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महामारी की राजनीति का ख़तरनाक उभार

शासन व्यवस्था इस महामारी के ज़रिये असाधारण ताक़त हासिल कर सकती है, लेकिन सियासत में कभी ठहराव नहीं आ सकता, वह कभी ख़त्म नहीं हो सकती या उसे सीमित भी नहीं किया जा सकता है। जल्द ही नये सिरे से सवाल पूछे जायेंगे।
महामारी

हम असाधारण, अभूतपूर्व और अनिश्चित समय में रह रहे हैं। राजनेता, डॉक्टर, वैज्ञानिक, महामारी वैज्ञानिक और वह हर कोई, जो नीति और चल रहे तौर तरीक़ों को प्रभावित करने की हालत में हैं, सबके सब अंधेरे में तीर चला रहे हैं। उनके फ़ैसले बिना सोच-समझ वाले हैं और उनके आज़माये जा रहे नुस्खे भी हवा में तीर चलाने जैसे दिखते हैं। बाज़ार से चलने वाली अर्थव्यवस्था की मज़बूत धारणा कम से कम अस्थाई रूप से ही सही, मगर जर्जर हालत में है। विश्लेषकों ने नवउदारवाद की भ्रामक स्थिति के बारे में बात करना शुरू कर दिया है और हमारे सामने नव-उदारवादी काल के बाहर निकलने वाले दरवाज़े को खोला जा रहा है। वैश्वीकरण के ख़ात्मे के विचार हर तरफ़ तैर रहे हैं और राष्ट्र-राज्यों, सीमाओं और संघवाद के विचारों पर नये सिरे से ध्यान दिया जा रहा है।

यह वास्तव में विचारों को बाहर लाने, क़ैदियों को खचाखच भरे जेलों से बाहर निकालने, सभी के लिए स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने और इन सब बातों को जनता के सामने खुलकर रखने का एक समय है। स्पेन ने हाल ही में सार्वभौमिक बुनियादी आय वाले विचार के अपने मूल रूप को मंज़ूरी दे दी है। बहुत सारे देश बेरोज़गार कर्मचारियों के खाते में नक़दी का सीधे-सीधे हस्तांतरण कर रहे हैं। संरचनात्मक रूप से अलग-थलग करने और भेद पैदा करने वालों के ख़िलाफ़ विचार भी सतह के ऊपर खदबदाने लगे हैं। यही वजह है कि भारत प्रवासियों के पलायन से जूझ रहा है और निजी हेल्थकेयर मॉडल की सीमाओं से देश का सामना हो रहा है, और इसी तरह की दूसरे मसले भी मुंह बाये खड़े हैं।

इन विचारों और बहसों का भविष्य उतना ही अनिश्चित है,जितना कि महामारी को लेकर हमारा ज्ञान सुनिश्चित नहीं है और यह सवाल भी कि हमारे जीवन और समय को यह महामारी आख़िर किस तरह प्रभावित करेगा। कोई भी निश्चित तौर पर नहीं नहीं कह सकता है कि हमारी सभी चिंताओं और आशंकाओं पर होने वाली ये चर्चा-परिचर्चायें कब तक या कितनी देर तक चलेंगी।

बेशक हम इतना ज़रूर जानते हैं कि हमारे चारों ओर महामारी की एक राजनीति व्याप्त है। उदार लोकतंत्रों में यह राजनीति तेज़ी के साथ अदालती हुक़्म के रूप में सामने आ रही है। हंगरी जैसे देशों के मामले में तो यह स्पष्ट है, जहां लोकतंत्र के मुअत्तल किये जाने के साथ-साथ नये मामले के रूप में आपातकालीन उपायों को वैध ठहराया गया है। क्या हम यह कह सकते हैं कि यह भारत में हाल के राजनीतिक और प्रशासनिक फ़ैसलों के बारे में भी उतना ही सच है ?

