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इज़रायल: क्या है न्यायपालिका से जुड़ा रिफ़ार्म और क्यों कर रहे हैं लाखों इज़रायली इसका विरोध?

इज़रायल के प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू की सरकार देश के मूल क़ानूनों में बदलाव, न्यायपालिका में न्यायाधीशों की मनचाही नियुक्ति और सुप्रीम कोर्ट के किसी भी फ़ैसले को पलटने का अधिकार संसद को देने जैसा क़ानून लेकर आ रही है। क्या हैं यह तमाम रिफ़ॉर्म? इसको विस्तार से जानते हैं।
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फ़ोटो साभार: Reuters

जब भी लोकतंत्र के स्तंभों की बात होती है तो उसमें सबसे महत्वपूर्ण स्थान अगर किसी का आता है तो वह है न्यायपालिका। लोकतंत्र में इसकी अहमियत का अंदाज़ा आप इस बात से लगा सकते हैं कि इसके बिना लोकतंत्र की अवधारणा की ही नहीं की जा सकती। लेकिन हाल के दिनों में लोकतांत्रिक देशों में न्यायपालिका को कमजोर करने या उसपर सत्ताधारी दल का प्रभुत्व स्थापित करने का एक चलन सा शुरू हो गया है।

चाहे वह हंगरी सरकार द्वारा न्यायपालिका की स्वतंत्रता को कमजोर करने की बात हो या ट्रम्प प्रशासन के समय अमेरिका की न्यायपालिका में हस्तक्षेप करने की बात हो या हालिया समय में मोदी सरकार द्वारा न्यायाधीशों की नियुक्ति में हस्तक्षेप करने की बात हो या इनके अलावा पोलैंड और तुर्की जैसे देश, जहां पर भी न्यायपालिका को कमजोर करने की कोशिश की बात हो। इन तमाम देशों के अलावा और भी कई देश हैं जहां बीते समय में न्यायपालिका में हस्तक्षेप कर लोकतंत्र को अपंग बनाने की कोशिश की गई है। 

हालिया समय में इजरायल इसी दिशा में चलने की ओर अग्रसर दिखाई दे रहा है। इजरायल में पिछले कुछ दिनों से न्यायपालिका में सुधार को लेकर प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू की सरकार प्रयासरत है। उनकी सरकार द्वारा प्रस्तावित सुधार से वहां के सुप्रीम कोर्ट की शक्ति लगभग समाप्त हो जाएगी और इजरायल नाम मात्र के लिए लोकतंत्र रह जाएगा। नेतन्याहू की सरकार के इस न्यायिक सुधार का विरोध इजरायली लोग पिछले कई दिनों से कर रहे हैं। आखिरकार क्या है यह प्रस्तावित सुधार और इसके पीछे बिन्यामिन नेतन्याहू की सरकार में कानून मंत्री यारिव लेविन क्या वजह बता रहे हैं? और जानकार इस विधेयक को लोकतंत्र का खात्मा क्यूं बता रहे हैं? 

बिन्यामिन नेतन्याहू की सरकार न्यायपालिका में क्या बदलाव लाना चाहती है?

दरअसल प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू की हालिया सरकार न्यायपालिका में रिफॉर्म की कोशिश कर रही है। इस रिफॉर्म के तहत उनकी सरकार न्यायपालिका में जो परिवर्तन करना चाहती है उनमें से कुछ प्रमुख परिवर्तन इस प्रकार हैं। 

पहले बदलाव को अगर हम आसान भाषा में समझें तो यूं समझिए कि यह बदलाव इजरायल के मूल कानूनों (Basic Laws) "जो देश के संविधान के रूप में कार्य करता है" से संबंधित है। दरअसल इजरायल में कोई लिखित संविधान नहीं है और इजरायल में सारे कानून 14 “बेसिक लॉज” को ध्यान में रख कर बनते हैं। और अगर इन मूल कानूनों में बदलाव लाने में बिन्यामिन नेतन्याहू की सरकार सफल हो जाती है तो आगे किसी भी तरह का बदलाव लाने में उसे किसी भी तरह की मुश्किलों का सामना नहीं करना पड़ेगा।

