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20 साल बाद तालिबान की वापसी

विजय प्रसाद अपने इस लेख में अमेरिकी सेना की वापसी के बाद अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका समर्थित सरकार की तालिबान के हाथों शिकस्त खाने की व्याख्या कर रहे हैं।
20 साल बाद तालिबान की वापसी
राष्ट्रपति अशरफ ग़नी के देश से भाग जाने के कुछ घंटे बाद अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रपति भवन में दाखिल हुए तालिबान लड़ाके। फोटो: स्क्रीन शॉट

15 अगस्त को तालिबान आख़िरकार काबुल पहुंच गया। तालिबान नेतृत्व उस राष्ट्रपति भवन में दाखिल हो गया, जिसे अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी ने कुछ घंटे पहले ही विदेश निर्वासन में भागकर ख़ाली कर दिया था। देश की सीमायें बंद हो गयीं और सिवाय उन अफ़ग़ानों के रोने के काबुल के मुख्य अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर ख़ामोशी रही,जिन्होंने अमेरिका और नाटो के लिए काम किया था,क्योंकि वे जानते थे कि अब उनकी जान को गंभीर ख़तरा होगा। इस बीच तालिबान के नेतृत्व ने अपने दिये कई बयानों में यह कहकर आम लोगों को "शांतिपूर्ण सत्ता संक्रमण" को लेकर आश्वस्त करने की कोशिश की और कहते रहे कि वे बदले की भावना से काम नहीं करेंगे, लेकिन भ्रष्टाचार और अराजकता का पीछा भी नहीं छोड़ेंगे।

तालिबान का काबुल में दाखिल होना संयुक्त राज्य अमेरिका की हार है

संयुक्त राज्य अमेरिका हाल के सालों में अपने लड़े गये युद्धों के किसी भी मक़सद को पूरा कर पाने में नाकाम रहा है। अमेरिका अक्टूबर 2001 में देश से तालिबान को बाहर निकालने के उद्देश्य से भयानक बमबारी की थी और ग़ैर-मामूली क़हर बरपाने वाले एक क़ानून विरुद्ध अभियान के साथ अफ़गानिस्तान में दाखिल हो गया था,लेकिन अब 20 साल बाद वही तालिबान फिर से वापस आ गया है। साल 2003 में अमेरिका की ओर से अफ़ग़ानिस्तान में युद्ध शुरू करने के दो साल बाद इसने इराक़ के ख़िलाफ़ एक ग़ैर-क़ानूनी युद्ध शुरू कर दिया था, जिसका नतीजा यह हुआ था कि 2011 में इराक़ी संसद ने आख़िरकार अमेरिकी सैनिकों को अतिरिक्त सुरक्षा की इजाज़त देने से इनकार कर दिया और उसके बाद संयुक्त राज्य अमेरिका की बिना शर्त वापसी हो गयी थी। जैसे ही अमेरिका इराक़ से हटा, उसने 2011 में लीबिया के ख़िलाफ़ एक भयानक युद्ध शुरू कर दिया, जिसका नतीजा इस क्षेत्र में अराजकता के रूप में सामने आया।

अफ़ग़ानिस्तान, इराक़, लीबिया में चले इन युद्धों में से एक का नतीजा भी इन देशों में अमेरिकी समर्थक सरकार के बनने के रूप में सामने नहीं आया। इनमें से हर एक युद्ध ने नागरिक आबादी के लिए एक ऐसी यंत्रणा पैदा कर दी,जिसका कोई अंत नहीं दिखता। इन बेमतलब के युद्धों में लाखों लोगों का जीवन अस्त-व्यस्त हो गया, जबकि लाखों लोगों की जानें चली गयीं। ज़रा सोचिए,ऐसे हालात में जलालाबाद या सिर्ते के नौजवान से इंसानियत में उसके विश्वास की उम्मीद कैसे की जा सकती है ? क्या वे अब इस डर से अपने भीतर की ओर मुड़ पायेंगे कि उन पर और उनके देशों के दूसरे निवासियों पर थोप दिये गये बर्बर युद्धों से किसी तरह के बदलाव की कोई संभावना तक उनसे छीन ली गयी है ?

