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धर्म और राजनीति के बिगड़ते रिश्तेः फिर आ गए हैं फिरकी लेने वाले

धर्मनिरपेक्षता का सिद्धांत दो तरीके से चलता है। या तो राज्य सभी धर्मों से समान दूरी बनाए रखे। या सभी धर्मों से समान प्रेम बनाए रखे। आज की सत्ता यह दोनों काम नहीं कर रही है।
धर्म और राजनीति
प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार : medium.com

राम मंदिर के लिए जिस तरह से चंदा वसूला जा रहा है उसको लेकर राजकुमार हिरानी की फिल्म `पीके’ और उमेश शुक्ला की फिल्म `ओ माइ गाड’ की याद ताजा हो गई। पीके फिल्म में नायक आमिर खान धर्मगुरु सौरभ शुक्ला की भगवान से संपर्क करने की चमत्कारिक हरकतें देखकर कहता है कि सारे काल रांग (Wrong) नंबर पर जा रहे हैं। कौनो फिरकी ले रहा है। जबकि ओएमजी फिल्म में कांजी की भूमिका कर रहे परेश रावल ‘एक्ट ऑफ गॉड’ यानी भगवान का कोप कहकर बच निकलने वाली बीमा कंपनियों का मुकाबला करने के लिए सीधे भगवान पर ही मुकदमा कर देते हैं। जाहिर सी बात है कि भगवान नहीं मिलते और उनकी प्रापर्टी के मैनेजरों यानी धर्मगुरुओं पर केस चलता है और काफी जद्दोजहद के बाद अदालत में उनकी देनदारी बनती है।

ओएमजी फिल्म पीके से दो साल पहले बनी थी और उसमें हास्य से ज्यादा व्यंग्य है और वह धर्म के नाम पर चलने वाली ठेकेदारी को बेनकाब कर देती है। जबकि पीके एक दूसरे ग्रह से आए हुए प्राणी के माध्यम से इस ग्रह पर चल रहे धर्म के नाम पर लूट और नफरत के खेल को उजागर करने का काम करती है और यह संदेश देती है कि भगवान ने न तो किसी को हिंदू और मुसलमान बनाकर भेजा है और न ही वह चंदा वसूली का कारोबार करने का आदेश देता है।

लेकिन भारतीय समाज उन फिल्मों का संदेश लगभग भूल गया है। अगर न भूला होता तो लाठी डंडा और तलवार लेकर मालवा क्षेत्र में रामजन्मभूमि का चंदा वसूलने का जुलूस न निकाला जाता। उस चंदा वसूली के कार्यक्रम के बाद वहां पर दंगे हुए और अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों के घर भी गिराए गए। यानी ईश्वर का घर बनाने के लिए उसके बंदों का घर गिराया जा रहा है। इस बारे में एक घटना उत्तर प्रदेश से प्रकाश में आई है जहां पर पीडब्ल्यूडी के अधिशासी अभियंता ने बैंक को पत्र लिखकर राम मंदिर निर्माण कोष के नाम से एक अकाउंट खोलने का अनुरोध किया है ताकि वहां विभाग के कर्मचारियों का एक दिन का वेतन जमा कराया जा सके। वे कह रहे हैं कि कर्मचारी यह योगदान स्वेच्छा से दे रहे हैं। जबकि इनकार करने पर नौकरी जाने से डरे कर्मचारी इसे एक आदेश बता रहे हैं।