इसी कड़ी में वह आगे सुप्रीम कोर्ट के किसी भी कानून की वैधता की समीक्षा करने की शक्ति को खत्म करने जैसा कानून लाने की ओर अग्रसर है। दरअसल वहां के सुप्रीम कोर्ट के पास संसद द्वारा लाए गए किसी भी कानून को समीक्षा करने और उसकी वैधता को जांचने की शक्ति है। इसे आप ऐसे भी समझ सकते हैं, जैसे कानूनों की वैधता या 'तर्कसंगतता' की समीक्षा करने की शक्ति हमारे देश में यहां के न्यायालयों के पास निहित है वैसे ही शक्ति वहां के सुप्रीम कोर्ट के पास भी निहित है। और हालिया सरकार इजरायल के मूल कानूनों में बदलाव लाकर सर्वोच्च न्यायालय से यह शक्ति छीनना चाह रही है।

एक और बदलाव न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति में सत्तारूढ़ दलों का एकाधिकार स्थापित करने से संबंधित है। गौरतलब हो कि वर्तमान समय में इजरायल के सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीश की नियुक्ति नौ सदस्यीय कमेटी करती है, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश, वकील, सांसद व मंत्री शामिल होते हैं। बिन्यामिन नेतन्याहू की सरकार ने इस समिति में जिस बदलाव की मांग की है उससे इस समिति का ढांचा पूरी तरह बदल जाएगा। पहले जहां इस कमेटी में न्यायाधीशों व कानूनविदों का आधिपत्य चलता था अब पूरी तरह से इसपर सत्तारूढ़ पार्टी का नियंत्रण हो जाएगा। इसे आप भारत के कॉलेजियम सिस्टम से तुलना कर समझ सकते हैं। जैसे यहां के सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में न्यायाधीशों की नियुक्ति कॉलेजियम कमेटी के द्वारा होती है और सत्तारूढ़ पार्टी का इस पर कोई नियंत्रण नहीं होता है। ठीक कुछ इस तरह की ही कमेटी वहां हालिया समय तक अस्तित्व में है और कानून में बदलाव लाकर नेतन्याहू सरकार इस कमेटी के ऊपर अपनी सरकार का एकाधिकार जमाना चाहती है ताकि मनमुताबिक न्यायाधीशों की नियुक्ति कर सके। 

इन सबके अलावा सबसे महत्वपूर्ण विधेयक जो इजरायली सरकार सदन में लेकर आई है, उसे सीधे शब्दों मे देखा जाए तो वह सुप्रीम कोर्ट के किसी भी फैसले को पलटने का अधिकार संसद को देने जैसा है। आसान शब्दों में कहा जाए तो यूं समझिए कि हाल के समय तक ‘न्यायालय के निर्णय सर्वोपरि होते हैं और उसके न्याय पर कोई आपत्ति नहीं कर सकता’ जैसी शक्ति उसके पास थी। पर अब सरकार जो प्रस्ताव लेकर आई है उसमें यह कहा गया है कि अब संसद चाहे तो साधारण बहुमत वोट के साथ न्यायालय के किसी भी फैसले को पलट सकती है। हालिया समय में प्रस्तावित जो विधेयक है उसमें यह कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट, संसद द्वारा लाए गए किसी भी कानून को केवल तभी रद्द कर सकती है जब सुप्रीम कोर्ट के सभी 15 न्यायाधीश लाए गए कानून को खत्म करने पर अपनी सहमति जताते हों (या, एक अलग रिपोर्ट के अनुसार, कम से कम 12 की सहमति की आवश्यकता होगी)। बिन्यामिन नेतन्याहू सरकार का “ओवरराइड क्लॉज़” हालिया प्रस्ताव का सबसे विवादास्पद तत्व है, यह सर्वोच्च न्यायालय के अधिकारों और स्वतंत्रता पर असंवैधानिक उल्लंघन के रूप में हमला करता है। 

प्रस्तावित कानून के खिलाफ हो रहा हालिया आंदोलन, इजरायल के इतिहास के सबसे बड़े आंदोलनों में से एक

