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मानसून सत्र 2023 में लोकतंत्र पर वार, विरोध के बाद भी संसद में पेश हुए ये बिल

विपक्ष से लोकतांत्रिक चर्चा के बिना संसद में बिल पेश करने से लेकर पास करने तक के पैटर्न और कड़ी आलोचना ने आज भारत में लोकतंत्रिक व्यवस्था की दशा पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं.
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लोकतांत्रिक समाज के जटिल ताने बाने में मूल अधिकारों, अल्पसंख्यकों के अधिकारों की सुरक्षा ही न्याय और समानता और बहुलता के लिए हमारी प्रतिबद्धता तय करती है. CJP (Citizens for Justice and Peace) अनेक कैंपेन्स के जरिए अभिव्यक्ति की आज़ादी, अल्पसंख्यक अधिकार, बाल अधिकार और शिक्षा के अधिकार के अलावा आपराधिक न्याय में सुधार के लिए संकल्पबद्ध होकर काम कर रही है.  इन अनिवार्य मुद्दों पर संघर्ष के ज़रिए CJP ने हाशिए पर ज़िन्दगी गुज़ार रहे लोगों की मज़बूत पैरवी की है और उनकी लोकतांत्रिक अधिकारों तक पहुंच आसान की है.

हालांकि भारतीय संसद में हालिया क़ानूनी विकास और बदलावों से इन सिद्धांतों पर गहरी चिंता पैदा होती है. इस मानसून सत्र में ऐसे अनेक बिल पेश किए गए हैं जो इस तनाव को गहरा करते हैं. इन सबमें वन संरक्षण संशोधन अधिनियम, 2023 तेज़ विकास की दौड़ और पर्यावरणीय सुरक्षा के बीच में एक नाज़ुक संतुलन की तरफ़ ध्यान खींचता है. सिविल सोसाइटी और इनवायरमेंट समर्थकों की ख़िलाफ़त के बावजूद यह बिल लोकसभा में पारित किया जाना सदन की प्रक्रिया पर सवाल खड़ा करता है.

इसके अलावा भी अनेक ऐसे बिल हैं जो जनता के विरोधऔर चिंता के बावजूद संसद में पारित या पेश किए गए हैं. जबकि इस श्रृंखला में कुछ ऐसे बिल भी शामिल हैं जो संविधान द्वारा सौंपे गए अधिकारों पर सवाल उठाते हैं.

1.   डिजिटल डेटा सुरक्षा अधिनियम

जनता के विरोध और आलोचना की आवाज़ों के बीच लोकसभा में डिजिटल डेटा सुरक्षा अधिनियम  पास कर दिया गया है. यह बिल संघ सरकार को अपार शक्तियां देने के कारण काफ़ी विवादित कहा जा रहा है. इस बिल का मक़सद देश के तेज़ी के विकसित होते डिजिटल ढांचे के बीच डिजिटल निजी डेटा की सुरक्षा के लिए एक संपूर्ण ढ़ांचा तैयार करना बताया जा रहा है. 

मुख्य प्रावधान

डिजिटल डेटा सुरक्षा अधिनियम में अनेक ऐसे प्रावधान हैं जो निजी डेटा को संलग्न करने, इस्तेमाल करने और शेयर करने को नियंत्रित करते हें.

यूज़र्स की स्पष्ट सहमति- इस बिल के मुताबिक़ यूज़र्स के डेटा का इस्तेमाल करने से पहले उनकी सहमति लेना ज़रूरी है. ये इस बात का आश्वासन है कि लोगों को अपने निजी डेटा पर पूरा अधिकार हासिल है.

क़ानूनी इस्तेमाल की आज़ादी- जहां एक ओर ये बिल मर्ज़ी का सिद्धांत रखता है वहीं दूसरी तरफ़ क़ानूनी प्रयोग के नाम पर बिना सहमति के भी डेटा इकट्ठा करने का अधिकार देता है. इसके मुताबिक़ विशेष परिस्थितयों जैसे कि पेमेंट रसीद और सार्वजनिक सेवा में इसका इस्तेमाल किया जा सकता है.