स्वेच्छा से दो बड़े लोगों के चंदे आए हैं। जिनमें सर्वप्रथम भारत के पहले नागरिक यानी राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद हैं, जिन्होंने तकरीबन पांच लाख से ऊपर का चंदा दिया है। उनका चंदा आते ही हिंदुत्ववादी सेक्यूलर लोगों को चिढ़ाने में लग गए कि देखो अभी सेक्यूलर लोगों का विरोध शुरू नहीं हुआ। पता नहीं वे कहां छुपे बैठे हैं वे तब नहीं बोलते जब राष्ट्रपति भवन में रोजा इफ्तार होता है लेकिन जब राष्ट्रपति मंदिर के लिए चंदा दे रहे हैं तो वे हायतौबा मचाते हैं। यानी राष्ट्रपति द्वारा दिए गए चंदे का उद्देश्य अयोध्या में भव्य राममंदिर के निर्माण और राम के आदर्श स्थापित करने से ज्यादा इस देश के सेक्यूलर ढांचे को चोट पहुंचाना और सेक्यूलर लोगों को चिढ़ाने के लिए करना है।

धर्मनिरपेक्षता का सिद्धांत दो तरीके से चलता है। या तो राज्य सभी धर्मों से समान दूरी बनाए रखे। या सभी धर्मों से समान प्रेम बनाए रखे। आज की सत्ता यह दोनों काम नहीं कर रही है बल्कि बहुसंख्यक समाज के धर्म से ज्यादा निकटता दिखा कर यह साबित करना चाह रही है कि अल्पसंख्यकों का धर्म दोयम दर्जे का है और राज्य बहुसंख्यक समाज के धर्म से दूरी नहीं बना सकता। सारा प्रयोजन इसी सिद्धांत को स्थापित करने के लिए हो रहा है।

दूसरा चंदा कांग्रेस के सांसद और मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने दिया है। उन्होंने तकरीबन एक लाख रुपये की राशि सीधे प्रधानमंत्री को संबोधित करते हुए दी है। उनका कहना है कि राममंदिर बनना चाहिए इसलिए वे चंदा दे रहे हैं। लेकिन उनका इस बात से विरोध है कि कई संगठन डरा धमका कर चंदा ले रहे हैं। उन्होंने अपने गृह राज्य में घटी हुई घटनाओं का हवाला दिया है। इस तरह की खबरें अन्य राज्यों से भी आ रही हैं विशेषकर उत्तर प्रदेश से कुछ ज्यादा ही। यह स्थितियां बेचैन करती हैं और बताती हैं कि राममंदिर पर फैसला आ जाने और उसके निर्माण की सारी बाधाएं दूर हो जाने के बाद यह मुद्दा कल्याण और समन्वयकारी होने की बजाय विभाजनकारी बना हुआ है और जो लोग उस मामले को लेकर आक्रामक आंदोलन चला रहे थे वे हर चुनाव में इसका दुरुपयोग करते हुए राजनीति में विद्वेष घोलते रहेंगे। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर धर्म और राजनीति के बीच कैसा रिश्ता बनाया जाए कि आगे भारत ऐसी स्थितियों से बचे?  

धर्म और राजनीति के जटिल रिश्ते पर पिछली सदी के मध्य में खड़े होकर समाजवादी विचारक डॉ. राम मनोहर लोहिया ने एक पैनी टिप्पणी की थी। हालांकि वे नास्तिक थे लेकिन उस दौर में भी धर्म की संचालक भूमिका को खारिज नहीं करते थे जब कम्युनिस्ट देश सोवियत संघ पूरी दुनिया में अपना असर डाल रहा था और उसी के साथ चीन भी एक संभावनाशील कम्युनिस्ट देश के रूप में उभर गया था। डॉ. लोहिया ने कहा था, ` धर्म और राजनीति के दायरे अलग रखना ही अच्छा है लेकिन यह समझते हुए कि दोनों की जड़ें एक हैं। धर्म दीर्घकालीन राजनीति है और राजनीति अल्पकालीन धर्म है। धर्म....... अच्छाई करता है और राजनीति........ बुराई से लड़ती है।.......धर्म और राजनीति के अविवेकी मिलन से दोनों भ्रष्ट हो जाते हैं। किसी एक धर्म को किसी एक राजनीति से कभी नहीं मिलना चाहिए। इसी से सांप्रदायिक कट्टरता जनमती है।........फिर भी जरूरी है तो धर्म और राजनीति एक दूसरे से संपर्क न तोड़ें मर्यादा निभाते हुए।’