 इजरायल के राष्ट्रपति से लेकर वहां के मुख्य न्यायाधीश व आम शहरी तक सरकार के इस प्रस्तावित कानून का विरोध कर रहे हैं। न्यायपालिका में प्रस्तावित इस भयावह रिफॉर्म का विरोध करने के लिए लाखों इजरायली सड़कों पर हैं। बीते कुछ दिनों से इजरायल के तमाम बड़े शहरों और राजधानी जेरूसलम व वहां की कनेसेट (संसद) के बाहर इस बिल के खिलाफ विरोध-प्रदर्शन हो रहे हैं। यह आंदोलन इजरायल के इतिहास के सबसे बड़े विरोध प्रदर्शनों में से एक बताया जा रहा है। लेफ्ट विचारधारा से संबंध रखने वाली पार्टियां व तमाम विपक्षी पार्टियां सत्तारूढ़ पार्टी के इस प्रस्तावित कानून का विरोध कर रही हैं। हालांकि सत्ता में नेतन्याहू के लौटने के बाद से इजरायल में प्रत्येक सप्ताह शनिवार को विरोध प्रदर्शन देखा जाना आम बात सी हो गई थी। लेकिन कानून मंत्री यारिव लेविन (Yariv Levin) द्वारा बीते माह न्यायपालिका में रिफ़ार्म लाने के प्रस्ताव के बाद इसमें कई गुणा वृद्धि देखी जाने लगी है। गौरतलब हो की नेतन्याहू को सत्ता में आए तीन महीने भी नहीं हुए हैं और ऐसे में उनकी सरकार के खिलाफ इस तरह का प्रदर्शन होना उनके लिए आने वाले समय में चुनौती बनेगा और यह पहले से ही बटे हुए इजरायली समाज को और ध्रुवीकरण की ओर ले जाएगा।  

वहां के राष्ट्रपति आइजैक हर्जोग (Isaac Herzog) ने इस विधेयक के संसद में प्रस्ताव आने के बाद अपनी अहसहमती जताते हुए कहा कि बिन्यामिन नेतन्याहू की सरकार को इस विधेयक को आगे बढ़ाने से पहले विचार करना चाहिए और उनकी सरकार को बीच का रास्ता निकालना चाहिए। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि अगर यह विधेयक कानून का रूप ले लेता है तो आने वाले समय में इजरायल में इससे संवैधानिक संकट उत्पन्न हो सकता है साथ ही इस कारण एक आंतरिक संघर्ष उत्पन्न हो सकता है जो इजरायल को कई भागों में खंडित कर सकता है।

उनके अलावा इजरायल के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एस्तेर हयात (Esther Hayut) ने भी इस प्रस्ताव का विरोध करते हुए कहा कि हालिया प्रस्ताव "लोकतंत्र के लिए बड़ा झटका" साबित होगा। इसके अलावा इज़रायल के अटॉर्नी जनरल ने भी इस प्रस्तावित कानून के खिलाफ आवाज उठाते हुए कहा कि यह सरकार को "एक तरह की अनर्गल शक्ति" और "मानवाधिकारों को कमजोर” करने जैसी शक्ति देगा जो इजरायल के लिए आने वाले समय में घातक होगा। 

हालिया समय मे न्यायपालिका में इतना बड़ा बदलाव लाने के पीछे सरकार क्या कारण बता रही है? 

बीते साल दिसंबर में सत्ता में आने से पहले से ही नेतन्याहू अपनी चुनावी रैलियों में भी न्यायालय में इस तरह के सुधार लाने की बात कर रहे थे और सत्ता में आने के बाद अब वह ऐसा करने की ओर अग्रसर हैं। दरअसल हालिया समय में जो लोग इजरायल में सत्ता में बैठे हुए हैं वह इजरायली इतिहास में सबसे ज़्यादा धूर दक्षिणपंथी दलों से संबंध रखते हैं। हालिया समय में जो पार्टी सत्ता में बैठी हुई है उनमें से सबसे प्रमुख नेतन्याहू की पार्टी लिकुड(Likud) है, इसके अलावा रीलिजस जाइओनिज़्म(Religious Zionism), शास(Shas) और तोरह जुड़ाइस्म(Torah Judaism) जैसी पार्टियां हैं। यह तमाम पार्टियां धूर दक्षिणपंथी विचारधारा से संबंध रखती हैं और बीते कुछ सालों से इजरायल की न्यायपालिका पर अपना नियंत्रण करने की कोशिश में लगे हुए थे।  