सरकारी अधिपत्य- ये बिल भारत सरकार को स्टार्ट-अप्स और डेटा फ़िड्यूसरिज़ के लिए शर्तें तय करने का अधिकार देता है. यहां तक की सरकार को डेटा प्रोटेक्शन बोर्ड बनाकर सदस्यों और अध्यक्ष को नियुक्त करने का अधिकार देता है.

अंतर्राष्ट्रीय असर- ये बिल भारतीय सीमाओं के बाहर तक दख़ल रखता है यानि कि भारत के बाहर भी डेटा के लेन-देन पर इसे लागू किया जा सकेगा. हालांकि विदेश में ये भारतीयों को अनेक सेवाएं भी प्रदान करता है.

चुनौतियां और चिंताएं

डिजिटल डेटा सुरक्षा अधिनियम डेटा की सुरक्षा और निजता के अनेक प्रबंध के बावजूद विवादित रहा है. नागरिक अधिकारों और निजता तय करने के लए इसका जायज़ा ज़रूरी है.    

1. RTI एक्ट में संशोधन
 
इसके तहत RTI एक्ट के सेक्शन 8(1)(j) में संशोधन किया गया है. RTI एक्ट सार्वजनिक हित के लिए निजी डेटा के इस्तेमाल की इजाज़त देता है वहीं दूसरी तरफ़ ये संशोधन निजी सूचना के ख़ुलासे को प्रतिबंधित करते हैं जिससे डेटा संबंधी भ्रष्टाचार बढ़ने का ख़तरा गहरा पैदा होता है.  

डेटा प्रोटेक्शन बोर्ड की स्वतंत्रता का अभाव- इस अधिनियम के तहत सरकार को महत्वपूर्ण शक्तियां सौंपी गई हैं, जिसके अनुसार सरकार डेटा सुरक्षा बोर्ड के अध्यक्ष और सदस्यों को नियुक्त कर सकती है. उचित आज़ादी के अभाव में बोर्ड के फ़ैसलों और कार्यवाही पर सरकार का असर होने का ख़तरा बना रहता है.   

अत्यधिक सरकारी नियंत्रण- सूचना जारी करने और नियम बनाने में सरकार की अपार शक्ति एक और ख़तरा है. इसके मुताबिक़ सरकार निजी और सरकारी दोनों ही क्षेत्रों में विशेष डेटा सुरक्षा अधिनियम लागू कर सकती है जिससे डेटा सुरक्षा के पूरे ढांचे में गिरावट आ सकती है. 

सरकारी छूट और उत्तरादायित्व की कमी- इस बिल के प्रावधान सरकार को विशेष हालातों में निजी डेटा के प्रयोग का अधिकार देते हैं. इसके तहत बोर्ड और सरकार किसी भी क़ानूनी कार्रवाई से सुरक्षित हैं, जिससे कि डेटा के मनमाने प्रयोग का डर बढ़ जाता है. इसमें सरकारी उत्तरादायित्व में कमी के चलते निजी डेटा के दुरूपयोग के बारे में गहरी चिंताएं पैदा होती हैं.

सीमित निवारण तंत्र- इस बिल में नियमों के उल्लंघन के लिए फ़ाइन और पेनाल्टी के प्रावधान हैं लेकिन जनता के लिए ऐसी किसी व्यवस्था का अभाव है जिसके तहत डेटा संरक्षण संबंधी निजता का हनन होने पर आसानी से बोर्ड से संपर्क किया जा सके. प्रतिकार के सही उपायों की कमी से बिल के सकारात्मक प्रभाव पर सवाल पैदा होते हैं.

