न मिलता। लेकिन यह बहुत सतही तर्क है। सांप्रदायिक और फासीवादी लोग देश के माहौल को बिगाड़ कर अपनी ताकत बढ़ाने के लिए सैकड़ों बहाने तलाश लेते हैं। अल्पसंख्यक समाज तो उनका शत्रु होता ही है और वे उनके खान-पान, रहन-सहन, बोली-भाषा और नमाज-मस्जिद जैसे तमाम विवादों की एक लंबी फेहरिस्त अपने पास रखते हैं। वे जानते हैं कि कब किस विवाद को गरमाकर समाज में तनाव पैदा किया जाता है और कैसे एक समुदाय विशेष को जाहिल और शत्रु बताकर उस पर हमला किया जाता है।

तमाम प्रगतिशील लोग तर्क दे रहे हैं कि महात्मा गांधी ने भी परदा प्रथा के विरुद्ध तर्क दिया था इसलिए हिजाब पर प्रतिबंध सही है। वे ऐसा कहते हुए भूल रहे हैं कि महात्मा गांधी कोई भी काम बलपूर्वक और जबरदस्ती किए जाने के खिलाफ थे। उनके लिए सबसे पहले किसी का हृदय परिवर्तन किया जाना था। लेकिन इसके अलावा उनका यह भी सुझाव था कि हर धर्म के सदस्य को अपने भीतर सुधार करने का प्रयत्न करना चाहिए। जब भीतर से सुधार की आवाज उठेगी तो एक मजबूत जनमत बनेगा और सुधार किए जाने में सुविधा होगी। जब भी किसी दूसरे धर्म के लोग सुधार के लिए हस्तक्षेप करेंगे तो माहौल बिगड़ेगा और शत्रुता का भाव पैदा होगा।

संघ परिवार के लोग मुस्लिम धर्म की कमियों पर काफी शोध करते हैं और उसका काफी प्रचार भी करते हैं। इस दौरान वे हिंदू धर्म की कमियों को अच्छाई के रूप में पेश करते हैं और उस पर उंगली उठाने वालों को हिंदू धर्म, देश और राष्ट्र का शत्रु बताते हैं। उनकी रणनीति यही है कि इस्लाम की कमियों को गिनाकर और उन्हें कट्टरपंथी साबित करके यह दलील दी जाए कि जब इस्लाम में सुधार नहीं हो रहा है तो हिंदू धर्म में क्यों सुधार किया जाए। 

यह सही है कि हिजाब चीन, श्रीलंका जैसे एशियाई देशों समेत फ्रांस, आस्ट्रिया, स्विटजरलैंड, डेनमार्क, हालैंड, बेल्जियम में प्रतिबंधित है। लेकिन भारत में इस मुद्दे पर उठने वाले विवाद और उसके परिणामस्वरूप लगने वाले प्रतिबंध को अकेले नहीं देखा जा सकता। उसके पीछे अल्पसंख्यक समाज को दरकिनार किए जाने की व्यापक रणनीति पर भी गौर करना होगा। हिजाब प्रतिबंध को लव जिहाद, धर्मांतरण पर लगने वाली रोक और गोरक्षा पर बनने वाले कानूनों और मॉब लिंचिंग के संदर्भ में देखा जाना चाहिए। धर्मांतरण पर रोक के बहाने कई राज्यों की भाजपा सरकारों ने हिंदू मुस्लिम समुदाय के बीच होने वाले विवाहों को संदेह के घेरे में ला दिया है। जबकि अंतरधार्मिक विवाहों की संख्या एक प्रतिशत से भी कम है। भाजपा ने उत्तर प्रदेश में अपने संकल्प पत्र में एलान किया है कि अगर वह सत्ता में आई तो लव जिहाद के लिए न्यूनतम दस साल की सजा करेगी। इस तरह से हिंदू और मुस्लिम समाज के भीतर मेल मिलाप और सौहार्द की जो न्यूनतम गुंजाइश रहती है उसे भी खत्म किया जाने का संकल्प प्रकट किया गया है।

हिजाब विवाद के माध्यम से एक ओर मुस्लिम लड़कियों को शिक्षा के आधुनिक इदारों से बाहर किए जाने की कोशिश है और दूसरी ओर हिंदू और मुस्लिम युवाओं के भीतर अगर कहीं सौहार्द बनता दिख रहा है तो उसे नष्ट करना है। वे लोग नासमझ है जो कहते हैं कि भाजपा और संघ परिवार के लोग ऐसा महज चुनाव जीतने के लिए करते हैं। चुनाव जीतना तो उनकी तात्कालिक रणनीति है। हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच स्थायी किस्म का वैमनस्य कायम रखना और विभाजन की खाई को निरंतर चौड़ी करते रहना उनकी स्थायी रणनीति है।

लेकिन इन तमाम खतरनाक किस्म के उकसावे को संवैधानिक संस्थाएं रोक सकती हैं। उन्हें भारत की सामाजिक एकता के संदर्भ में इस विषय पर निर्णय लेना चाहिए। विडंबना देखिए कि स्वयं मुख्यमंत्री जैसे संवैधानिक पद पर भगवा जैसे धार्मिक वस्त्र धारण करके विराजमान होने वाले उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री दावा कर रहे हैं कि देश संविधान से चलेगा शरीयत से नहीं। आखिरकार शरीयत अधिनियम यानी निजी कानूनों की इजाजत और अल्पसंख्यकों को धार्मिक आजादी देने, अपनी संस्कृति की रक्षा करने का अधिकार तो संविधान ने ही दिया है। लेकिन इस दौरान अल्पसंख्यक समुदाय को भी बेहद जिम्मेदारी से व्यवहार करना चाहिए। वे अपने भीतर चल रहे सुधार के आंदोलनों को जारी रखकर प्रकट कर सकते हैं और अपनी उदारता को नष्ट होने से बचा सकते हैं। उन्हें  इस्लाम और सांप्रदायिक शक्तियों के दबाव में तालिबान बनने से हर हाल में बचना होगा। क्योंकि वह रास्ता और भी खतरनाक है।

इस्लामी नारीवाद एक वैश्विक आंदोलन है। वह 19वीं सदी के आरंभ से ही चल रहा है। उनका दावा है कि वह सेक्युलर नारीवाद से ज्यादा रेडिकल है। वे परदे को चुनौती दे रही हैं, वे शिक्षा पर जोर दे रही हैं, वे साहित्य रच रही हैं। वे उसकी सजा भी भुगत रही हैं और तमाम तरह के प्रतिबंधों का सामना कर रही हैं। लेकिन उनकी अपनी गति और व्याख्याएं हैं। वह यूरोप से अलग है। वे साम्राज्यवादी साजिशों को भी बेनकाब करती हैं।

अफगानिस्तान से संबंधित रावा संगठन एक स्वतंत्र रुख अपनाता है। वे कुरान और शरीयत के आधार पर ही यह सिद्ध करते हैं कि इस्लाम ने औरतों को काफी आजादी दी है। वास्तव में कट्टरपंथी पितृसत्ता उसकी व्याख्या गलत करती है। आज जरूरत इस्लाम की नारीवादी व्याख्या करने की है। इस्लामी कट्टरपंथ से बाहर निकलने का रास्ता उसी से निकलेगा न कि बहुसंख्यकवाद के पाखंडी सुधारों से। क्योंकि पाखंडी सुधारों से तो सांप्रदायिकता निकलती है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)  

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