धर्म और विशेषकर हिंदू धर्म का ढांचा कितना अत्याचारी हो सकता है इसका आलोचनात्मक वर्णन आधुनिक युग में बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर से ज्यादा किसी ने शायद किया हो। उन्होंने अन्य धर्मों की भी आलोचना की है लेकिन चूंकि उनका जन्म हिंदू धर्म के भीतर हुआ था इसलिए इसके अत्याचारों से आजिज आकर उन्होंने एहसास किया कि इसे बदला नहीं जा सकता बल्कि इसे छोड़ना ही श्रेयस्कर होगा। लेकिन उन्होंने भी एक धर्म छोड़कर अपने को धर्मविहीन नहीं घोषित किया बल्कि दूसरा धर्म अपनाया। क्योंकि उन्हें पता था कि मनुष्य का काम धर्म के बिना चलेगा नहीं। इसलिए उन्होंने एक ऐसे धर्म का चयन किया जो उनकी नजर में सबसे ज्यादा समतामूलक और तार्किक था। वह था बौद्ध धर्म। उन्होंने एक प्रकार से इस धर्म को पुनर्जीवन दिया। 14 अक्तूबर 1956 को जब उन्होंने नागपुर की दीक्षाभूमि में हिंदू धर्म को छोड़कर बौद्ध धर्म अपनाया तो माना गया कि उन्होंने अपने दलित समाज को एक नया मार्ग दिखाने का प्रयास किया है। इस बारे में उनका प्रमुख ग्रंथ `बुद्ध और उनका धम्म’ एक बेहद रोचक और चेतना को जगाने वाला है। इस ग्रंथ का अनुवाद स्वयं बौद्ध विद्वान भदंत आनंद कौशल्यायन ने किया है और उन्होंने इसकी भूमिका में लिखा है कि बाबा साहेब का यह पहला ग्रंथ है जो बिना किसी संदर्भ के लिखा गया है लेकिन यह अपने में इतना श्रेष्ठ है कि इसे किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है।

लेकिन बाबा साहेब जिस धर्म को शांति, समता, करुणा और भाईचारे का धर्म बताकर दक्षिण एशिया में उसे जगाने का प्रयास कर रहे थे उसी धर्म ने दक्षिण एशिया में हिंसा और नरसंहार की खुली वकालत की। इस बारे में राबर्ट सैक्स की पुस्तक  ` बुद्धा एट वार’  तमाम प्रमाणों के साथ यह बताती है कि श्रीलंका से लेकर म्यांमार तक बुद्ध के उपासक अपने अपने राष्ट्र की सेना को कहीं तमिलों पर तो कहीं रोहिंग्या पर अत्याचार करने की प्रेरणा दे रहे हैं। श्रीलंका के राष्ट्रपति भंडारनायके की हत्या करने वाला भी बौद्ध भिक्षु ही था।

ऐसे में हमें इस बात पर विचार करने की जरूरत है कि इक्कीसवीं सदी में धर्म क्या करने वाला है और राजनीति के साथ उसका जो मिलन हो रहा है वह कितना खतरनाक रूप धारण कर सकता है। कार्ल मार्क्स का वह कथन कि धर्म जनता की अफीम है सही ही है लेकिन जनता अफीम के नशे में कैसे आती है इसका भी जवाब उन्होंने इस वाक्य से पहले दिया है और कहा है कि यह गरीबों का सहारा है। लेकिन धर्म से मुक्ति के लिए उन्होंने जिस राज्य की कल्पना की थी वह ज्यादा समय तक नहीं चल पाया और थोड़े समय के लिए धकियाया और बहिष्कृत किया गया धर्म फिर कूद कर सामाजिक दायरे में आ गया।