2.   वन (संरक्षण) संशोधन विधेयक, 2023

लोकसभा में पास वन (संरक्षण) संशोधन विधेयक 2023  के साथ अल्पसंख्यकों व हाशिए पर जीवन बसर कर रहे समुदायों और पर्यावरण को लेकर गहरी चिंताएं बढ़ी हैं. विपक्ष के विरोध के बावजूद इस बिल को महज़ 30 मिनट में अनुमोदन मिल गया जिसके बाद इस बिल को लागू करने को लेकर चिंताएं बढ़ गई हैं. यह बिल वन संरक्षण अधिनियम, 1980 में महत्वपूर्ण बदलाव पेश करता है और भारत के बार्डर से 100 किमी तक के दायरे को राष्ट्रीय सुरक्षा प्रोजेक्टस, रोडसाइड फ़ैसिलिटी और पुनर्वास ठिकानों की ओर जाते मार्गों को वन संरक्षण क़ानूनों से बाहर रखता है. इस संशोधन से पर्यावरण और मूल निवासी समुदायों के बारे में चिंता गहरी होती है.   

अधिकार क्षेत्र और छूट पुनः परिभाषित- यह बिल केंद्र सरकार को सीमा के 100 किमी दायरे में आने वाली ज़मीन को परिभाषित करने और वहां किसी गतिविधि की इजाज़त देने का अधिकार देता है जिसके तहत जंगल से अलग किसी दूसरे मक़सद (non-forest purposes) वाली गतिविधियां भीं अंजाम दी जा सकती हैं.

जहां एक तरफ़ इसे राष्ट्रीय विकास के लिए ज़रूरी बताया जा रहा है वहीं दूसरी तरफ़ इसे वन, मूल निवासी समुदायों और संसाधनों पर उनकी निर्भरता के लिए नुक़सानदेह भी बताया जा रहा है.

क़ानूनी और पर्यावरणीय चिंताएं- आलोचकों ने इसे लेकर 1996 के सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले की ओर ध्यान खींचा है, जिसमें 1980 के अधिनियम को बिना वर्गीकरण के सारे जंगलों पर लागू किया गया था. जबकि नए बिल में इसे सिर्फ़ प्रमाणित वन क्षेत्रों तक सीमित कर दिया गया है. जिससे जंगल के कटाव, इकोसिस्टम का नुक़सान और हैबिटेट को लेकर चिंताएं बढ़ी हैं. आलोचकों का कहना है कि बिल में पर्यावरण के नुक़सान की क्षतिपूर्ति के लिए पेश वनारोपण का सुझाव नाकाफ़ी है.

संघीय ढांचा और मूल निवासियों के अधिकार- केंद्र सरकार द्वारा नॉन फॉरेस्ट गतिविधि की परिभाषा तय करने का हक़ राज्य सरकारों के अधिकार का अतिक्रमण है. मूल समुदाय सामान्य तौर पर जंगलों में निवास करते हैं जिनपर इस अधिनियम के प्रावधानों का नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है. इस एक्ट में वन अधिकार अधिनियम 2006 के उल्लंघन की भी संभावनाएं हैं जिससे आदिवासी स्थानांतरित हो सकते हैं और उनका जीवनयापन भी प्रभावित हो सकता है.

अल्पसंख्यकों और वंचितों पर प्रभाव- आदिवासियों और हाशिए पर बसर करने वाले अनेक समूह भोजन, औषधि और सांस्कृतिक नज़रिए से जंगल पर निर्भर हैं, ऐसे में जंगल की ज़मीन से ख़ारिज होना इकोसिस्टम और उनके जीवन को बुरी तरह प्रभावित कर सकता है जिससे पहले से व्याप्त असमानताएं और भी गहरे होने का ख़तरा है. इससे इन वंचित तबक़ों के अधिकार और आज़ादी का हनन हो सकता है. इस अधिनियम को लागू करने के क़ानूनी, पर्यावरणीय, और सामाजिक- आर्थिक तरीक़े भी आलोचकों को निशाने पर रहे हैं.
 