हालांकि हमने महामारी के प्रकोप के बाद से बहुत सारे नियमों, विनियमों, सलाह, और शारीरिक और नैतिक प्रतिबंधों और अंकुशों को देखा है, उनके लगाये जाने पर भारत में बहुत ही कम चर्चायें हुई है। महत्वपूर्ण बात तो यह है कि महामारी के इस प्रकोप को भारत में तो पहले से ही नकारा जा रहा था, इससे निपटने को लेकर अपनाये जाने वाले तौर-तरीक़े भी ढुलमुल थे। विपक्ष की ग़ैर-मौजूदगी और व्यापक रूप से सहमति के साथ चिंतित जनता के बीच सत्ता का अहंकार पूरी तरह ज़ाहिर हो रहा था।

इस ग़ैर-मामूली महामारी की राजनीति तब शुरू हुई थी, जब सरकार ने कोविड-19 पर संसदीय चर्चा की अनुमति नहीं दी थी, जबकि उस समय विधानमंडल का सत्र चल रहा था। इससे स्पष्ट संकेत मिलता है कि जो लोग सत्ता में बैठे हैं, वे किसी तरह के सलाह-मशविरे और भागीदारी नहीं चाहते हैं। इसके बाद स्वतंत्रता में सख़्त कटौती और ख़राब प्रबंधन के कारण मज़दूरों का पलायन हुआ। इसके बाद जिस तरह से थाली पीटने और ताली बजाने और मोमबत्तियां जलाने का तमाशा किया गया, इससे लगा कि इनमें से हर घटनाक्रम किसी राष्ट्रीय कार्यक्रम का हिस्सा हो और मानो कि वे दलगत राजनीति क्षेत्र से ऊपर हों। कुछ अपवादों के साथ क़रीब-क़रीब सभी पार्टियों के लोग इन तमाशों में शामिल हो गये थे।

सोशल मीडिया पर छोटे-छोटे समूहों या प्रेस और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में एक तबके को छोड़कर आलोचना और चुनौती पेश करने वाले विरोध को छोड़कर विपक्ष की सामान्य, नियमित राजनीति ने इसे लेकर सार्वजनिक चर्चाओं से ख़ुद को अलग रखा। लेकिन, राजनीति कभी रुक नहीं सकती है, वह ख़त्म नहीं होती या किसी कोने तक सीमित भी नहीं रह सकती है। इस समय हम राजनीतिक संकट के दौर से गुज़र रहे हैं, क्योंकि महामारी ने राजनीतिक विपक्ष के असमंजस को बढ़ा दिया है। सत्ता जो फ़ैसले ले रही है, उसपर बहुत कम या कोई सवाल ही नहीं उठाये जा रहे हैं। विपक्ष जहां दिखाई भी देता है, सरकार ने इसे जानबूझकर नज़रअंदाज़ किया हुआ है, मिसाल के तौर पर डोनेशन को लेकर एक एफसीआरए-मुक्त पीएम-केयर्स फ़ंड बनाने के मामले में देखा जा सकता है। इस फ़ंड की व्यय योजना या संस्थागत चूक पर किसी तरह की कोई स्पष्टता नहीं है।

यही बात दिल्ली 2021 के मास्टर प्लान के तहत ज़मीन के इस्तेमाल के बदलाव की उस अधिसूचना पर भी लागू होती है, जिसे जनता कर्फ़्यू की घोषणा की पूर्व संध्या पर अधिसूचित किया गया था। इस प्रकार, संसद परिसर सहित केंद्रीय निर्माण और आसपास की भवनों के पुनर्विकास का मार्ग प्रशस्त हो गया है।

लॉकडाउन ने सरकार को जम्मू-कश्मीर के लिए अधिवास क़ानूनों को अधिसूचित करने और फिर उसे संशोधित करने का एक उपयुक्त मौक़ा दे दिया है। जम्मू-कश्मीर में, रिपोर्टरों ने महामारी से जुड़ी जानकारी पर सख़्त नियंत्रण रखने को लेकर अधिकारियों से बात की है। अलग-अलग स्तरों पर और अलग-अलग उपायों का इस्तेमाल करते हुए इस तरह के नियंत्रण को अन्य स्थानों में भी देखा जा सकता है। जैसा कि सबको मालूम ही है, इस संकट के दौरान देश भर का मीडिया ज़बरदस्त चुनौतियों से जूझ रहा है।

