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प्रशांत किशोर के तौर-तरीक़ों में मौजूद खामियां

'... किशोर की भूमिका अगर बढ़ती है और भूमिका ज़्यादा असरदार होती है, तो यह स्थिति पार्टियों और उसके नेताओं के खोखलेपन, आलस्य को दूर करने में उनकी अक्षमता और सत्ताधारी पार्टी के लिए मजबूत और गंभीर चुनौती के रूप में कार्य करने में उनकी असमर्थता का संकेत होगी।'
प्रशांत किशोर के तौर-तरीक़ों में मौजूद खामियां

विपक्षी दल और हर पार्टी के नेता का चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर से मिलना-जुलना सभी ग़ैर-भाजपा दलों के बीच बढ़ती उस भावना को दर्शाता है कि भगवा पार्टी को उसकी शैली या वैचारिक आधार पर चुनावों में तो नहीं हराया जा सकता।

उनके कांग्रेस में शामिल होने की मौजूदा अटकलें सही साबित होती हैं या नहीं, इससे यह बात और साफ हो जायेगी कि भारतीय चुनावी राजनीति के साथ किशोर किस हद तक जुड़ पाते हैं।

मैं 'चुनावी राजनीति' शब्द का इस्तेमाल इसलिए कर रहा हूं, क्योंकि किशोर के मामले में शासन और व्यावहारिक राजनीति के बीच अंतर करना होगा। जहां शासन या तो सरकार या उसके प्रतिस्पर्धियों में से किसी की विचारधारा,या कम से कम नीतियों और कार्यक्रमों पर आधारित होता है,वहीं व्यावहारिक राजनीति पूरी तरह से सत्ता की तलाश और चुनाव जीतने की इच्छा से प्रेरित होती है।

आने वाले दिसंबर माह में भारतीय राजनीतिक और चुनावी रंगमंच में किशोर की मौजूदगी का एक दशक पूरा हो जायेगा। इस समय की भाजपा विरोधी ग़ैर-वामपंथी दलों का इस लिहाज़ से जायज़ा लेने का एक मौक़ा है कि क्या सिद्धांत अब पहले के मुक़ाबले कम मायने रखते हैं। इसे जानने का दूसरा तरीक़ा यह भी है कि उनका भाजपा को लेकर जो विरोध है,वह वैचारिक कारणों से है, या फिर सत्ता के बियावान से सत्ता तलाशने की वजह से है ?

दिसंबर 2011 में किशोर शुरुआत में ढीले-ढाले तरीक़े से उस 'रणनीति-सह-प्रचार-सह-मार्केटिंग' टीम का हिस्सा बन गये थे, जिसने भारतीयों को 'मोदी के विचार' को 'बेचने' वाली ताक़त से हाथ मिला लिया था। ये कोशिशें सफल रहीं, क्योंकि इसी साल मोदी की उस शख़्सियत के 10 साल पूरे हो गये हैं, और जिसके लिए मोदी जाने जाते हैं, मोदी की वही शख़्सियत भारतीय राजनीतिक की बहस का केंद्रीय विषय बन गयी है।

किशोर सार्वजनिक स्वास्थ्य की पूरी तरह से कटी हुई दुनिया के उस क्षेत्र से अवतरित हुए थे, जिसमें उन्होंने कथित तौर पर संयुक्त राष्ट्र से जुड़े एक पदाधिकारी के रूप में अपनी पहचान बनायी थी। वह कई अन्य लोगों के विपरीत अंधानुकरण में इस विश्वास के साथ मोदी की टीम में शामिल नहीं हुए थे कि मोदी ही वह शख़्स हैं, जिसकी भारत को ज़रूरत है।

किशोर के लिए तो मोदी के उस अभियान में अग्रणी भूमिका निभाना अपने कौशल का प्रदर्शन करने का एक मौक़ा भर था। उन्हें उम्मीद थी कि इस वजह से वह अपना प्रभाव हासिल कर लेंगे। किशोर ने इस बात की कल्पना की थी कि अगर वह मोदी को कामयाबी के साथ साउथ ब्लॉक पहुंचा सके,तो वह मोदी के लिए अपरिहार्य हो जायेंगे, और सत्ता-संरचना का हिस्सा बन जाएंगे।

जिस तरह से किशोर ने इसकी पटकथा लिखी थी, सब कुछ वैसा ही नहीं हुआ। जीत हासिल करने के बाद मोदी ने अमित शाह को एक तक़रीबन निष्क्रिय (और उनके प्रतिकूल) पार्टी मशीनरी के पुनर्निर्माण का प्रभार सौंप दिया था। शाह का व्यक्तिगत रूप से उनके प्रति वफ़ादार समानांतर संरचना स्थापित करने में किशोर को सक्षम बनाने का कोई इरादा नहीं था और ख़ुद शाह के प्रति जवाबदेह बनाने का भी इऱादा नहीं था

