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मुंबई के अंबेडकरनगर के निवासियों का विलाप: 'कोरोना से पहले तो हमें बारिश ही मार डालेगी'  

बारिश के बाद पानी की बहाव के दबाव के कारण इलाक़े में दीवार ढहने, घरों के बह जाने और 31 लोगों की मौत के दो साल बाद भी प्रभावित लोगों को आज भी अपने पुनर्वास का इंतज़ार है।
मुंबई के अंबेडकरनगर के निवासियों का विलाप: 'कोरोना से पहले तो हमें बारिश ही मार डालेगी'  

मुंबई के अंबेडकरनगर में जैसे ही आप दाखिल होते हैं,आपको दो साल पहले पानी की तेज़ धार से दीवारों के दरकने के निशान दिखायी देते हैं। नाले के दोनों ओर कचरे नज़र आते हैं और उसके चारों ओर सूअरों का झुंड दिखायी देता है।

मलाड स्टेशन से तक़रीबन 3 किमी और नज़दीकी पक्की सड़क से 1.5 किमी की दूरी पर स्थित अंबेडकरनगर तक पहुंचने के लिए अलग-अलग तरह और बदबू से बजबजाते नालों से गुज़रना होता है। अम्बेडकरनगर और पिंपरीपाड़ा अपने आप में छोटी-छोटी बस्तियों से बने गांवों की तरह दिखते हैं। बांस, कबाड़, गत्ते आदि से बनी दस-बारह झोपड़ियों से एक बस्ती बनती है।

गोविंद कदम इन्हीं झोपड़ियों में से एक झोपड़ी में अपने परिवार के साथ रहते हैं और बतौर सुरक्षा गार्ड काम करते हैं,उनकी आवाज़ में बेबसी से भरा हुआ ग़ुस्सा है,वह कहते हैं, "कोरोना से पहले तो हमें बारिश ही मार डालेगी। हम कोरोना की परवाह नहीं कर सकते, क्योंकि हमारे सिर पर तो छत ही नहीं है।"

1 जुलाई 2019 को पानी के तेज़ बहाव के दबाव से पहाड़ी ढलान पर स्थित एक दीवार ढह गयी थी और इसमें दबकर 31 लोगों की जान चली गयी थी। जब आम लोगों का दबाव बढ़ा,तो सरकार को लोगों के पुनर्वास का भरोसा देना पड़ा था। लेकिन,दो साल बीत जाने के बाद भी लोगों का पुनर्वास नहीं हो पाया है। मानसून की शुरुआत के साथ ही यहां के लोग अपनी ज़िंदगी के एक-एक दिन मुश्किल में गुज़ार रहे हैं।

अहमदनगर का लकी राणा हंसते हुए कहता है, "उस रात पहाड़ी पर दीवार गिर गयी थी, और सारा पानी हमारे घर से होकर निकला था। अगले दिन जब बाबा घर के पीछे गये, तो उन्होंने एक आदमी का पैर देखा। सारी मिट्टी साफ़ करने के बाद एक पूरा का पूरा शरीर सामने दिखा।" इस 9 साल के बच्चे को उस त्रासदी की गंभीरता का अंदाज़ा नहीं है, जिसे उसने ख़ुद देखा था। हाल ही उसने चौथी कक्षा में दाखिला लिया है, वह 7 साल का था, जब मलाड की दीवार ढहने का हादसा हुआ था।

लकी के पिता नवनीत राणा बताते हैं, "उसे नहीं पता कि यह एक लाश थी और हमने उसे यह बताना भी ठीक नहीं समझा कि वह एक मरे हुआ आमदी का शरीर था। उस दिन से जब भी भारी बारिश होती है, लकी रोता है।" यह इस्ट मलाड में स्थित अम्बेडकरनगर और पिंपरीपाड़ा के बच्चों की ज़िंदगी का प्रतीक है।

यहां रहने वाली रिया संतोष गोरेगांवकर अपनी रोज़-रोज़ की आशंकाओं के बारे में बताते हुए कहती हैं, “यह दीवार दो साल पहले ढह गयी थी, लेकिन इसे फिर से नहीं बनाया जा सका है, इसलिए नीचे की तरफ़ आने वाला पानी हमारे घर में दाखिल हो जाता है। अगर बहुत बारिश होती है, तो हमारी झोपड़ियां बह जाती हैं। 17 जून को इस इलाक़े में भारी बारिश हुई थी और उस बारिश में कई झोपड़ियां बह गयी थीं। दो से तीन दिन तक लोग सोये ही नहीं। पानी घर में घुस गया और सब कुछ क्षतिग्रस्त हो गया। खाना और कपड़े सड़ जाते हैं। कब बारिश होगी और कब हमारा घर उसमें बह जायेगा, इसका क़यास लगा पाना मुमकिन नहीं है, इसलिए हमें डर के साये में जीना होता है।”