चौंकाने वाली बात तो यह भी है कि सरकार ने संसद सदस्य स्थानीय क्षेत्र विकास योजना (MPLAD) की फ़ंडिंग को भी रोकने का फ़ैसला किया है। यह महज संयोग नहीं है कि विपक्षी दलों के सांसद इस महामारी के सिलसिले में अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्रों में चिकित्सा राहत और सुविधायें मुहैया कराने के लिए इस धनराशि का इस्तेमाल कर रहे थे।

प्रधानमंत्री और राज्य के मुख्यमंत्रियों और राजनीतिक नेताओं के बीच इन दिनों बैठकें हो रही हैं, और राजनीतिक नेताओं को प्रचारित किया जा रहा है और ऐसा लगता है कि आपस में विचार-विमर्श चल रहे हैं, लेकिन इन तमाम क़वायदों में स्पष्ट रूप से लोकतांत्रिक चरित्र का अभाव है। ये पूरी क़वायद प्रशासनिक निर्देशों की जानकारी को आगे बढ़ाये जाने से आगे नहीं बढ़ पा रही हैं। यहां विरोध या आलोचना की कोई गुंजाइश ही नहीं बची है। हर फ़ैसले को उसकी भव्य घोषणा होने तक के लिए गोपनीयता के लबादे में छुपा दिया जाता है। स्पष्ट संकेत हैं कि महामारी को भुनाया जा रहा है।

इसका एक संकेत उन शिक्षाविदों और कार्यकर्ताओं की गिरफ़्तारी में भी दिखता है, जो ख़ासकर सीएए क़ानून के ख़िलाफ़ नागरिक और लोकतांत्रिक विरोध का हिस्सा थे, और जिस क़ानून का व्यापक रूप से भेदभावपूर्ण और विभाजनकारी क़ानून के रूप में आलोचना की जाती रही है। सबसे चौंकाने वाली तो बात यह है कि सख़्त यूएपीए क़ानून के तहत कार्यकर्ताओं के ख़िलाफ़ मामले बनाकर उन्हें फंसाया जा रहा है, यूएपीए क़ानून आतंकवाद विरोधी क़ानून है, जिसे 2019 में इस सरकार ने और मज़बूत बना दिया था।

सरकार ने बड़े पैमाने पर खुलकर इस तरह की कार्रवाइयां की हैं। इन गिरफ़्तारियों की संवैधानिकता और उन्हें मुमकिन बनाने वाले लागू कानूनों के बारे में जो प्रश्न उठाया गये हैं, उनका उत्तर दिया जाना अब भी बाक़ी है। फिर भी, महामारी की राजनीति के इस सामान्यीकरण के भीतर, सरकार ने अपनी कार्रवाइयों को लेकर एक वैधता की रूप-रेखा बनायी हुई है, और जबकि इस महामारी को नियंत्रित करने के लिए उठाये जाने वाले क़दमों से इन बातों का कोई लेना देना तक नहीं है।

इस राजनीति के दायरे में विपक्ष बेबस दिखता है,क्योंकि उसकी किसी भी आलोचना को सत्ता द्वारा महामारी को नियंत्रित करने को लेकर किये जाने वाले उपायो के बीच अड़ंगा डालने के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। इसलिए, विपक्ष काफ़ी हद तक नीतिगत बातों या आर्थिक और चिकित्सीय संकट से निपटने के लिए सुझाव देने तक ही सीमित रह गया है।

हालांकि कोविड-19 दुनिया भर में फैला हुआ है, और इसके प्रभाव को काफी हद तक सत्ता-सरकार और हर देश के नेतृत्व द्वारा तय किया जा रहा है। हॉब्स बताते हैं कि राजनीतिक शासन करना सही मायने में "नागरिकों के जीवन-मरण के प्रश्न पर ताक़त का हासिल किया जाना है"। और किसी को भी ऐसी शक्ति सौंपने का कारण के पीछे समाज की यह मान्यता होती है कि यह सामूहिक सुरक्षा को लेकर चुकाये जाने वाली क़ीमत है। इस महामारी के दौरान, सुरक्षा और अस्तित्व को इस क़दर सामने कर दिया गया है, जिससे कि ये असाधारण और मनमाने ताक़त के इस्तेमाल करने के कारण बन जाते हैं। इस रोग के संक्रमण की आशंका ने हर किसी को एक संभावित "वायरस फैलाने वाला" शख़्स बना दिया है। "संक्रमित होने का डर" हमें एक दूसरे से दूर कर दे रहा है और आत्म-केंद्रित बना दे रहा है। दोस्ती, एकजुटता और स्नेह के विचार में बदलाव लाया जा रहा है।