इसमें कोई संदेह नहीं कि संयुक्त राज्य अमेरिका के पास दुनिया की सबसे बड़ी फ़ौज़ है और इसमें भी कोई शंका नहीं कि अपनी बुनियादी ढांचे और अपनी हवाई और नौसैनिक शक्ति का इस्तेमाल करके अमेरिका किसी भी समय किसी भी देश पर हमला कर सकता है। लेकिन, किसी देश पर इस तरह बमबारी करने का क्या मतलब रह जाता है, अगर उस हिंसा का कोई राजनीतिक लक्ष्य ही नहीं हो ? तालिबान नेताओं को मारने के लिए अमेरिका ने अपने उन्नत ड्रोन का इस्तेमाल किया था, लेकिन उनके एक नेता मरते, तो आधा दर्जन दूसरे नेता सामने आ जाते। इसके अलावा, तालिबान के सह-संस्थापक और उसके राजनीतिक समिति के प्रमुख,मुल्ला अब्दुल ग़नी बरादर सहित इस समय के तालिबान के प्रभारी यहां शुरू से ही थे; तालिबान के एक-एक नेतृत्व का सिर कलम कर पाना कभी मुमिकन नहीं था। संयुक्त राज्य अमेरिका ने एक ऐसे युद्ध पर 2 ट्रिलियन डॉलर से ज़्यादा ख़र्च किये हैं, जिसके बारे में उसे पता था कि वह उस युद्ध को कभी नहीं जीत सकता।

भ्रष्टाचार बना काठ का घोड़ा

शुरुआती बयानों में मुल्ला बरादर ने कहा है कि उनकी सरकार अफ़ग़ानिस्तान में स्थानीय भ्रष्टाचार पर अपना ध्यान केंद्रित करेगी। इस बीच काबुल में अशरफ़ ग़नी की सरकार के मंत्रियों के डॉलर के नोटों से भरी कारों में देश छोड़ने की कोशिश की कहानियां हर तरफ़ कही-सुनी जाने लगी हैं। इन कहानियों में कहा जा रहा है कि यह वही पैसे थे, जो अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान को मदद पहुंचाने और बुनियादी ढांचे के लिये दिये थे। इन कहानियों में देश को दी जाने वाली मदद से पैसों की निकासी के क़िस्से अहम रहे है। "अफ़ग़ानिस्तान में भ्रष्टाचार के साथ अमेरिकी अनुभव से सीखे गये सबक़" से जुड़े अमेरिकी सरकार के अफ़गानिस्तान पुनर्निर्माण के विशेष महानिरीक्षक (SIGAR) की तरफ़ से पेश की गयी 2016 की एक रिपोर्ट में जांचकर्ताओं ने लिखा था, " अफ़ग़ान सरकार ने अपने भ्रष्टाचार से अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी मिशन की वैधता को नुक़सान पहुंचाकर काफ़ी कमज़ोर कर दिया है, विद्रोह के लिहाज़ से आम लोगों के समर्थन को मज़बूत कर दिया है, और इससे विद्रोही समूहों तक भौतिक संसाधनों की पहुंच आसान हो गयी है।" एसआईजीएआर ने इस रिपोर्ट में "लालच की गैलरी" नाम से एक अलग खाका बनाया,जिसमें उन अमेरिकी ठेकेदारों के नाम दिये गये हैं, जिन्होंने सहायता राशि का गबन किया और धोखाधड़ी के ज़रिये इसे अपनी जेब के हवाले किया। अफ़ग़ानिस्तान पर अमेरिकी कब्ज़े पर 2 ट्रिलियन डॉलर से ज़्यादा का ख़र्च किया गया, लेकिन यह न तो किसी तरह की राहत पहुंचाने के लिए किया गया है और न ही इस देश के बुनियादी ढांचे के निर्माण को लेकर किया गया है। इन पैसों ने संयुक्त राज्य अमेरिका, पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान के अमीरों को और मोटा बना दिया।

