'टूर ऑफ़ ड्यूटी' सिस्टम से चंद पैसे तो बचाए जा सकते हैं लेकिन सैनिक नहीं तैयार किए जा सकते!
भले आपने टूर ऑफ़ ड्यूटी का नाम न सुना हो लेकिन अग्निपथ फ़िल्म का नाम तो ज़रूर सुना होगा। सेना में भर्ती के लिए सरकार की तरफ टूर ऑफ़ ड्यूटी नाम का नया सिस्टम आ रहा है। सरकार का कहना है कि इस नए सिस्टम को अग्निपथ कहा जायेगा। इसमें शामिल होने वालों को अग्निवीर कहा जाएगा। टूर ऑफ़ ड्यूटी सिस्टम का अब तक अंतिम ब्यौरा सरकार की तरफ से जारी नहीं किया गया है।
लेकिन मीडिया में जो ख़बरें छप रही हैं, उसके मुताबिक तीनों सेनाओं में तक़रीबन सालाना 50 हज़ार नौजवानों की ऑफिसर रैंक से नीचे सेना में टूर ऑफ़ ड्यूटी के तहत भर्ती होगी। साढ़े 17 साल से लेकर 21 साल के बीच के नौजवानों में से भर्तियां की जाएंगी। साल भर में दो बार भर्ती निकलेगी। तीन से चार साल के लिए सेना में रखा जाएगा। छह महीने की ट्रेनिंग होगी। बाकी ढाई साल सेना में सेवा देना होगा। महीने में 30 हज़ार की सैलरी दी जाएगी। अंतिम साल बढ़कर यह 40 हजार महीने हो जाएगी।
हर महीने सैलरी में से 30 प्रतिशत काटकर बचत खाते में जाएगा। इतना ही पैसा सरकार की तरफ से सेवा निधि योजना के तहत बचत खाते में डाला जाएगा। चार साल बाद सेवा पूरा हो जाने के बाद सरकार की तरफ से 10 से 12 लाख एकमुश्त राशि लौटा दी जाएगी। बिना टैक्स काटे सरकार पूरा पैसा देगी। इस सिस्टम के तहत शामिल 25 फीसदी नौजवानों को उनकी कार्यशैली के आधार पर परमानेंट कर दिया जाएगा।
इन सारी बातों से साफ-साफ तो नहीं लेकिन मोटे तौर यह पता चल गया कि टूर ऑफ़ ड्यूटी का ढांचा कैसा होगा? अब बात करते हैं कि यह लाया क्यों जा रहा है? इसके आने से सैन्य बलों पर असर क्या पड़ेगा?
पहली नज़र में देखने पर यही लगता है कि जिन्हें कुछ समय के लिए सेना में जाकर काम करने का मन है, वह सेना में जाकर काम कर सकेंगे। अपना एडवेंचर का सपना पूरा कर सकेंगे। मेजर जनरल यश मोर बताते हैं कि यह एडवेंचर सेना का बनाया हुआ नहीं है बल्कि बॉलीवुड का बनाया हुआ है। सेना को लेकर सिनेमा जिस तरह का रोमांच पैदा करता है, सैन्य बलों की ज़िंदगी उतनी आसान नहीं होती। सेना का मतलब पहाड़ों पर जाकर हाथ में रायफल लेकर घूमना नहीं होता। सेना में न कोई अग्निवीर होता है न कोई अग्नीपथ।
सेना में जाने के लिए रिटेन टेस्ट और बहुत मुश्कि फिजिकल टेस्ट पास करना होता है। उसके बाद रिक्रूटमेंट लेवल पर तकरीबन नौ से दस महीने की ट्रेनिंग होती है। सेना में तकरीबन 150 से 200 के क़रीब अलग- अलग पेशे से जुड़े काम है। जैसे ड्राइवर, गनर, ऑपरेटर सहित कई तरह के काम। ट्रेनिंग करने के बाद जिस ट्रेड में इंट्री होती है, वहां जाकर फिर उस ट्रेड की ट्रेनिंग करनी होती है। एक सैनिक अगर बंदूक से लेकर टैंक और एयर डिफेंस से लेकर हर तरह के काम करने लायक दक्षता रखता है तो इसका मतलब है कि उसकी कम से कम 8 से 10 साल की ट्रेनिंग होगी।
