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बैंकों के निजीकरण के भयानक खतरे

सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में से कम से कम कुछेक का निजीकरण करने की जो योजना बनायी है, उस पर कई बुनियादी आपत्तियां हैं।
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फ़ोटो साभार: NDTV

ऋण वितरण का पैटर्न बदल जाएगा

ये आपत्तियां इस तथ्य के इर्द-गिर्द केंद्रित हैं कि इस तरह के कदम से कर्ज के बंटवारे का पैटर्न बदल जाएगा। यह बदलाव होगा - उत्पादक गतिविधियों से हटकर, सट्टाबाजी की ओर। यह बदलाव होगा - किसानी खेती से हटकर बड़े कारोबार की ओर। इसके किसानी की लाभकरता के लिए, खाद्य सुरक्षा के लिए और रोजगार के लिए खतरनाक नतीजे होंगे। यह बदलाव होगा - घरेलू मोर्चे से हटकर वैश्विक मुकामों की ओर।

उक्त आपत्तियां सभी की जानी-पहचानी हैं और इन पर काफी चर्चा भी हो चुकी है। और इन आपत्तियों के वजनी होने को यह तथ्य और रेखांकित करता है कि 2008 के साखहीन ऋण संकट (सब-प्राइम लैंडिंग क्राइसिस) के दौरान भारत के सार्वजनिक क्षेत्र बैंक संकट से अछूते ही बने रहे थे। लेकिन देश की सरकार  जिसे देश की भलाई से ज्यादा चिंता घरेलू तथा विदेशी बड़ी पूंजी को खुश करने की ही है जैसाकि अनुमान लगाया जा सकता है, इन आपत्तियों को अनदेखा ही कर देती है। बहरहाल मेरा इरादा यहां पर उक्त आपत्तियों को दोहराने का नहीं है। यहां मेरा इरादा है- इस तरह के निजीकरण से पैदा होने वाले एक और गंभीर खतरे को रेखांकित करने का जिस पर कम ही चर्चा हुई है और जिस खतरे को अनदेखा करने की ऐसी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी, जो देश झेल नहीं सकता है।

उदारीकरण के साथ बदली बैंकों की भूमिका

नियंत्रणात्मक व्यवस्था के दौर में बैंक ऋण मुख्यत: अल्पावधि ऋण आवश्यकताएं पूरी करने के काम आते थे, जैसे कि व्यापारिक और औद्योगिक प्रतिष्ठानों में इन्वेंटरी बनाए रखने के लिए वित्त व्यवस्था करना। दीर्घावधि वित्तीय जरूरतें मिसाल के तौर पर स्थायी पूंजी निर्माण के लिए वित्त की जरूरतें, इसी काम के लिए स्थापित कुछ विशेषीकृत वित्तीय संस्थाओं द्वारा पूरी की जाती थीं। इन विशेषीकृत संस्थाओं को फंड मिलते थे सरकारी स्रोतों से जैसे कि भारतीय रिजर्व बैंक के मुनाफों से। और ये संस्थाएं कम ब्याज दर पर ऋण देती थीं और ये ऋण बैंकों द्वारा लगायी जाने वाली ब्याज की दर से कम ब्याज पर दिए जाते थे और अक्सर तो ये ऋण नकारात्मक वास्तविक ब्याज दर पर दिए जाते थे यानी इन पर रुपयों में ली जाने वाली ब्याज की दर, मुद्रास्फीति की दर से घटकर ही होती थी। ये सस्ते ऋण मुहैया कराए जाते थे निवेश को बढ़ावा देने के लिए।