3.   जैविक विविधता संशोधन विधेयक

राज्य सभा में जैविक विविधता संशोधन विधेयक के प्रावधान भी काफ़ी विवादित रहे हैं. व्यापार और कारोबार को बढ़ावा देने (ख़ास तौर से आयुष इंडस्ट्री में) के मक़सद से केंद्रीय मंत्री भूपेंन्द्र  यादव ने मौजूदा जैव विविधता अधिनियम, 2002 में संशोधन पेश किए थे.  विरोध की आवाज़ों के बीच यह बिल दोनों सदनों में ध्वनि मत से पारित कर दिया गया है.   

आलोचना और चिंताएं- संवाद और मुनाफ़े में बराबर हिस्सेदारी के आधार पर आयुष इंडस्ट्री को प्रमोट करने का मसौदा पेश करने के लिए इस बिल की लगातार अलोचना की गई है. आलोचकों के अनुसार पुरातन ज्ञान का इस्तेमाल और आयुष में शामिल लोगों को स्थानीय समुदायों से जोड़ना जैव संसाधनों के न्यायपूर्ण वितरण के ख़िलाफ़ है.

जैव विवधता से जुड़े अपराधों को अपराध की श्रेणी से बाहर करने और उसे नियत पैनल्टी से स्थानांतरित करने के कारण भी यह गहरी आलोचना का शिकार हुआ है. इस बिल ने सरकारी अधिकारियों और न्यायपालिका के बीच संतुलन पर भी सवाल खड़े किए हैं.

मूल अधिकारों पर प्रभाव- इससे पहले जैविक विविधता अधिनियम 2002, जैव विविधता और समान लाभ के लिए संवैधानिक दायरे के अनुरूप काम कर रहा था जिससे कि वर्तमान और भविष्य की पीढ़ियों के लिए पर्यावरण सुधारा जा सके. लेकिन यह नया अधिनयम व्यापार की आसानी के लिए व्यवसायिक उद्देश्यों को सबसे ऊपर रखता है जिससे कि जैविक विविधता के संसाधनों का नुक़सान हो सकता है.

इससे एक बेहतर पर्यावरण, पुरातन ज्ञान और प्राकृतिक संसाधन पर मूल और स्थानीय समुदायों के अधिकार का हनन होता है. पॉलिसी को संबोधित करता ये अधिनियम भारत में मूल अधिकारों और संरक्षण पर चिंता पैदा करता है. इस अधिनियम के लागू होने के बाद ज़रूरी है कि नीति निर्माता, सिविल सोसाइटी और स्टेक होल्डर इन अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए लगातार काम करें.

4. दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र शासन (संशोधन) अधिनियम 2023

दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र शासन (संशोधन) अधिनियम, 2023 को दिल्ली सर्विस बिल भी कहा जाता है. यह बिल दिल्ली सरकार में नियुक्तियां, स्थानांतरण और नौकरशाहों में पोस्ट के आवंटन पर केंद्र सरकार के नियंत्रण का अधिकार देता है.

इसके पक्ष में एक बेहतर प्रशासनिक कार्यवाही स्थापित करने का तर्क दिया जा रहा है लेकिन आलोचक इसे लोकतांत्रिक मूल्यों, संघवाद और शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत के ख़िलाफ़ देख रहे हैं जो कि भारतीय लोकतंत्र के लिए कई मायनों में नुक़सानदेह हो सकता है.
 
लोकतांत्रिक मूल्यों का उल्लंघन- ये बिल न सिर्फ़ चुने हुए मुख्यमंत्री और राज्य व्यवस्थापिका पर केंद्र सरकार को अधिपत्य देता है बल्कि कार्यपालिका और व्यवस्थापिका में शक्ति के विभाजन पर भी सवाल उठाता है. शक्ति का ये स्थानांतरण ऐसे हालात पैदा कर सकता है जहां नौकरशाही के फ़ैसले लोकतांत्रिक जवाबदेही के बिना लिए जा सकते हैं.

