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प्रतिष्ठान की कपटलीला बनाम छात्र आंदोलनकारियों की मानवीयता

छात्र शुद्ध रूप से मानवीयता की भावना से संचालित हैं। उनकी विरोध कार्रवाइयां नरसंहार के प्रति, सैटलर उपनिवेशवाद के प्रति और एक रंगभेदी यहूदीवादी निजाम के साथ साम्राज्यवादी मिलीभगत के प्रति, वितृष्णा से प्रेरित हैं।
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फ़ोटो साभार : Dan Kitwood/Getty Images

अमेरिकी विश्वविद्यालयों में इस समय, इजराइली सैन्य मशीन से जुड़ी फर्मों से ‘‘नाता तोडऩे’’ की मांग को लेकर जो विरोध कार्रवाइयां फूट पड़ी हैं, साठ के दशक के उत्तरार्द्ध और सत्तर के दशक के पूर्वार्द्ध में विश्वविद्यालय परिसरों में उठी विरोध कार्रवाइयों की लहर की याद दिलाती हैं।

छात्रों का सिद्धांत निष्ठ विरोध बनाम सत्ता की अगंभीरता

साठ-सत्तर के दशक की छात्र आंदोलन की लहर, वियतनाम युद्घ बंद करने की मांग पर उठी थी। बहरहाल, छात्रों के विरोध की इन दो लहरों के बीच एक बड़ा अंतर भी है। साठ-सत्तर के दशक के प्रसंग में अमेरिका सीधे संबंधित युद्घ में लिप्त था, जबकि वर्तमान प्रसंग में ऐसा नहीं है। पहले वाले प्रसंग में फिर भी जबरन सैन्य भर्ती या ड्राफ्ट का मुद्दा था, लेकिन आज तो वह मुद्दा भी नहीं है। और यह वर्तमान छात्र विरोध प्रदर्शनों को छात्रों के अपने स्वार्थ की रत्तीभर छाया से भी पूरी तरह से मुक्त विरोध का मामला बना देता है। दूसरी ओर, क्योंकि तब अमेरिका सीधे युद्घ में लिप्त था और इसलिए, युद्घ में हर रोज हो रही अमेरिकी सैनिकों की मौतें, वियतनाम युद्घ रुकवाने की मांग को अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान के अंदर एक गंभीरता दे देती थीं, दुर्भाग्य से प्रतिष्ठान के स्तर पर इस प्रकार की मांगों के प्रति वैसी गंभीरता, इस समय पीड़ा दायक तरीके से गायब है। इसलिए, अमेरिका का सीधे इस लड़ाई में संलिप्त नहीं होना, छात्रों की इन विरोध कार्रवाइयों को और ज्यादा सिद्धांत निष्ठ तथा गंभीर बना देता है, जबकि सत्ता प्रतिष्ठान की शांति स्थापित करने की घोषणाओं को, उतना ही कम सिद्धांत निष्ठ तथा उतना ही कम गंभीर बना देता है।

संक्षेप में यह कि छात्र शुद्ध रूप से मानवीयता की भावना से संचालित हैं। उनकी विरोध कार्रवाइयां नरसंहार के प्रति, सैटलर उपनिवेशवाद के प्रति और एक रंगभेदी यहूदीवादी निजाम के साथ साम्राज्यवादी मिलीभगत के प्रति, वितृष्णा से प्रेरित हैं। ये विरोध कार्रवाइयां मानवता की, शांति तथा भाईचारे की तलाश की अभिव्यक्ति हैं। दूसरी ओर, अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान दोमुंहापन बरत रहा है। शांति के पक्ष मेें जुबानी जमा-खर्च करते हुए भी वह, इस टकराव को लंबा खिंचवाने के लिए सब कुछ कर रहा है। वह घोषणाएं तो निर्दोष नागरिकों पर क्रूरता बरपा किए जाने के खिलाफ होने की करता है, लेकिन इस तरह की क्रूरता करने के लिए हथियारों की आपूर्ति करना लगातार जारी रखे हुए है। एक पक्ष में, छात्रों के पक्ष में, जो मानवता है, उसके बरक्स दूसरे पक्ष में कपटलीला दिखाई देती है। अगर पहला यानी छात्रों का पक्ष भविष्य के लिए उम्मीद का हरकारा है, तो दूसरा यानी सत्ता प्रतिष्ठान का पक्ष, एक लडख़ड़ाते साम्राज्यवाद की बदहवास कपटलीला का प्रतिनिधित्व करता है।