धर्म की आगे क्या भूमिका रहने वाली है इस बारे में युवा इजराइली इतिहासकार युआल नोवा हरारी भी अपनी पुस्तक ` ट्वेंटी वन लेशन्स फार ट्वेंटी फर्स्ट सेंचुरी’ में एक अध्याय समर्पित करते हैं। उनका मानना है कि इक्कीसवीं सदी के इस वैज्ञानिक युग में धर्म की भूमिका सीमित हो गई है। ` इस सदी में धर्म बारिश नहीं कराता, वह लोगों की बीमारियों का इलाज नहीं कराता, वह बम नहीं बनाता पर वह यह निर्धारित करने में आगे आता है कि `हम’ कौन हैं और `वे’ कौन हैं। वह यह भी तय करता है कि हम किसका इलाज करें और किस पर बम गिराएं। यह स्थितियां हम आरंभ में कोरोना महामारी के प्रसार में तब्लीगी जमात और अब किसान आंदोलन में सिक्खों पर दोषारोपण के रूप में देख सकते हैं। अब जब उसके रोकथाम के लिए वैक्सीन आई है तो हम उसके साथ जुड़ी स्वदेशी और विदेशी बहस को भी देख सकते हैं और उन लोगों की देशभक्ति पर पैदा किए जा रहे संदेह को भी देख सकते हैं जो उसकी सफलता और परीक्षण पर सवाल उठा रहे हैं।

इसीलिए हरारी कहता है कि इस इक्कीसवीं सदी में पूरा विश्व एक सभ्यता के दायरे में बंध चुका है। चाहे नाभिकीय युद्ध की समस्या हो, पर्यावरण की समस्या हो या तकनीकी संचालन और ठहराव की समस्या हो वह पूरी दुनिया की एक ही है। जबकि धर्म और राष्ट्रवाद हमें अलग अलग बांटकर भिन्न सभ्यताएं होने की सीख दे रहे हैं। एक तरह से धर्म दुनिया की किसी समस्या का समाधान देने की बजाय नई समस्याएं पैदा कर रहा है। लगता है कि आने वाले समय में प्राचीन और मध्ययुगीन धर्मग्रंथों की व्याख्या और अर्थ को लेकर नाभिकीय मिसाइलों का इस्तेमाल होगा।

निश्चित रूप से तमाम वैज्ञानिक और आर्थिक तरक्की के बावजूद विश्व के लिए यह कोई छोटी चुनौती नहीं है। विशेष कर एशिया जो कि दुनिया के सभी धर्मों की उद्गम स्थली है उसके लिए तो और भी चुनौतीपूर्ण समय है। उसमें भी भारत के लिए कुछ ज्यादा ही कठिन समय है जहां दुनिया के चार धर्मों की उत्पत्ति हुई और लगभग सभी धर्मों के अनुयायी यहां रहते हैं। मनुष्य का स्वभाव ऐसा है कि धर्म के बिना उसका काम नहीं चलता और वह जब धर्म को लेकर चलता है तो सांप्रदायिक कट्टरता और कलह बढ़ती है। ऐसे में वह करे तो क्या करे?  निश्चित तौर पर नास्तिकता और वैज्ञानिक सोच मानव की श्रेष्ठ अवस्था है लेकिन सभी को नास्तिक बनाना भी आसान नहीं है और जब नास्तिक कम रहते हैं तो उन पर दमन और अत्याचार भी होते हैं।

इस स्थिति से निकलने का मार्ग यही है कि ईश्वर के नाम पर फिरकी लेने वालों को पहचाना जाए और उन मैनेजरों को भी पहचाना जाए तो भगवान की प्रापर्टी बनाने के नाम पर लूट रहे हैं। यानी धर्म और राजनीति के अविवेकी मिलन से बचना होगा। लेकिन उसी के साथ सभी धर्मों की अपूर्णता को भी स्वीकार करना होगा और उन्हें मानने वाले के बीच में सद्भाव कायम करने का यही तरीका है कि सब अपने- अपने धर्म की कमियों की आलोचना करें।  

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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