इसलिए यह बात अटपटी लगती है कि तीन साल के लिए सेना में भर्ती का सिस्टम क्यों तैयार किया जा रहा है? अगर सेना के काम का अनुभव लेना है तो NCC के तहत भेजा जा सकता है। टेरिटोरियल आर्मी के तहत इंट्री कराई जा सकती है। लेकिन रेगुलर सेना में भेजना बहुत ज्यादा जोखिम भरा है। केवल छह महीने की ट्रेनिंग देकर किसी को कश्मीर और उत्तर पूर्व के इलाके में नहीं भेजा जा सकता है।
सेना के लिए अनुशासन और समर्पण की जरूरत होती है। अगर पहले से किसी को पता होगा कि केवल तीन साल नौकरी करनी है तो वह अनुशासन और समर्पण कहां से आएगा? जब सैनिक को पता होता है कि उसे 15 साल नौकरी करनी है, उसके बाद उसे अपनी जिंदगी ढंग से काटने के लिए सरकार की तरफ से पेंशन मिलेगी, तब जाकर उसके भीतर सेना के लिए अनुशासन और समर्पण का गहरा भाव पैदा होता है। यह अनुशासन और समर्पण का गहरा भाव तीन साल की नौकरी में पैदा नहीं हो सकता। एक ही बैरक में कोई तीन साल रहने के भाव से रहेगा और कोई 15 साल रहने के भाव से। यह सेना के लिए ज़रूरी माहौल के ख़िलाफ़ है। सेना के लिए ज़रूरी उत्साह और प्रेरणा के ख़िलाफ़ है।
अब अगर पैसे के लिहाज से मामले को समझने की कोशिश करें तो मामला थोड़ा और खुलकर दिखने लगेगा।
रक्षा मंत्रालय के लिए बजटीय आवंटन तकरीबन 5 लाख 75 हजार करोड रुपए का है। यह कोई छोटी मोटी राशि नहीं है। पिछले कुछ सालों से बजट का 10% से ज्यादा हिस्सा रक्षा मंत्रालय को जाता है। इसमें भी अधिकतर पैसा वेतन और पेंशन पर दिया जाता है। पेंशन पर वेतन से ज्यादा पैसा दिया जाता है। इंडियन एक्सप्रेस का एक आंकड़ा बताता है कि अगर टूर ऑफ़ ड्यूटी के तहत सरकार सेना में भर्ती करेगी तो हर एक सैनिक पर तकरीबन 11 करोड़ रुपए कम ख़र्च करना पड़ेगा। यानी पूरा मामला पैसे का है। 15वें वित्त आयोग की अनुशंसाओं में कहा गया था कि सैन्य बलों पर किया जाने वाला ख़र्च कम होना चाहिए। अगर सैन्य बलों पर ख़र्च कम होगा तो डिफेंस क्षेत्र में रिसर्च करने के लिए ज्यादा राशि उपलब्ध होगी। नई टेक्नोलॉजी पर अधिक ध्यान दिया जा सकेगा।
पैसे से जुड़े इस पूरे मामले में पेंशन नाम की पेंच है। सरकार सेना के लोगों के लिए पेंशन का महत्व नहीं समझ रही है। उसे पेंशन की राशि अधिक लग रही है। सैन्य मामलों के जानकार बताते हैं कि आजादी के बाद सैनिकों को 7 साल के लिए भर्ती किया जाता था। आगे चलकर यह सीमा 8 साल की हुई। समय गुजरा तो यह सीमा बढ़कर 15 साल की हो गई है। 15 साल नौकरी करने के बाद कोई रिटायरमेंट लेकर सरकार की तरफ से पेंशन पाने का हकदार हो सकता है।
सेना की नौकरी ऐसी नहीं है कि इसमें लंबी अवधि तक काम किया जाए। लंबी अवधि तक वेतन हासिल किया जाए। जब सेना की नौकरी समाप्त हो जाती है तो घर चलाने का सहारा पेंशन ही होता है। बहुत कम सैनिकों को ही सेना से रिटायर होने के बाद कोई ढंग की नौकरी मिल पाती है। ज़रा सोच कर देखिए कि जो कॉरपोरेट इंजीनियर और मैनेजमेंट वाले को नौकरी पर नहीं रख रहे वह पूरी ज़िंदगी सेना में बीता दिए जवान को नौकरी क्यों देगा?