लेकिन उदारीकरण के आने के साथ तो यह पूरी की पूरी व्यवस्था ही बदल गयी है। पहले जमाने की विशेषीकृत वित्तीय संस्थाएं अब अपने पुराने रूप में तो लुप्त ही हो गयी हैं। इनमें से कुछ ने मिसाल के तौर पर आइडीबीआइ ने खुद को बाकायदा बैंकों में ही तब्दील कर लिया है। अब उद्यमों की दीर्घावधि वित्तीय आवश्यकताएं पूंजी बाजार से पूरी होनी थीं। और वहीं से उन बची-खुची वित्तीय संस्थाओं की भी फंड जुटाने थे, जो अब भी दीर्घावधि ऋण देने का काम कर रही थीं। लेकिन अगर निवेश परियोजना पर्याप्त रूप से मुनाफादेह नहीं हो या ज्यादा जोखिम वाली हो, तो पूंजीपति दीर्घावधि ऋणों के लिए भी  पूंजी बाजार का रुख करने के बजाए सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का दरवाजा खटखटाना शुरू कर देते हैं। लेकिन चूंकि नई व्यवस्था में बैंक बड़े ऋण देना और खासतौर पर ढांचागत परियोजनाओं के लिए ऐसे ऋण देना बंद कर देते हैं, खुद सरकार इन सार्वजनिक बैंकों को ये ऋण देने के लिए मजबूर करती है। नतीजा यह होता है कि ठीक इसलिए क्योंकि सरकार इन बैंकों को अपने इशारे पर ऋण देने के लिए मजबूर कर सकती है, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की बैलेंस शीटों में खतरे की निशानियां दिखाई देने लगती हैं।

बैंकों की निवेश में भूमिका का बुनियादी असंतुलन

बैकों के पास संसाधन आते हैं, जनता द्वारा जमा की जाने राशियों से। लेकिन, इन राशियों को लोग कभी भी हाथ के हाथ निकाल सकते हैं। अब अगर इन संसाधनों का एक उल्लेखनीय रूप से बड़ा हिस्सा दीर्घावधि निवेश के लिए ऋण देने में लगाया जाता है, तो वास्तव में यह ‘दीर्घावधि ऋण देने के लिए अल्पावधि ऋण लेने’ काम मामला हो जाता है। और यह बैंकों के लिए तरलताहीलनता का संकट उत्पन्न हो जाने का खतरा पैदा कर देता है। ऐसे में अगर अचानक किसी वजह से एक साथ बहुत सारे जमाकर्ता बैंक से अपना पैसा निकालना तय कर लेते हैं, तो बैंक ही बैठ जाता है। संबंधित बैंक से पैसा निकालना चाहने वाले जमाकर्ता चाहे थोड़े ही हों, फिर भी अगर यह खबर या अफवाह फैल जाती है कि बैंक से पैसे की निकासी में मुश्किल होने वाली है, तो जमाकर्ताओं के बीच भगदड़ मच जाती है और बैंक ही बैठ जाता है।

ऐसी नौबत नहीं आने देने के लिए ही बैंक, जिनकी देनदारियां अल्पावधि होती हैं, आम तौर पर परिसंपत्तियां भी ऐसी रखती हैं जो अल्पावधि होती हैं। चूंकि अल्पावधि परिसंपत्तियों को अपनी परिभाषा से ही कभी भी, बिना ज्यादा नुकसान के भुनाया जा सकता है, इन परिसंत्तियों के सहारे अचानक जमाकर्ताओं के पैसा निकालने से किसी बैंक के सामने पैदा होने वाले खतरे को, काफी कम किया जा सकता है। इसके विपरीत, अगर बैंक के पास परिसंपत्तियां ही दीर्घावधि हों, तो अचानक जरूरत पडऩे पर उनकी बिक्री में खासा घाटा उठाना पड़ता है और इस स्थिति में संबंधित बैंक के लिए अचानक अपने जमाकर्ताओं के पैसा निकालने को संभालना कहीं बहुत मुश्किल हो जाता है।

ज्वालामुखी के मुहाने पर हैं सार्वजनिक बैंक

सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों से सिर्फ दीर्घावधि परिसंपत्तियों के लिए ही ऋण नहीं दिलाए गए हैं, उनके ऋणों का बड़ा हिस्सा ढांचागत परियोजनाओं के लिए दिया गया है। इन ढांचागत परियोजनाओं के फल देने की स्थिति तक पहुंचने में लंबा समय लगता है, इस तरह की परियोजनाओं में लागत व पूरा होने की अवधि का मूल योजना से बढ़ जाना आम है और इन परियोजनाओं में अगर मुनाफे आते भी हैं तो, लंबी अवधि के बाद ही मुनाफे आने शुरू होते हैं। हैरानी की बात नहीं है कि इन ऋणों का बड़ा हिस्सा बैंकों के ‘‘नॉन परफार्मिंग एसेट्ïस’’ में गिना जा सकता है। लेकिन, जो ऋण आधिकारिक रूप से एनपीए की श्रेणी में नहीं भी आते हैं, वे भी संकटग्रस्त ऋण (स्ट्रेस्ड एसेट्स) की श्रेणी में आते हैं। इस तरह, सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों पर दबाव डालकर उनसे न सिर्फ दीर्घावधि ऋण दिलवाए हैं बल्कि उनसे संकटग्रस्त ऋण दिलवाए हैं। संक्षेप में यह कि ये बैंक एक ज्वालामुखी के मुहाने पर बैठे हुए हैं, जो कभी भी फट सकता है।