हालिया समय में सत्ता पर काबिज धूर दक्षिणपंथी दलों से संबंध रखने वाले नेताओं व लोगों का मानना है कि यहां के न्यायालय का झुकाव वाम विचारधारा की तरफ है और वह “बहुसंख्यक समाज” की बातों से पड़े काम करता है। इसके अलावा वह “बहुसंख्यक समाज” का सही प्रतिनिधित्व नहीं करता है और यहूदियों के मामलों को सही तरह से आवाज नहीं देता है जिस कारण बहुसंख्यक समाज की तरक्की नहीं हो पा रही है। 

नेतन्याहू व उनकी सरकार में बैठे मंत्री व नेताओं का मानना है कि हालिया समय की अदालत और उसके न्यायाधीश उसकी सरकार को फिलिस्तीनियों के ऊपर मनचाहे फैसले और कानून बनाने में हस्तक्षेप कर रहे हैं। और सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश "हस्तक्षेपवादी" जैसा बर्ताव करते हैं। इन सबके अलावा दक्षिणपंथी नेताओं का मानना है कि न्यायपालिका के “हस्तक्षेपवादी व वामपंथी” विचारधारा की तरफ झुकाव के कारण यहां के “बहुसंख्यक समाज” का भरोसा न्यायालय के ऊपर से उठ गया है। न्यायपालिका से संबंधित यह बदलाव यहूदियों और इजरायल के लिए बेहतर होगा और कानूनी व्यवस्था में विश्वास खोने वाले इजरायली लोगों को इस कारण यहां की कानून व्ययवस्था पर दोबारा से विश्वास होने लगेगा। 

प्रस्तावित विधेयक के पारित होने पर इजरायल में तानाशाही कैसे आ जाएगी और यह कैसे फिलिस्तीनियों के लिए और समस्या पैदा करेगा? 

इजरायली राजनीति से संबंध रखने वाले जानकारों का मानना है कि अगर यह तमाम विधेयक कानून बन जाता है तो इजरायल में नाम मात्र का लोकतंत्र रह जाएगा। सत्तारूढ़ पार्टी का एकाधिकार हो जाएगा और यहां एक तरह की तानाशाही आ जाएगी। 

दरअसल इजरायल की लोकतंत्रीय प्रणाली संसदीय है और यहां की संसद जिसे कनेसेट के नाम से जाना जाता है एक सदनीय है। इसलिए यहां जो भी पार्टी सत्ता में होती है उसका ही बोलबाला होता है। इसके द्वारा लाए गए कानूनों और कार्यों की समीक्षा के लिए सुप्रीम कोर्ट ही है और अगर ऐसे में उसकी तमाम शक्तियां उससे छीन कर उसे अपंग बना दिया जाए तो यह बात स्वाभाविक है कि ऐसा करने के बाद देश में तानाशाही आ जाएगी और लोकतंत्र फिर कहने मात्र के लिए बचेगा। नेतन्याहू का न्यायपालिका से संबंधित प्रस्तावित रिफॉर्म देश को इसी ओर ले जाता हुआ दिख रहा है। 

इसके अलावा अगर यह कानून पास हो जाता है जिसकी बहुत हद तक संभावना जताई जा रही है तो इजरायली सरकार द्वारा पहले से ही उत्पीड़न झेल रहे फ़िलिस्तीनी व अरब के लोगों के ऊपर और समस्या आ जाएगी। ऐम्नेस्टी इंटरनेशनल ने जैसा की इजरायली सरकार को अपारथीड रेजीम (मतलब ऐसा शासन जो किसी आधार पर लोगों के बीच भेदभाव करे) कहा है। इसके अलावा वैश्विक स्तर पर मौजूद गैर-सरकारी संगठन और कई देश समय-समय पर मानवाधिकारों के उल्लंघन से जुड़े इजरायली सरकार के रिकॉर्ड की आलोचना करते रहे हैं। इन सारी बातों के बाद अगर सरकार द्वारा प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से उत्पीड़न झेल रहे इन लोगों के पास आखिरी कोई मंजिल दिखती है तो वह है सुप्रीम कोर्ट। अब अगर ऐसे में सुप्रीम कोर्ट के पास से उसकी शक्ति छीन उसकी स्वतंत्रता को खत्म कर दिया जाएगा और उसके फैसलों को पलटने का अधिकार संसद के पास चला जाएगा तो इसके बाद के हालात का अंदाज़ा आप खुद लगा सकते हैं। 