ऑफिसर रैंक से नीचे के सेना के अधिकतर लोग ग्रामीण क्षेत्रों से आते हैं। सेना की नौकरी में जान हमेशा दांव पर लगी होती है। वैसी नौकरी अगर 15 साल करनी पड़े और 15 साल करने के बाद जीवन में आर्थिक सुरक्षा ना रहे तो कोई कैसे सेना में बना रह सकता है? भले ही पैसे से जिंदगी नहीं खरीदी जा सकती। लेकिन पैसे का महत्व इतना ज्यादा है कि सबसे कठिन परिस्थितियों में काम करने के लिए बिना आर्थिक सुरक्षा मुहैया करवाए तैयार नहीं किया जा सकता है। इसलिए सेना से जुड़े पेंशन को उस तरह से नहीं देखना चाहिए जिस तरह से हम दूसरी नौकरी के पेंशन को देखते हैं।
अंग्रेजी के द कारवां पत्रिका में रक्षा मामलों के जानकार सुशांत सिंह एक सेवानिवृत्त अधिकारी के हवाले से लिखते हैं यह प्रस्तावना ना तो रक्षा सेवाओं और ना ही रक्षा मंत्रालय से आया है। इस तरह की दिमागी तरंगे कहीं और से निकलती हैं। दो-तीन लोगों का समूह मिलकर इस तरह के फैसले लेता है। इस प्रस्ताव को सुनकर पूर्व सेना प्रमुख खुश नहीं थे। अंदर ही अंदर सेना और सरकार के बीच खींचतान चल रही थी। सरकार तो कहती है कि कोविड की वजह से 2 साल बहुत कम भर्तियां हुई। लेकिन यह प्रस्ताव भी कम भर्तियां होने के पीछे ज़िम्मेदार था। मौजूदा वक़्त में सरकार की तरफ से सेना में 12 लाख 12 हज़ार सरकारी पद अधिकृत हैं। हर साल तक़रीबन 60 हज़ार सैनिक रिटायर होते हैं। तक़रीबन 1 लाख से ज़्यादा नौकरियां ख़ाली हैं। इन कमियों ने सेना का मनोबल कम कर दिया है। सेना ने प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया है। प्रधानमंत्री कार्यालय की तरफ से आधिकारिक विवरण का ऐलान होना बाक़ी है।
नाम, नमक और निशान यानी इज़्ज़त वफ़ादारी और पहचान की सेना में ख़ास जगह है। सैनिक इन तीनों के लिए मर मिटने के लिए तैयार रहते हैं। यह अमूर्त की तरह की बात उन्हें समझ में आती है जो सेना में लंबा वक़्त गुज़ारते हैं। यह बात उनके भीतर जज़्ब नहीं हो सकती जो महज़ तीन साल से लेकर पांच साल के लिए आए और चले जाएं। सरकार चाहे तो सैनिकों का प्रशिक्षण ऐसे ही कर सकती है कि रिटायरमेंट के बाद उन्हें पुलिस बलों में इस्तेमाल कर लिया जाए। अर्धसैनिक बलों में इस्तेमाल कर लिया जाए। सरकारी ख़र्च कम करने का ठोस तरीक़ा निकाला जा सकता है। लेकिन चंद पैसा बचाने के लिए सरकार की तरफ से लाया जा रहा यह टूर ऑफ़ ड़्यूटी सिस्टम बहुत बड़ी क़ीमत वसूल सकता है।
इन सबके अलावा एक और अंदेशे के बारे में सोचना चाहिए। जिन हाथों को कच्ची उम्र में हथियार थमा दिया जाएगा और कच्ची उम्र में ही उनसे हथियार ले लिया जाएगा। अगर उन हाथों को भारत के बढ़ती बेरोज़गारी के माहौल में बेरोज़गार रहना पड़े तो क्या हो सकता है? अगर रोज़गार मिले तो कैसा रोज़गार मिलेगा? जिन्हें नागरिक और इंसान बनने की यात्रा करने से पहले ही बंदूकों के साथ लगा दिया जाएगा वह दुनिया में मौजूद नफ़रत के साथ तालमेल बिठा पाएंगे या नहीं? वैसे दौर में जब भारत की संस्थाएं अपना स्वतंत्र अस्तित्व छोड़कर सरकार की ग़ुलामी में तब्दील हो जा रही है उस वक़्त तो यह ज़रूर सोचना चाहिए कि टूर ऑफ ड्यूटी से बाहर निकले नौजवानों का कैसा इस्तेमाल किया जाएगा?
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