संघवाद का उल्लंघन- केंद्र और राज्य में शक्तियों और ज़िम्मेदारियों का बंटवारा भारतीय संविधान की मूल विशेषता है लेकिन ये दिल्ली सर्विस बिल नौकरशाही में नियुक्ति और तबादलों पर केंद्र सरकार को अनियंत्रित शक्ति सौंपकर इस सिद्दांत का उल्लंघन करता है. यह बिल केंद्र औऱ राज्य के बीच संतुलन के लिए ख़तरा है जिससे कि अन्य समान राज्यों के लिए भी ऐसी प्रक्रिया का मानक तय हो सकता है. जिससे कि भारतीय संघवाद कमज़ोर पड़ने के आसार पनपते हैं

शक्ति पृथक्करण पर ख़तरा- केंन्द्र सरकार को अपार शक्तियां देकर ये अधिनियम केंद्र सरकार को नौकशाहों की नियुक्ति पर असीमित नियंत्रण देता है जो कि कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में आता है. इससे व्यवस्थापिका और कार्यपालिका में शक्ति का विभाजन धुंधला पड़ता है.

असंवैधानिक स्वरूप- इस बिल के परिचय से पहले मई में सुप्रीम कोर्ट ने सेवा और प्रशासन के मद्देनज़र दिल्ली की चुनी हुई सरकार के महत्व को रेखांकित किया था. जबकि इस बिल के तहत लेफ़्टिनेंट गवर्नर को अपार शक्तियां सौंप दी जाएंगी जिससे उसे ऐसे मामलों में भी निर्णय लेने का अधिकार हासिल होगा जो कोर्ट के मुताबिक़ इस दायरे में नहीं आता है.

5- जन्म-मृत्यु पंजीकरण संशोधन अधिनियम, 2023

यह बिल जन्म -मृत्यु पंजीकरण अधिनियम, 1969 में संशोधन के तौर पर प्रस्तुत किया गया है. इसके साथ ही पेश ख़ाके को लेकर लोकसभा में निजता, लोकतांत्रिक अधिकारों औऱ वंचित आबादी पर मतभेद बढ़ गया है.

निजता पर खतरा- सरकारी अधिकारियों से संवेदनशील जानकारी साझा करके लोग डेटा पर अपना नियंत्रण खो सकते हैं जिससे डेटा के ग़लत इस्तेमाल की संभावनाएं पैदा होती हैं. डेटाबेस पर निंयंत्रण के लिए यहां इस बारे में स्पष्ट गाइडलाइन का अभाव है जिससे सरकार के इरादों औऱ नागरिकों की निजता की हिफ़ाज़त पर गहरा सवाल खड़ा होता है.

लोकतांत्रिक अधिकारों पर प्रभाव

1-शिक्षा का अधिकार- इस बिल के तहत स्कूल में प्रवेश के लिए जन्म प्रमाण पत्र अनिवार्य होगा जो सीधे तौर पर सर्टिफ़िकेट हासिल करने की जद्दोजहद में लगे वंचित तबक़ों के लिए शिक्षा के अधिकार के लिए ख़तरा है.  

2-मतदान का अधिकार- मतदान के लिए जन्म प्रमाणपत्र अनिवार्य करके यह बिल उन समुदायों को मताधिकार के दायरे से बाहर कर देता है जिनके पास काग़ज़ात नहीं हैं. इससे चुनावी प्रक्रिया की समग्रता पर भी सवाल खड़ा होता है.  

हाशिए की आबादी पर प्रभाव- इस बिल के प्रावधान वंचित समूहों के बुनियादी सेवाओं के लिए जारी संघर्ष को मुश्किल बनाते हैं. अनेक ज़रूरी सेवाओं के लिए जन्म प्रमाण पत्र की अनिवार्यता से वंचित तबक़ों में विभाजन बढ़ता है.  