साम्राज्यवाद की बदहवास कपटलीला

यह कपटीपन हरेक स्तर पर दिखाई देता है। अनेक वर्षों से औद्योगिक देश, फिलिस्तीन के मुद्दे के ‘‘दो-राज्य’’ आधारित समाधान के लिए यानी इसके लिए प्रतिबद्ध रहे हैं कि इजराइली राज्य (देश) के साथ, साथ एक फिलिस्तीनी राज्य होना चाहिए। अब मुद्दा यह नहीं है कि क्या ‘‘एक राज्य’’ पर आधारित समाधान यानी एक ही देश, जिसकी केंद्रीय कार्यपालिका सार्वभौम वयस्क मताधिकार के जरिए चुनी जाए और जिसकी सीमाओं के अंदर फिलिस्तीनी और इजराइली मिलकर रहें, ‘‘दो-राज्य’’ पर आधारित समाधान से बेहतर होगा या नहीं? मुद्दा यह है कि दो-राज्य आधारित समाधान के लिए, बहुत पहले से अंतरराष्ट्रीय जनमत की और साम्राज्यवादी देशों की भी, मंजूरी बनी हुई है। इस दो-राज्य आधारित समाधान का स्वाभाविक हिस्सा यह है कि फौरन एक फिलिस्तीनी राज्य कायम हो और उसे संयुक्त राष्ट्र संघ के पूर्ण सदस्य के रूप में मान्यता दी जाए। इसके बावजूद, जब भी फिलिस्तीन को संयुक्त राष्ट्र संघ में पूर्ण सदस्य का दर्जा दिए जाने का सवाल आता है, प्रकटत: इस विचार के लिए वचनबद्ध होने के बावजूद अमेरिका, सुरक्षा परिषद में, जो कि इस मामले में अंतिम निर्णयकारी निकाय है, अपने वीटो का प्रयोग करता आया है।

यही 19 अप्रैल को हुआ। यहूदीवादी इजराइली राज्य नहीं चाहता है कि स्वतंत्र फिलिस्तीनी राज्य कायम हो क्योंकि ऐसा हुआ तो उसका सैटलर उपनिवेशिक प्रोजेक्ट ही बंद हो जाएगा। और अमेरिका, अपने सारे सार्वजनिक दिखावे के बावजूद, जब भी फैसले का सवाल आता है, हर बार यहूदीवादी प्रोजेक्ट के साथ खड़ा हो जाता है। 10 मई को एक बार फिर, संयुक्त राष्ट्र संघ ने प्रचंड बहुमत से (प्रस्ताव के पक्ष में 143 वोट, विरोध में 9 वोट और मतदान से ही दूर रहे 25 वोट) फिलिस्तीन की पूर्ण सदस्यता का प्रस्ताव मंजूर किया और सुरक्षा परिषद से इस मामले पर विचार करने का अनुरोध किया। लेकिन, जहां अमेरिका ने, अर्जेंटीना तथा हंगरी जैसे दुनिया के कुछ सबसे घोर दक्षिणपंथी शासनों के साथ, उक्त प्रस्ताव के खिलाफ वोट किया, अन्य औद्योगिक देश (एक फ्रांस ही अपवाद रहा जिसने प्रस्ताव के पक्ष में वोट किया) मतदान से अलग रहे। दोबारा जब भी सुरक्षा परिषद के सामने यह प्रस्ताव आएगा, इसमें किसी शक की गुंजाइश नहीं है कि अमेरिका फिर से उसे वीटो कर देगा और इस प्रकार न सिर्फ शांति की सभी संभावनाओं का रास्ता रोक रहा होगा बल्कि इस समस्या का समाधान निकालने की, विश्व आबादी के प्रचंड बहुमत की इच्छा का भी रास्ता रोक रहा होगा।