अब तक उस जनता दल (यूनाइटेड) में अपने संक्षिप्त कार्यकाल को छोड़कर किशोर सभी चुनावों में एक 'बाहरी' तत्व ही बने रहे हैं, जिसमें वह शामिल थे। लेकिन, अगर वह औपचारिक रूप से कांग्रेस पार्टी में शामिल हो जाते हैं और उन्हें किसी 'पद' पर नियुक्त कर दिया जाता है, तो वे वास्तविक राजनीति की दुनिया में दाखिल होने वाले पहले व्यक्ति होंगे,जिसका सीधे-सीधे अबतक राजनीति से कोई लेना-देना नहीं रहा है।

ऐतिहासिक रूप से जो लोग राजनीतिक दुनिया में पैदा नहीं हुए हैं, वे या तो किसी अग्रिम संगठन या पार्टी में शामिल होने के बाद, या फिर दूसरों को लांघते हुए आगे बढ़कर राजनीतिक दलों के पदों की सीढ़ी पार करते हुए आगे बढ़े हैं। जवाहरलाल नेहरू की सरकार में भी पार्श्व (ग़ैर-राजनीतिक) रूप से दाखिल होने वाले जॉन मथाई थे,जो 1950 से पहले पहले रेलवे मंत्री थे और फिर वित्त मंत्री बने थे। लेकिन, शासन के मामलों तक उनकी मौजूदगी सीमित ही थी। यह प्रवृत्ति बाद में भी जारी रही, इसका सबसे मशहूर उदाहरण मनमोहन सिंह थे, जो न केवल वित्त मंत्री बने, बल्कि पार्टी के भीतर भी आए, सोनिया गांधी के वफादार बन गए, जिन्हें अंततः प्रधान मंत्री नामित किया गया।
लेकिन,जैसी कि उम्मीद की गयी थी सिंह एक 'शो-पीस' ही बने रहे,उन्होंने शायद ही कभी 'राजनीतिक लक्षमण रेखा' पार की हो, उन्होंने अपना ध्यान शासन पर केंद्रित किया और कुछ 'सरकार से बाहर' के विचारों के कार्यान्वयन पर भी उन्हें ध्यान केंद्रित करना पड़ता था,जिससे वह कभी-कभी परेशान रहते थे।

2014 में मोदी खेमे से निकल जाने के बाद एक दूसरे के विरोध रहे लालू यादव और नीतीश कुमार की बीच 2015 में विधानसभा चुनावों को लेकर गठबंधन कराने से लेकर ममता बनर्जी के साथ अपने नवीनतम कार्यकाल तक किशोर ने आगे बढ़ते हुए कई तरह की राजनीतिक भूमिका निभायी है। भले ही किशोर कांग्रेस का हिस्सा बनें या 'बाहरी' बने रहें,लेकिन उनकी गतिविधियों में अगले तीन सालों (2024 तक) में काफ़ी वृद्धि होने की संभावना है।

इससे पहले भी प्रचार के लिए पेशेवर एजेंसियों को आउटसोर्स किया जाता रहा है, इसका सबसे जाना माना उदाहरण तो ख़ुद राजनीव गांधी हैं,जिन्होंने 1984 में ऐसी ही एक एजेंसी को हायर किया था। विज्ञापन एजेंसियां बाज़ार की एक जरूरत होती हैं और ऐसी सेवाओं को हायर करना सही मायने में राजनीतिक दलों के अपर्याप्त संचार और प्रचार कौशल में कमी की एक स्वीकारोक्ति है। किसी एजेंसी के लिए अलग-अलग पार्टियों के लिए अभियान चलाना तो पूरी तरह से समझ में आता है, हालांकि साथ ही नैतिक आधार पर इसे ठीक नहीं माना जा सकता।

लेकिन, 2011 के बाद से किशोर ने पार्टियों और नेताओं के लिए संचार और प्रचार के प्रबंधन के अलावा भी बहुत कुछ किया है। उन्होंने सलाहकार के रूप में भी काम किया है, सलाहकार का पद एक ऐसा पद होता है, जिसकी सिद्धांतों, कार्यक्रमों और नेता या उस पार्टी के विश्व दृष्टिकोण की बुनियादी सहमति को लेकर एक पूर्व धारणा होती है। इसके बावजूद, किशोर पूरी तरह से राजनीतिक मामलों पर सलाह देते हुए बेहिचक एक 'ग्राहक' पार्टी से दूसरी पार्टी में चले जाते रहे हैं।