डेटा का केन्द्रीकरण और अतीत के सबक- यह संशोधन जन्म और मृत्यु के डेटा को केंद्रीकृत करता है जबकि इतिहास गवाही देता है कि केन्द्रीकरण समस्याओं का हल पेश करने के बजाय मुश्किलों को बढ़ाता है. डेटा केन्द्रीकरण के बजाय सरकार को जन्म औऱ मृत्यु के पंजीकरण को आसान बनाना चाहिए.

प्रावधानों की कमी- इस संशोधन में जो सवाल उठाए गए हैं उनके लिए अधिनियम में उचित प्रावधानों की कमी है. इसमें उचित नियमों और गाइडलाइन्स का अभाव है जिससे कि वंचित तबक़ों को ख़ारिज किए जाने से महफ़ूज़ रखा जा सके.

ख़ारिज करने की वैधानिकता- यह अधिनियम वंचित तबकों की समस्याओं को दरकिनार करते हुए पहले से जारी असमानताओं की जड़ें मज़बूत करता है. इसमें जन्म और मृत्यु के पंजीकरण के लिए एक राष्ट्रीय डेटाबेस का ज़िक्र है जिसके नतीजों की पड़ताल की जानी चाहिए.

इस डेटा आधारित सरकार में व्यैक्तिक अधिकारों की सुरक्षा और समानता के मूल्यों पर आधारित समाज का निर्माण ज़रूरी है.
 
6- प्रेस और पत्रिका पंजीकरण बिल, 2023

सूचना एंव प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर ने राज्य सभा में प्रेस और पत्रिका पंजीकरण बिल प्रस्तुत किया है जो कि पुस्तिका प्रेस औऱ पंजीकरण अधिनियम , 1867 (PRB) की जगह लेगा. हालांकि ‘उद्देशय औऱ कारण’  सूची में कहा गया है कि पेश अधिनियम मीडिया की स्वतंत्रता और कारोबार की आसानी के सिद्धांत पर आधारित है लेकिन यह समाचार और पत्रिकाओं की प्रक्रिया में राज्य को मनमाने दख़ल और पड़ताल का अधिकार देता है. Editor’s Guild of India ने इस विधेयक को तानाशाही स्थापित करने वाला बताया है.

प्रेस रजिस्ट्रार पर केंद्रीय नियंत्रण में इज़ाफ़ा- यह अधिनियम विशेष अधिकार के तहत सरकारी एजेंसियों को प्रेस रजिस्ट्रार पर अपार अधिकार सौंपता है जिससे वो रजिस्ट्रार के कार्य तय कर सकती हैं. जिसमें पुलिस औऱ लॉ इनफ़ोर्समेंट एजेंसियां भी इस दायरे में शामिल हैं.

 ग़ैरक़ानूनी गतिविधि के तहत गिरफ़्तार लोगों का पंजीकरण रद्द करना और निषेध करना- सेक्शन 4(1) और 11(4) रजिस्ट्रार को रजिस्ट्रेशन करने और आतंकी या ग़ैरक़ानूनी गतिविधि को लेकर या राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर किसी रजिस्ट्रेशन को रद्द करने की ताक़त देते हैं. PRB एक्ट 1867 में ऐसा कोई प्रावधान नहीं था. इससे UAPA क़ानून के दुरूपयोग की गुंजाइश मज़बूत होती है. इससे मीडिया और पत्रकारों पर देशद्रोह सहित आपराधिक मामले दर्ज कर अभिवयक्ति की स्वतंत्रता को बाधित किया जा सकता है.

प्रेस संगठनों की संपत्ति में दाख़िल होने का अधिकार- सेक्शन 6(B) के तहत प्रेस रजिस्ट्रार को मीडिया संगठनों की संपत्ति में दाख़िल होने, काग़ज़ात मांगने, सूचना के बारे में सवाल करने, काग़ज़ात की कॉपी रखने का अधिकार है. जबकि किसी मीडिया संगठन की संपत्ति में प्रवेश करना कई लिहाज़ से चिंताजनक है.  