छात्र आंदोलन के प्रति प्रतिष्ठान का बैर-भाव

ऐसा ही कपटीपन, वर्तमान छात्र आंदोलन के साथ अमेरिकी प्रतिष्ठान के बर्ताव में देखा जा सकता है। विरोध कार्रवाइयों के शांतिपूर्ण बने रहने के बावजूद, छात्रों द्वारा खड़े किए गए खेमों को तोडऩे के लिए अनेक परिसरों में पुलिस को भेजा गया है और सैकड़ों छात्र प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार किया गया है। शांतिपूर्ण विरोध कार्रवाइयों से निपटने के लिए दमनकारी उपायों का सहारा लेना, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर ही हमला है। इसके बावजूद, डोनाल्ड ट्रम्प से लेकर जो बाइडेन तथा हिलेरी क्लिंटन तक, समूचे अमेरिकी प्रतिष्ठान ने इन कदमों को उचित ठहराया है। डोनाल्ड ट्रम्प ने तो कहा है कि ‘रैडीकल भीड़ों ने कॉलेज परिसरों पर कब्जा कर लिया है’ और उसने बाइडेन पर इन ‘भीड़ों’ के साथ मिलीभगत का आरोप लगाया है। जहां तक बाइडेन का सवाल है, उन्होंने आम तौर पर उदारपंथी राय के अनुरूप, मिसाल के तौर पर कोलंबिया विश्वविद्यालय में, पुलिस की कार्रवाई का खुलकर समर्थन किया है और प्रदर्शनकारी छात्रों पर ‘सामीविरोधी’ यानी यहूदीविरोधी होने का आरोप लगाया है। यह आरोप एकदम ऊट-पटांग है क्योंकि तथ्य यह है कि छात्र प्रदर्शनकारियों में बड़ी संख्या में यहूदी छात्र भी शामिल हैं! हिलेरी क्लिंटन ने छात्रों पर मध्य-पूर्व के इतिहास से अनभिज्ञ होने का आरोप लगाया है, जैसे मध्य-पूर्व के इतिहास की जानकारी से, जनसंहार करने को उचित ठहराया जा सकता हो!

वियतनाम युद्घ विरोधी आंदोलन को एक वक्त पर यूजिनी मैकार्थी और रॉबर्ड केनेडी जैसी अमेरिका की बड़ी-बड़ी सार्वजनिक हस्तियों का समर्थन हासिल हो गया था। लेकिन, पुन: इसके पीछे अमेरिका का उस युद्घ में सीधे शामिल होना था। वर्तमान मामले में, प्रतिष्ठानिक राजनीतिज्ञों की पूरी की पूरी फौज युद्घ के पक्ष में और छात्रों के खिलाफ लामबंद हो गयी है।

छात्रों की ऐसी ही विरोध कार्रवाइयां औद्योगिक दुनिया में अन्यत्र भी सामने आयी हैं और अनेक शिक्षा परिसरों में ऐसे ही दमनकारी कदमों का सहारा लिया गया है। लेकिन, इन दमनकारी तौर-तरीकों  के कड़े विरोध के मामले भी सामने आए हैं। मिसाल के तौर पर ब्रिटेन में प्रधानमंत्री ऋषि सुनक ने, जिन विश्वविद्यालयों में इस तरह की छात्र विरोध कार्रवाइयां सामने आयी हैं, उनके वाइसचांसलरों को सलाह दी थी कि इन प्रदर्शनों को तितर-बितर करने के लिए, सरकार की दमनकारी मशीनरी का इस्तेमाल करें। लेकिन, सभी वाइसचांसलरों ने इस सलाह का बुरा माना है और कुछ ने तो प्रधानमंत्री द्वारा बुलायी गयी एक बैठक में शामिल होने से भी इंकार कर दिया है। लेकिन, अमेरिका में इस तरह का कोई विरोध देखने को नहीं मिला है। जिन विश्वविद्यालय प्रमुखों ने अपने खुद ही यह तय करने के अधिकार का आग्रह किया है कि इन छात्र प्रदर्शनों से कैसे निपटा जाए, उन्हें इस्तीफे देने के लिए मजबूर कर दिया गया है।

अमेरिका में नये मैकार्थीवाद की आहट

विश्वविद्यालय परिसरों में विचारों के इस तरह के दमन के चलते ही, अमेरिका में एक नये मैकार्थीवाद के छेड़े जाने के आरोप लग रहे हैं। उस दौर की ही तरह आज भी, दक्षिणपंथी सांसदों का ही एक समूह है जो, विश्वविद्यालय परिसरों में स्वतंत्र चिंतन के दमन की कोशिशों की अगुआई कर रहा है। लेकिन, यहां एक सवाल उठता है कि 1950 के दशक में तो फिर भी मैकार्थीवाद के पीछे शीत युद्घ की और कम्युनिज्म के डर की पृष्ठïभूमि थी। आज, संदर्भ के रूप मेें क्या है जो इस नये मैकार्थीवाद को संचालित कर रहा है?