यह ज्वालामुखी अगर अब तक नहीं फटा है और अभी सुषुप्त ही बना हुआ है, तो इसीलिए कि ये बैंक सरकार की मिल्कियत में हैं। इसका नतीजा यह है कि ये ऋण देने के लिए जिस जनता की जमा राशियों का इस्तेमाल किया गया है, वह अपना पैसा निकालने की हड़बड़ी नहीं दिखा रही है। उसे भरोसा है कि अगर इन ऋणों के चलते इन बैंकों को संकट का भी सामना करना पड़ा तो, इस बैंकों की मालिक होने के नाते सरकार, उनकी जमाओं को डूबने नहीं देगी। और जमाकर्ताओं का यही भरोसा है जो इन बैंकों को संकट से घिरने से बचाए रहा है।

परिसंपत्ति-देनदारीअसंतुलन की स्थिति

दुनिया भर में हर जगह वित्तीय प्रणाली के संकट तभी पैदा होते हैं, जब निजी मिल्कियत में चल रही वित्तीय संस्थाएं, वक्त के साथ परिसंपत्ति-देनदारी असंतुलन की स्थिति में फंस जाती हैं। पिछली सदी के आखिर में आया पूर्वी एशियाई वित्तीय संकट, इसकी एक शास्त्रीय मिसाल है। दक्षिण कोरियाई बैंकों का ही उदाहरण लिया जा सकता है। इन बैंकों ने विदेशी मुद्रा जमाओं को आकर्षित किया था और उनका इस्तेमाल कर दीर्घावधि निवेश परियोजनाओं के लिए घरेलू ऋण दिए थे। इसका मतलब था, उनकी परिसंपत्तियों और देनदारियों के बीच दुहरा असंतुलन। पहली बात तो यह कि ये बैंक ‘दीर्घावधि ऋण देने के लिए अल्पावधि ऋण लेने’ का रास्ता अपना रहे थे यानी बैंक जमाओं के जरिए  संसाधनों का निवेश परियोजनाओं के लिए वित्तपोषण के लिए उपयोग कर रहे थे। दूसरे, वे ऋण तो विदेशी मुद्रा में ले रहे थे, लेकिन वित्त ऐसी परियोजनाओं के लिए मुहैया करा रहे थे जो अपने आप में विदेशी मुद्रा अर्जित करने वाली परियोजनाएं नहीं थीं। अपरिहार्य रूप से संकट फूटा और जब यह संकट फूटा, इस मामले में खासतौर पर तीखा साबित हुआ।

2008 का अमरीका का वित्तीय संकट तक, इस तरह के असंतुलन को ही दिखा रहा था। महामंदी के दौरान, रूजवेल्ट प्रशासन ने 1933 में ग्लास-स्टीगाल एक्ट नाम का कानून बनाया था, जो सख्ती से वाणिज्यिक बैंकिंग और निवेश बैंकिंग को अलग-अलग करता था। वाणिज्यिक बैंकों को, जो ग्राहकों की जमा राशियों से वित्त हासिल करते हैं, अल्पावधि ऋणों के दायरे तक ही सीमित रखा गया था, जबकि निवेश बैंक चूंकि ग्राहकों की जमा राशियों के वित्त पोषित नहीं होते थे, शेयर बाजार की गतिविधियों के लिए ऋण देने के लिए स्वतंत्र थे। यह कानून महामंदी जैसे हालात से निपटने के उपाय के तौर पर बनाया गया था, जब बैंकों के सामने अंधाधुंध निकासी की समस्या खड़ी हो गयी थी, जबकि उन्होंने अपना पैसा शेयर बाजार में लगाया हुआ था। इन हालात में बैंकों को बैठने से बचाने के लिए अमरीकी सरकार को खासी मशक्कत करनी पड़ी थी, जिसमें रूजवेल्ट का चर्चित ‘‘अलाव पर चर्चा’’ प्रसारण भी शामिल था।