क़ानून बनाने संबंधी शक्तियों का प्रसार चिंतनीय- ‘सेक्शन 19’ केंन्द्र सरकार को समाचार के प्रकाशन के लिए गाइडलाइन तय करने का अधिकार देता है. जबकि पिछले उदाहरणों से साफ़ होता है कि नियम बनाने के अधिकारों का मनमाना दुरूपयोग किया गया है.

इस मुद्दे पर क़ानून को प्रेस की आज़ादी सुनिशचित करने के लिए सरकार को इतनी शक्तियां नहीं सौंपनी चाहिए जिससे कि उनकी शिकायतों पर प्रेस में दख़ल दिया जा सके या बंद किया जा सके. फ़िलहाल यह बिल राज्य सभा में पास कर दिया गया है और लोक सभा में इसपर चर्चा के लिए विशेष संसदीय समिति का प्रस्ताव रखा गया है.
 
पिछले 5-10 सालों में पास ऐसे अन्य बिल- और पैटर्न

पिछले 5-10 सालों में अनेक ऐसे बिल पेश किए गए हैं जिससे क़ानूनी चुनौतियां गहरी हुई हैं और जो विवाद का मुद्दा बने हैं. ऐसे क़ानूनों का दायरा प्रशासन, भूमि अधिकार, सामाजिक न्याय और व्यैक्तिक स्वतंत्रता अनेक पहलूओं को स्पर्श करता है. ये बिल अपने स्वरूप, प्रक्रिया और लागू होने के तरीक़ों को लेकर अनेक बार गहरी आलोचना का शिकार हुए हैं. 

1.   लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम, 2013

लोकपाल और लोकायुक्त बिल को भ्रष्टाचार घटाने के लिए लाया गया था लेकिन नियुक्तियों में प्रधानमंत्री के प्रभाव और इसके सरकारी प्रभावों के कारण इसकी जवाबदेही और पारदर्शिता पर सवाल खड़े हुए थे.

2.   भूमि अधिग्रहण बिल, 2013 (2015 में संशोधित)

यह अधिनियम कार्पोरेट का पक्ष सामने रखकर किसानों और स्थानीय निवासियों की अवहेलना के कारण आलोचना का शिकार हुआ. जिसके एवज़ कानूनी जटिलताओं के साथ किसानों के मज़बूत विरोध प्रदर्शन की कड़ी भी जुड़ी.

3.   अनुसूचित जाति और जनजाति संशोधन विधेयक 2018

इसमें वंचित तबक़ों के लिए तय सुरक्षा प्रावधानों को हटा लिया गाया था जिसके बाद इन समुदायों ने सामाजिक सुरक्षा और समानता के पक्ष में एक विशाल विरोध प्रदर्शन किया.

4.   सरोगेसी बिल, 2019 (नियमनिर्धारण)

सरोगेसी बिल सिंगल पेरेंट्स और LGBTQ+ को सरोगेसी के हक़ से बाहर रखने के कारण काफ़ी विवादित शुमार किया जाता है. वैयक्तिक अस्तित्व और प्रजनन अधिकारों के प्रश्न को लेकर यह काफ़ी चर्चित था. 

5.   ट्रॉसजेंडर पर्सन्स बिल (अधिकारों की सुरक्षा हेतु) 2019

ट्रॉसजेंडर वर्ग के अधिकारों की पैरवी के लिए जारी इस बिल पर यह आरोप थे कि इसमें ट्रांसजेंडर लोगों के प्रति भेदभाव और अन्य मुद्दों को ठीक से संबोधित नहीं किया गया है. इसमें वजूद की पहचान और सम्मान की अवहेलना की गई थी.

6.   नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019 (CAA) 

नागरिकता संशोधन अधिनियम नागरिकता को लेकर मुसलमानों के प्रति एकतरफ़ा रवैये के कारण  कड़ी अलोचना के निशाने पर था. आलोचकों के मुताबिक इसमें मुसलमानों के प्रति भेदभावपूर्ण रवैया अपनाया गया था जो कि धार्मिक आज़ादी और समानता पर सवाल खड़े करता है.