सरकार के शीर्ष पर बैठे लोगों के भ्रष्टाचार ने मनोबल को खोखला कर दिया है। अमेरिका ने अफ़ग़ान नेशनल आर्मी (ANA) के तीन लाख सैनिकों के प्रशिक्षण पर अपनी उम्मीदें टिकाये रखी थीं, इस पर उसने 88 अरब डॉलर ख़र्च डाले थे। 2019 में काग़ज़ पर दर्ज "आभासी सैनिक", जिनका वजूद सही मायने में था ही नहीं, उसके हटाये जाने से 42,000 सैनिकों का नुकसान हुआ; संभव है कि ऐसे सैनिकों की संख्या और भी ज़्यादा रही हो। एएनए का मनोबल पिछले कुछ सालों में गिरा है, कुछ सैनिकों का बड़ी संख्या में इस सेना से किसी अन्य बलों में जाने का सिलसिला अब भी जारी है। प्रांतीय राजधानियों की रक्षा व्यवस्था भी कमज़ोर थी, काबुल तो तक़रीबन बिना किसी लड़ाई के तालिबान के हाथों में चला गया।

नतीजतन, ग़नी सरकार में हाल ही में नियुक्त रक्षा मंत्री, जनरल बिस्मिल्लाह मोहम्मदी ने 2001 के आख़िर से अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता पर काबिज रही सरकारों पर टिप्पणी करते हुए ट्विट किया, “उन्होंने हमारे हाथ हमारी पीठ के पीछे बांध दिये और मातृभूमि को बेच दिया। धिक्कार है अमीर आदमी [ग़नी] और उसके लोगों को।” यह टिप्पणी इस समय अफ़ग़ानिस्तान के आम लोगों की आम भावना की झलक देती है।

अफ़ग़ानिस्तान और इसके पड़ोसी

सत्ता संभालने के कुछ ही घंटे बाद तालिबान के राजनीतिक कार्यालय के एक प्रवक्ता, डॉ एम नईम ने कहा कि सभी दूतावासों की हिफ़ाज़त की जायेगी, जबकि तालिबान के एक अन्य प्रवक्ता ज़बीहुल्ला मुजाहिद ने कहा कि सभी पूर्व सरकारी अधिकारियों को अपनी जान को लेकर डरने की ज़रूरत नहीं है। ये फ़िलहाल आश्वस्त करने वाले संदेश हैं।

तालिबान यह भरोसा भी दिलाता रहा है कि वह राष्ट्रीय एकता की सरकार के ख़िलाफ़ नहीं है, हालांकि इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि ऐसी सरकार तालिबान के अपने राजनीतिक एजेंडे के लिए रबर स्टैंप भर होगी। अब तक तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान को लेकर ऐसी कोई योजना सामने नहीं रखी है, जो कि देश की कम से कम एक पीढ़ी के लिए ज़रूरी है।

तालिबान नेता मुल्ला बरादर ने 28 जुलाई को चीन के तियानजिन में चीनी विदेश मंत्री वांग यी से मुलाक़ात की। चर्चा की रूपरेखा पूरी तरह सामने तो नहीं आयी है, लेकिन जो जानकारी है, वह यह है कि चीन ने तालिबान से वादा लिया है कि वह अफ़ग़ानिस्तान की धरती से चीन पर हमले की अनुमति नहीं देगा और मध्य एशिया में बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) के बुनियादी ढांचे पर हमले की अनुमति नहीं देगा। इसके बदले चीन इस क्षेत्र में अपना बीआरआई निवेश जारी रखेगा, जिसमें वह पाकिस्तान भी शामिल है, जो तालिबान का एक प्रमुख समर्थक है।