बहरहाल, ग्लास-स्टीगल कानून को 1999 में निरस्त कर दिया गया। इसी ने ऐसे हालात पैदा किए जहां वित्त व्यवस्था को एक बार फिर गंभीर संकट का सामना करना पड़ा। बेशक, ऐसा भी नहीं है कि उस संकट के पीछे यही एकमात्र कारण रहा हो। जाहिर है कि इस छोर से उस छोर तक, सभी ने ऋण देने के जोखिमों को आंकने में भारी कोताही बरती थी और इसीलिए, लेहमान ब्रदर्स जैसा निवेश बैंक बैठ गया था। लेकिन, जोखिमों के इस तरह घटाकर आंके जाने के चलते, वाणिज्यिक बैंक भी इसलिए संकट की चपेट में आए क्योंकि वे ऐसी परिसंपत्तियों के बदले में ऋण दे रहे थे, जो पहले यानी नियंत्रणात्मक दौर में, उनके सामान्य कारोबार का हिस्सा ही नहीं होती थीं।

विध्वंसक होगा यह धक्का

भारत में, सरकार की दाब-धौंस के चलते, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को भी अभूतपूर्व जोखिम लेने के लिए मजबूर किया गया है। फिर भी ये बैंक अब तक संकट फूटने से बचे रहे हैं क्योंकि जमाकर्ताओं का सार्वजनिक क्षेत्र पर भरोसा है। अगर इन बैंकों का निजीकरण कर दिया जाता है, तो जिस ज्वालामुखी के ऊपर ये बैंक बैठे हुए हैं, फट पड़ेगा और जमाकर्ताओं को बहुत भारी चोट झेलनी पड़ेगी। इसका धक्का सिर्फ इन बैंकों के जमाकर्ताओं तक सीमित नहीं रहेगा। इससे, पूरी भारतीय अर्थव्यवस्था को ही बहुत भारी और विध्वंसक धक्का लगेगा।

कहने को यह कहा जा सकता है ऐसा कुछ नहीं होगा क्योंकि निजीकरण होने के बाद भी, जमाकर्ताओं का यह विश्वास तो बना रह ही सकता है कि संकट आने की स्थिति में सरकार, निजीकरण के बाद भी उसी प्रकार बैंक के ग्राहकों के बचाव के लिए आगे आएगी, जैसे वह बैंक के सार्वजनिक क्षेत्र में रहते हुए आयी होती और जमाकर्र्ताओं का यह भरोसा ही, इन बैंकों की मुश्किल को डुबोने वाला संकट नहीं बनने देगा। लेकिन, इस तरह की धारणा के पीछे शायद ही कोई तर्क होगा। सचाई यह है कि जिस तरह का राजनीतिक दबाव, बैंक के सीधे सरकार की मिल्कियत में होने की सूरत में डाला जा सकता है, निजीकृत बैंक के मामले में डालना संभव ही नहीं होगा।

संक्षेप में यह कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों पर सरकार ने जो परिसंपत्ति-देनदारी असंतुलन थोप दिया है, उसके बाद उसका इन बैंकों का निजीकरण कर के उनसे पल्ला झाड़ लेना, घोर गैर-जिम्मेदारी की हरकत होगी। इस तरह से देश के आम जमाकर्ताओं को गंभीर वित्तीय घाटे के खतरे में तो धकेल ही दिया जाएगा, इसके अलावा आने वाले लंबे अर्से के लिए बैंकिंग व्यवस्था पर से लोगों का भरोसा भी उठ जाएगा। यह लोगों को बैंक में पैसा जमा कराने को छोडक़र, नोट जमा कर के रखना ही पसंद करने की ओर धकेलेगा। यह ऐसा प्रतिगामी कदम होगा जो लंबे अर्से के लिए विकास की संभावनाओं को ध्वस्त कर देगा।

मूल लेख अंग्रेजी में है।  इस लेख को आप इस लिंक के जरिये पढ़ सकते हैं -

Privatising Banks Could Lead to Economic Catastrophe

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