चूंकि यह इलाक़ा गांधी राष्ट्रीय उद्यान की परिधि में आता है, इसलिए बॉम्बे इन्वायर्मेंट एंड एक्शन ग्रुप ने इस पार्क की हिफ़ाज़त के लिए मुंबई हाई कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की थी। उस याचिका पर फ़ैसला सुनाते हुए बॉम्बे हाईकोर्ट ने 1997 में सरकार को इस पार्क की हिफ़ाज़त और अतिक्रमण रोकने के लिए 18 महीने के भीतर वहां रहने वाले तक़रीबन 25,000 परिवारों का पुनर्वास करने का निर्देश दिया था। इनमें से 11,000 परिवारों को 2005 में चांदीवली में पुनर्वासित किया गया था। बाक़ी लोगों को अपने पुनर्वास का 24 सालों से इंज़ार है।

इन परिवारों के पुनर्वास के लिए संघर्ष कर रहे संगठन, घर बचाओ घर बनाओ आंदोलन (GBGB) की ओर से मुंबई हाई कोर्ट में दायर एक जनहित याचिका के जवाब में सरकार ने तर्क दिया था कि इन परिवारों के पुनर्वास के लिए मुंबई में उसके पास पर्याप्त संख्या में घर नहीं हैं। हालांकि, जीबीजीबी का कहना है कि सरकार आंकड़ों को छुपा रही है और मुंबई में ग़रीबों के लिए कई आवासीय परियोजनाओं के घर ख़ाली हैं।

मुंबई में हर साल आने वाली बाढ़ से इस इलाक़े को सबसे ज़्यादा नुक़सान पहुंचता है, क्योंकि इसकी ज़मीन वन विभाग के अधिकार क्षेत्र में आती है, और यहां कोई नया स्थायी ढांचा नहीं बनाया जा सकता है। नतीजतन, दूसरे झोपरपट्टियों के उलट यहां पानी और बिजली की आपूर्ति नहीं की जाती है। पानी की क़ीमत आम क़ीमत से दो या तीन गुना ज़्यादा है। बिजली की कहानी भी कुछ इसी तरह की है, क्योंकि यहां बिजली ग़ैर-क़ानूनी रूप से हासिल की जाती है।

मुंबई हाईकोर्ट ने 1997 में इस सिलसिले में अस्थायी व्यवस्था करने का आदेश जारी किया था। जीबीजीबी ने पुनर्वास पूरा होने तक पेयजल और शौचालय जैसी बुनियादी सुविधाओं का प्रावधान को सुनिश्चित करने के लिए 2020 में फिर से अदालत का दरवाज़ा खटखटाया था। इस इलाक़े में एक ही शौचालय है, जो काम नहीं करता। ऐसे में महिलायें व बच्चे खुले में शौच करते हैं।

यहां की झोपड़ियों के ठीक बगल में एक नाला बहता है, इसलिए यह इलाक़ा कचरे और बदबू का अड्डा है। हालांकि, वयस्क तो किसी तरह झेल जाते हैं, लेकिन छोटे बच्चों और बुज़ुर्गों को बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ता है। ऐसा नहीं कि ये परेशानियां सिर्फ़ संक्रामक रोगों के फैलने की वजह से है। इस इलाक़े के बच्चों में पीलिया और डायरिया बहुत आम हैं। यहां रह रहे लोगों का कहना है कि बारिश के मौसम में सूअर और सांप झोपड़ियों में घुस जाते हैं, क्योंकि वे आसपास के इलाक़ों में रहते हैं, ऐसे में बच्चों के लिए ख़तरा बना रहता है।

1 जुलाई 2019 को हुई उस घटना के बाद इस इलाक़े में रहने वाले क़रीब 85 परिवारों को तत्काल माहुल में बसाया गया था।अगर कोई यहां रह रहा है,तो उसकी वजह वह दुविधा वाली परिस्थिति है,जिसमें लोग फंसे हुए हैं।

संजय वसंत रिकामे का परिवार माहुल में बसे परिवारों में से एक है। उन्होंने कहा, "जुलाई की घटना के 15-20 दिन बाद हमें माहुल में बसा दिया गया था। पहले तो हमें बताया गया था कि हमें अस्थायी रूप से माहुल ले जाया जा रहा है। बताया गया था कि 3 महीने बाद हमें  स्थायी रूप से दूसरी जगह बसा दिया जायेगा। लेकिन,दो साल बाद भी हम माहुल में ही फंसे हुए हैं।"