किसी पार्टी के लिए अभियान चलाने वाली विज्ञापन एजेंसी वैचारिक रूप से अज्ञेयवादी रह सकती है। लेकिन, सवाल है कि राजनीतिक रणनीति और कार्यक्रम से जुड़ी स्थिति पर कोई सलाहकार या परामर्शदाता इस तरह अज्ञेयवादी बना रह सकता है? जिन पार्टियों के लिए चुनाव जीतना ही मायने रखता है,उन राजनीतिक दलों और नेताओं का किशोर की ओर रुख करना सही मायने में विपक्षी स्पेस में आदर्शवाद के पतन का संकेत है।

किशोर 2011 में जब मोदी के साथ शामिल हो गये थे, तो उनका एक स्पष्ट दृष्टिकोण था और वह एक विचार का प्रतिनिधित्व करते थे। दूसरों के साथ किशोर का काम भारतीयों को यह विश्वास दिलाने में भूमिका निभाना था कि उस विचार को ज़मीन पर उतारने का समय आ गया है। मोदी को यह सलाह देने में उनकी कोई भूमिका नहीं थी कि मोदी को क्या बोलना है, या यह तय करने में भी उनकी कोई भूमिका नहीं थी कि उन्हें कब सख़्त होना है, और कब उनके लिए संयम का कोई सुर छेड़ देना आवश्यक है।

लेकिन,मोदी के उलट दूसरे नेताओं ने किशोर को या तो ख़ुद को एक राजनीतिक 'उत्पाद' बनाने या फिर अपना चेहरा चमकाने को लेकर नियुक्त किया है। पिछले सात वर्षों में पुलवामा आतंकी हमले से पहले की छोटी सी अवधि को छोड़कर विपक्ष ख़ुद को राष्ट्रीय स्तर के विकल्प के रूप में स्थापित कर पाने में नाकाम रहा है।

2024 में होने वाले चुनाव में अब तीन साल बाक़ी हैं, इस अवधि में एक पार्टी, या कई पार्टियां मिलकर सिर्फ़ संरचनात्मक परिवर्तन और गठबंधन बनाकर ख़ुद को एक विश्वसनीय चुनौती के रूप में पेश नहीं कर सकती हैं। इसके बजाय, वे पहले लोगों को इस शासन की नीतियों की रचनात्मक आलोचना प्रस्तुत करके मोदी के विकल्प के रूप में ज़रूर उभर सकती हैं। इसके लिए उनके पास वैकल्पिक व्यापक दृष्टिकोण वाली एक सुनियोजित योजना होनी चाहिए और भविष्य के लिए उन्हें एक ऐसा नज़रिये के साथ सामने आना होगा, जो मोदी के नज़रिये से अलग हो।

किशोर की भूमिका अगर बढ़ती है और भूमिका ज़्यादा असरदार होती है,तो यह स्थिति पार्टियों और उसके नेताओं के खोखलेपन, आलस्य को दूर करने और सत्ताधारी पार्टी के लिए मज़बूत और गंभीर चुनौती के रूप में कार्य करने में उनकी असमर्थता का संकेत होगी।
किशोर और इसी तरह के पेशेवरों के पास निश्चित रूप से निभाने के लिए भूमिका तो है, लेकिन यह भूमिका पूरी तरह से पार्टी को महज़ बढ़ाने वाले ताक़त के रूप में है। पार्टियां यह समझने के लिए उन पर निर्भर हैं कि कौन सा 'उत्पाद' संभवतः 'बिकेगा', और फिर उसी तरह के उत्पाद में ख़ुद के 'ढल जाने' का मतलब तो राजनीतिक खेल के मैदान में सीमित वैचारिक क्षेत्र की गुंज़ाइश होने के नाते भाजपा की विशेषताओं को ही स्वीकार कर लेने जैसी बात होगी। फिर तो यह उनके दिवालियेपन और मोदी-भाजपा-आरएसएस गठबंधन की उस सफलता को ही रेखांकित करता है, जो इस राजनीतिक व्यवस्था को बहुसंख्यकवाद की ओर ले जाएगा।

(लेखक एनसीआर स्थित लेखक और पत्रकार हैं। इन्होंने कई किताबें लिखी हैं,जिनमें 'द आरएसएस: आइकॉन्स ऑफ द इंडियन राइट' और 'नरेंद्र मोदी: द मैन, द टाइम्स' शामिल हैं। इनका ट्विटर अकाउंट @NilanjanUdwin है।इनके विचार व्यक्तिगत हैं।)

अंग्रेजी में मूल रूप से प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

The Inherent Problem with Prashant Kishor's Methods

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