सरकार और नेताओं, ख़ास तौर पर बहुलतावादी वैचारिक बंधन वाले लोगों ने ज़िंदगी और मौत पर असाधारण शक्तियों का इस्तेमाल करने को लेकर हमारे भय और चिंताओं का जमकर फ़ायदा उठाया है। बहुसंख्यक अभिजात वर्ग ने विदेशी घटकों, अंतर्राष्ट्रीय निकायों की आलोचना करते हुए इस संकट को लेकर उनके ख़राब शासन-व्यवस्था की आलोचना का बचाव पहले ही कर दिया है, या उन्होंने उस तरह की राजनीतिक चर्चाओं को बढ़ावा दे दिया है,जिसमें अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया जा रहा है। दूसरी तरफ़, सरकार ने भी अपने राजनीतिक विरोधियों की ढिलाई को उजागर करना शुरू कर दिया है, खासकर उन क्षेत्रों में,जहां की स्थानीय सरकार एक विपक्षी पार्टी द्वारा संचालित है।

नागरिकों के स्वतंत्र और स्वायत्त प्राणियों वाले अधिकारों के अस्थायी स्थगन, उनके जैविक अस्तित्व को "महज जीवन" तक ही बनाये रखने की कोशिश को रेखांकित करता है। इतालवी दार्शनिक एगाम्बेन ने कहा है कि इस महामारी से पैदा होने वाले संकट का असाधारण शक्ति के सामान्यीकरण के औचित्य के रूप में इस्तेमाल किया जायेगा। चल रहे राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन, सीलिंग, नियंत्रण क्षेत्र, और स्वच्छता अभियान के सूक्ष्म चश्मे के माध्यम से स्थानीय रूप से लागू लॉकडाउन के तहत भारत के साथ-साथ यहां के नागरिक एक "प्राणी" के रूप में बचे रहने के नाम पर अन्य अधिकारों के साथ समझौता करने के लिए ख़ुद से ही ख़ुद को अलग कर रहे हैं।

अभिजात्य वर्गों के लिए इस नतीजे पर पहुंचना मुश्किल नहीं है कि उन मज़दूरों को मज़दूरी नहीं दी जाये, जिन्हें राशन दिये जाने का भरोसा दिया गया है! इसके साथ जो डर है, वह यह कि राजनीतिक व्यवस्था में राजनीति से “इतर” निकायों को जीवन के “इतर” या जीवन के ख़तरे के रूप में बनाये रखने की शक्ति होती है।

अब मोबाइल फ़ोन के इस्तेमाल के ज़रिये लोगों की निगरानी की जाने  लगी है, और उनकी आवाजाही और सामाजिक संपर्कों पर नज़र रखी जा रही है। हर किसी को एक "संदिग्ध" के रूप में देखा जा रहा है। इस महामारी के समय नागरिक और राजनीतिक अधिकारों की बातें बहुत पीछे छूट गयी हैं।

आज के कुछ सबसे ज़्यादा ज़रूरी सवालों में सिर्फ़ चिकित्सा और आर्थिक सवाल ही नहीं, बल्कि राजनीतिक सवाल भी हैं। क्या हक़-ओ-हुक़ूक के स्थगित किये जाने की यह राजनीति अभी और आगे जायेगी और क्या वह और गहरी होती जायेगी?  सवाल यह भी है कि इस महामारी से उबर जाने के बाद, हम इस महामारी की राजनीति से कैसे उबर पायेंगे? यही उचित समय है, जब हमें ये प्रश्न पूछना शुरू कर देना चाहिए।

(लेखक मनीष के झा स्कूल ऑफ सोशल वर्क, टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, मुंबई में प्रोफ़ेसर हैं, और एम इब्राहिम वानी कश्मीर विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफ़ेसर हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल लेख को नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करके पढ़ा जा सकता है।

The Upward Slope of Pandemic Politics

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