माहुल में वायु प्रदूषण के ख़तरनाक स्तर के बारे में पूछे जाने पर वह कहते हैं, "सर, मेरे सिर पर तो छत ही नहीं थी। ऐसे में हम हवा की गुणवत्ता की परवाह कैसे कर सकते हैं ? हमें तो एक घर मिल गया था, इसलिए हम चले आये थे।"

जीबीजीबी के बिलाल ख़ान 2015 से मुंबई के लोगों के आवास के अधिकार के लिए लड़ने वाले एक कार्यकर्ता हैं। वह कहते हैं, “2019 की त्रासदी के बाद सरकार अपनी आंखों के सामने पैदा हुई समस्याओं को देख सकती थी। वह लोगों के हालात को महसूस कर सकती है। लेकिन, इसके बावजूद सरकार के पास इन लोगों के लिए कोई योजना नहीं है। यहां तक कि अदालत में उन्होंने यह अविश्वसनीय दलील दी कि 'हमारे पास घर नहीं हैं'।

वह आगे बताते हुए कहते हैं, "मान लीजिए कि सरकार के पास अभी घर नहीं हैं, लेकिन, वह इन लोगों को अस्थायी बिजली और पानी जैसी बुनियादी सुविधायें क्यों नहीं देती ! सरकार लोगों को उनके हालात पर नहीं छोड़ सकती। नागरिकों की सुरक्षा सरकार की ज़िम्मेदारी होती है। मगर, ये लोग ग़रीब हैं, इनके 'वोट बैंक' नहीं हैं, इसलिए इनके सवालों की परवाह किसी को नहीं है।”

ज़्यादतर शहरों की तरह मुंबई भी आवास को एक वस्तु के रूप में देखती है। मुंबई में मज़दूर तबके के लोगों के लिए अपना घर बना पाना नामुमकिन हो गया है। सिंगल बेडरूम वाले घर की क़ीमत एक करोड़ से ऊपर की होती है।ऐसे में 18,000 से 20,000 रुपये की मासिक आमदनी वाले रिक्शा चालक, सुरक्षा गार्ड, घरेलू कामगार, मुंबई में एक घर के मालिक होने का सपना भी नहीं देख सकते हैं।

जीवन भर की कड़ी मेहनत के बाद भी इनके हिस्से में झुग्गी-झोपड़ी ही एकमात्र विकल्प बचती है। वे अमानवीय परिस्थितियों में रहते हैं, और सरकार इन लोगों को चोर, लुटेरा, 'अतिक्रमणकारी' आदि मानती है। सामाजिक पूर्वाग्रह और आर्थिक तंगी इन लोगों को इंसाफ़ का सपना देखने के लिए जीवन भर या उससे कहीं ज़्यादा का इंतज़ार करने के लिए मजबूर करती है।

किरण अशोक गुप्ता अपने चार सदस्यों के परिवार के साथ कबाड़ से बनी झोपड़ी में रहती हैं। मूल रूप से उत्तर प्रदेश के ग़ाज़ीपुर की रहने वाली किरण जीवन यापन के लिए सस्ते आभूषण बनाती हैं और कपड़े सिलती हैं। उनके पति सुरक्षा गार्ड का काम करते हैं। 2019 की आपदा में उनके घर का एक हिस्सा बह गया था।

उस घटना को याद करते हुए वह कहती हैं, "हम रात 10 बजे बिस्तर पर चले गये थे, बाढ़ 1 बजे आयी, और कुछ ही मिनटों में हमारे घर का एक हिस्सा बहा ले गयी। कोई रोशनी नहीं थी। मेरे पति ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रहे थे, लेकिन बारिश तेज़ थी। जब पानी कम हुआ, तो दो लाशें हमारे घर में तैरने लगीं। लाशें तीन दिनों तक हमारे घर में पड़ी रहीं। पुलिस आख़िरकार आयी,और उन शवों को हटाया। हम तीन दिनों तक घर से बाहर रहे। ”

उस घटना के दो साल बीत जाने के बाद भी किरण अपने आंसू को नहीं रोक पाती हैं, वह कहती हैं, "हमें किसी चीज़ की ज़रूरत नहीं है, हमें सिर्फ़ एक घर चाहिए। बारिश के दौरान यहां एक दिन भी रहना नरक में रहने की तरह है।"

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

‘The Rain Will Kill Us Before Corona’: Residents of Mumbai’s Ambedkarnagar Lament

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