प्रस्तावित सुधार के पीछे नेतन्याहू का व्यक्तिगत एजेंडा

जानकार इस न्यायिक परिवर्तन के पीछे इन तमाम कारणों के अलावा इसे नेतन्याहू का व्यक्तिगत एजेंडा भी बता रहे हैं। दरअसल नेतन्याहू हालिया समय में भ्रष्टाचार से संबंधित मुकदमे का सामना कर रहे हैं। और वहां की न्यायिक प्रक्रिया के अंतर्गत किसी व्यक्ति के ऊपर भ्रष्टाचार या किसी तरह का संगीन आरोप साबित हो जाता है तो उसे अपने पद से इस्तीफा देना पड़ता है। और हालिया समय में उनके ऊपर चल रहे मुकदमे में लगे आरोप अगर साबित हो जाते हैं तो उन्हें भी अपने पद से इस्तीफा देना पड़ेगा। ऐसी परिस्थिति में अगर न्यायपालिका के अंदर परिवर्तन लाने में उनकी पार्टी सफल हो जाती है तो वह उनके लिए बज़ाहिर बेहतर होगा। अगर न्यायालय उनके खिलाफ फैसला सुना भी देती है तब भी हालिया रिफॉर्म के तहत उस फैसले को पलटने का अधिकार संसद के पास होगा जिसका फायदा उठा कर वह इस फैसले को बदल सकते हैं। 

इस कानून के लागू होने पर होने वाली भयावहता का अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि जहां इजरायली सरकार की लगभग तमाम गलतियों को अनदेखा करने वाला देश अमेरिका भी हल्के शब्दों में ही सही पर इसके खिलाफ बोलने पर विवश हुआ है। अमेरिका के अलावा संयुक्त राष्ट्र और यूरोप के भी कई देशों ने इजरायल में प्रस्तावित इस बदलाव की आलोचना की है और इसके गंभीर परिणाम को लेकर इजरायल को आगाह किया है। 

गौर करने वाली बात यह है कि इजरायल के अलावा भी हालिया समय में लोकतांत्रिक देशों में न्यायपालिका पर अपना आधिपत्य जमाने और उसका राजनीतिकरण करने की कोशिश कई देशों में सत्ता पर बैठे धूर दक्षिणपंथी दलों ने की है। जैसा की मैंने पहले बताया कि पोलैंड, तुर्की और हंगरी जैसे देशों में न्यायपालिका में सेंध लगाने की कोशिश की गई है और इसमें वह बहुत हद तक कामयाब भी हुए हैं। हमारे देश भारत में भी बीते दिनों न्यायपालिका में सेंध लगाने जैसी कोशिश देखने को मिली थी, जब देश के कानून मंत्री किरण रिजिजू ने देश के कॉलेजियम प्रणाली को बदलने की बात की थी। यहां सवाल यह उठता है कि जिस लोकतांत्रिक माध्यम से यह दल सत्ता में पहुंचे हैं उसे यह लोग कुचलना क्यूं चाहते हैं? उसका खात्मा कर या उसे कमजोर कर जो हासिल करना चाहते हैं क्या उसकी उम्र अनंत काल तक है अगर नहीं तो वह ऐसा कर अपनी कब्र क्यूं खोदना चाह रहे और गरीब और मजलूम जनता का एकमात्र और आखिरी सहारा, लोकतंत्र के इस प्रहरी को और मजबूत करने के बजाए कमजोर क्यूं कर रहे हैं?

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी है। 

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