तालिबान चरमपंथी समूहों को नियंत्रित कर पाने में सक्षम होगा या नहीं, यह तो साफ़ नहीं है, लेकिन जो बात एकदम शीशे की तरह साफ़ है,वह यह कि तालिबान के किसी भी विश्वसनीय अफ़ग़ान विरोध की ग़ैर-मौजूदगी में तालिबान के बेदर्द कार्रवाई और चरमपंथी समूहों के समर्थन के इतिहास को सुधारने के लिए क्षेत्रीय शक्तियों को काबुल पर अपना प्रभाव डालना होगा। मसलन, शंघाई सहयोग संगठन (2001 में स्थापित) ने 2017 में अपने अफ़ग़ानिस्तान संपर्क समूह को पुनर्जीवित किया, जिसने जुलाई 2021 में दुशांबे में एक बैठक की और एक राष्ट्रीय एकता सरकार का आह्वान किया।

उस बैठक में भारत के विदेश मंत्री डॉ. एस. जयशंकर ने एक तीन सूत्री योजना तैयार की, जिस पर कई धड़ों में बंटे पड़ोसियों के बीच आम सहमति हासिल कर ली गयी।ये तीन सूत्र कुछ इस तरह थे:

“1. एक स्वतंत्र, तटस्थ, एकीकृत, शांतिपूर्ण, लोकतांत्रिक और समृद्ध राष्ट्र।

“2. नागरिकों और राज्य के प्रतिनिधियों के खिलाफ हिंसा और आतंकवादी हमलों को रोकना, राजनीतिक बातचीत के ज़रिये संघर्ष को सुलझाना, और सभी जातीय समूहों के हितों का सम्मान करना, और

“3. यह सुनिश्चित करना कि पड़ोसियों को आतंकवाद, अलगाववाद और उग्रवाद से ख़तरा नहीं।”

इस समय इसी की सबसे ज़्यादा उम्मीद की जा सकती है। यह योजना उस अमन का वादा करती है, जिसकी ज़रूरत को पिछले दशकों में अफ़ग़ानिस्तान के लोगों ने महसूस किया है, यह एक बड़ी प्रगति है। मगर,सवाल है कि कैसा अमन ? इस "शांति" की संभावना जगत में महिलाओं और बच्चों के अधिकार शामिल नहीं हैं। अमेरिका के कब्ज़े के इन 20 सालों के दरम्यान उस "शांति" का नाम-ओ-निशान तक नहीं था। लेकिन,इस शांति के पीछे कोई वास्तविक राजनीतिक शक्ति नहीं है, बल्कि सतह के नीचे हलचल मचा रहे वे सामाजिक आंदोलन हैं, जो इस "शांति" की ऐसी परिभाषा को सतह पर ला सकते हैं। उम्मीद तो वहीं टिकी है।

विजय प्रसाद भारतीय इतिहासकार, संपादक और पत्रकार हैं। वह ग्लोबट्रॉटर में राइटिंग फ़ेलो और मुख्य संवाददाता हैं। वे लेफ्टवर्ड बुक्स के मुख्य संपादक और ट्राईकॉन्टिनेंटल: इंस्टीट्यूट फॉर सोशल रिसर्च के निदेशक हैं। वह चीन के रेनमिन विश्वविद्यालय के चोंगयांग इंस्टीट्यूट फॉर फाइनेंशियल स्टडीज में एक वरिष्ठ नॉन रेज़िडेंट फ़ेलो हैं। उन्होंने ‘द डार्कर नेशंस’ और ‘द पुअर नेशंस’ सहित 20 से ज़्यादा किताबें लिखी हैं। उनकी नवीनतम किताब ‘वाशिंगटन बुलेट्स’ है, जिसकी भूमिका इवो मोरालेस आयमा ने लिखा है।

यह लेख ग्लोबट्रॉटर ने तैयार किया था।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

The Return of the Taliban 20 Years Later

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