7.   फ़ार्म बिल, 2020

फ़ार्म बिल का भी किसानों ने बड़े पैमाने पर प्रतिरोध किया था. इसमें मिनिमम सपोर्ट प्राइस (MSP) में गिरावट का सहारा लेकर कॉर्पोरेशन्स द्वारा किसानों के शोषण की संभावना व्यक्त की गई थी. जिससे उनके बार्गेनिंग पॉवर, आर्थिक आज़ादी और जीवन प्रभावित हो सकते थे.

8.   आर्टिकल 370 और 35 A उन्मूलन एक्ट

जम्मू कश्मीर में आर्टिकल 370 के उन्मूलन के बाद संघवाद, एक संप्रभुता और स्थानीय निवासियों के अधिकारों पर बहस तेज़ हो गई थी. आलोचकों ने संवैधानिक प्रावधानों के उन्मूलन पर सवाल उठाए थे जिससे क्षेत्र की पहचान और स्वतंत्रता प्रभावित हो सकती है.

लोकतंत्र का सवाल

लोकतंत्र की बुनावट में क़ानून पास करने की ये प्रक्रिया आम जन की आकांक्षा पर आधारित होनी चाहिए जिससे सर्वकल्याण की भावना को बल मिले लेकिन मौजूदा ट्रेंड ने लोकतांत्रिक प्रक्रिया की समग्रता पर ज़रूरी सवाल उठाए हैं.

पारदर्शिता का अभाव

पारदर्शिता एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए परिहार्य है जिससे यह तय होता है कि फैसले अवाम की सहमति से लिए जा रहे हैं लेकिन अगर आलोचनाओं के बावजूद बिल पास हो जाते हैं तो ये समुचित पारदर्शिता के अभाव को इंगित करता है.

अवाम की अवहेलना

अवाम की रॉय लोकतंत्र में नीतिनिर्माताओं के लिए बेदह अहम है, ऐसे में जनता के कड़े विरोध के बाद भी अधिनियमों पर मुहर लगने से ज्ञात होता है कि जनता की राय की अवहेलना की जा रही है.

उत्तरादायित्व का अभाव

इसी तरह आलोचना का संज्ञान लिए बिना बिल पास होने से उत्तरादायित्व के अभाव को बल मिलता है. जबकि एक बेहतर लोकतंत्र के संचालन के लिए ज़रूरी है कि सत्ताधारी अपनी कार्यवाही के लिए जवाबदेह हों.  

अल्पसंख्यकों की अवहेलना

लोकतंत्र में बहुसंख्यकों के अधिपत्य के ख़िलाफ़ अल्पसंखयकों के अधिकारों की रक्षा की जाती है ऐसे में असहमतियों के बीच बिल पास होने से अल्पसंखयक समूहों के बारे में चिंता पैदा होना लाज़मी है.

विश्वास की कमी

विश्वास एक लोकतांत्रिक समाज को आपस में जोड़ता है ऐसे में बिल के पास होने की प्रक्रिया से जनता में लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रति विश्वास कम होता है. जो कि एक बेहतर सुचारू लोकतंत्र के लिए हानिकारक है.

निष्कर्ष

इन उदाहरणों को देखते हुए कहा जा सकता है कि इन अधिनियमों के पास होने की प्रक्रिया अवाम की आवाज़ और अधिकारों की अवहेलना है. पारदर्शिता, उत्तरादायित्व, समग्रता, अल्पसंखयकों के अधिकारों की रक्षा के लिए ज़रूरी है कि क़ानूनी प्रक्रिया को नए सिरे से टटोला और बुना जाए. ग़ैर लोकतांत्रिक प्रारूप पर सवाल उठाने से ही उन आधारों की रक्षा की जा सकती है जिनपर एक मज़बूत लोकतंत्र की बुनियाद टिकी है.  
 
(लेखिका संस्थान के साथ बतौर इंटर्न कार्यरत हैं.)

साभार : सबरंग 

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