इसमें किसी शक की गुंजाइश नहीं है कि यह नया मैकार्थीवाद, नव-उदारवादी पूंजीवाद के संकट की पृष्ठभूमि में, पूंजीवादी दुनिया में दक्षिणपंथ तथा नव-फासीवाद के उभार के साथ जुड़ा हुआ है। नव-फासीवाद के उभार ने किया यह है कि उसने न सिर्फ अब तक राजनीतिक हाशिए पर रहे फासीवादी तत्वों को, राजनीतिक मंच के केंद्र में पहुंचा दिया है, इसके साथ ही उसने इस तरह के तत्वों को तथाकथित ‘उदारपंथी’ राजनीतिक शक्तियों पर वर्चस्व भी हासिल करा दिया है, जिससे एक कमोबेश एकीकृत दक्षिणपंथी सर्वानुमति बन सके, जो वामपंथ के नव-जीवन की तमाम कोशिशों को कुचल सके।

यह उल्लेखनीय है कि जब जेरेमी कॉर्बिन को ब्रिटेन में लेबर पार्टी का नेता चुना गया और उन्होंने सत्ता प्रतिष्ठान के लिए ऐसी चुनौती पेश की जिससे प्रतिष्ठान को चीजें हाथ से बाहर जाती नजर आने लगीं, उनके खिलाफ एक षडयंत्र रचकर, उन्हें फिलिस्तीनी लक्ष्य के लिए उनकी हमदर्दी के लिए, सामीविरोधी या यहूदीविरोधी करार दे दिया गया और उन्हें लेबर पार्टी के नेतृत्व से ही हटवा दिया गया।

जो शिक्षा परिसरों में हो रहा है उसका महत्व

विश्वविद्यालयों के छात्र तथा शिक्षक, अब भी औद्योगिक दुनिया में विचार के एक स्वतंत्र स्रोत हैं और इसलिए एक ऐसी नैतिक शक्ति हैं, जो दक्षिणपंथी सुदृढ़ीकरण के लिए खतरा पैदा करती है। इसलिए, विश्वविद्यालयों पर नियंत्रण हासिल करना, इस दक्षिणपंथी सुदृढ़ीकरण के एजेंडा का एक महत्वपूर्ण आइटम बन जाता है। इस दक्षिणपंथी सुदृढ़ीकरण का पूरा बोलबाला तभी हो सकता है जब विचार की स्वतंत्रता को नष्ट कर दिया जाए, मानवीयता के लेशमात्र को नष्ट कर दिया जाए। अमेरिका में आज हम जो कुछ देख रहे हैं, विचार की स्वतंत्रता को नष्ट करने की यह नंगी कोशिश ही तो है।

जनसंहार के खिलाफ आवाज उठाने को, यहूदीविरोध करार दिया जा रहा है। जाहिर है कि न तो ये प्रदर्शनकारी छात्र यहूदीविरोधी हैं और न ही जेरेमी कॉर्बिन यहूदीविरोधी थे। वास्तव में, उनके विरोधियों में ही हमें ऐसे तत्व मिल जाएंगे जो अपने देशों में भी और अपने देशों से बाहर भी, यहूदीविरोधी आंदोलनों से जुड़े रहे हैं, जैसे यूक्र्रेन में स्तेपान बांडेरा द्वारा शुरू किया गया आंदोलन, जिसने नाजी आक्रांताओं के साथ मिलीभगत की थी। लेकिन, ‘यहूदीविरोध को हथियार बनाना’ औद्योगिक देशों में दक्षिणपंथी सुदृढ़ीकरण के लिए उपयोगी है।

इसलिए, अमेरिकी शिक्षा परिसरों में जो कुछ हो रहा है, उसका भारी महत्व है। आज इन परिसरों में मानवीयता और कपटलीला के बीच जो संघर्ष देखनेे को मिल रहा है, वह आने वाले दिनों में निर्णायक वर्गीय संघर्षों का इशारा है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख पढ़ने के लिए कृपया नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

US: Why Protesting Genocide is Dubbed as ‘Anti-Semitism’

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