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सरकार की विनाशकारी नीतियों ने डेमोग्राफ़िक डिविडेंड को डिजास्टर में बदला

संदर्भ: दुनिया की सबसे विराट युवा आबादी और सरकार की नीतियां
Population
प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार

दुनिया की सबसे विराट युवा आबादी का सदुपयोग कर आर्थिक प्रगति का जो नायाब मौका देश को मिला था, उसे मोदी सरकार ने न सिर्फ गंवा दिया है, बल्कि उस डेमोग्राफिक डिविडेंड को अपनी विनाशकारी नीतियों से डेमोग्राफिक डिजास्टर में बदल दिया है।
 इसीलिये यह अनायास नहीं है कि आबादी में चीन को पछाड़ने की दुर्लभ ' उपलब्धि' के बारे में देश को सरकार की बजाय UNO से जानकारी मिली और गोदी मीडिया समेत सत्ता प्रतिष्ठान की इस पर प्रतिक्रिया आम तौर पर ठंडी है, इसे यथोचित 'गर्व' के साथ celebrate नहीं किया जा रहा।
 विशाल युवा आबादी को राष्ट्रीय प्रगति के लिए वरदान बना देने के लिए पहली और सबसे बुनियादी शर्त थी- गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, समुचित तकनीकी/professional कौशल, तथा हर हाथ को योग्यता के अनुरूप रोजगार। लेकिन इन सारे मोर्चों पर सरकार न सिर्फ बुरी तरह विफल रही, बल्कि  उसने राष्ट्र और युवा पीढ़ी के साथ विश्वासघात किया है।
 इसकी सबसे ताज़ा मिसाल NCERT द्वारा कक्षा 9 और 10 की किताबों से डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत ( Theory of Evolution ) को हटाने का फैसला है। पहले कोविड के दौरान इसे बच्चों पर बोझ कम करने के नाम पर अस्थाई तौर पर हटाया गया था, अब content rationalization के नाम पर स्थायी रूप से हटा दिया गया है।
 " Heredity and Evolution " नामक चैप्टर से Evolution हटा देने के बाद केवल Heredity बची है, अर्थात पृथ्वी शेषनाग के फन पर टिकी है और विभिन्न जाति के मनुष्यों का जन्म ब्रह्मा के शरीर के विभिन्न अंगों से हुआ !
इस अकल्पनीय फैसले पर समूची scientific community हतप्रभ ( shocked ) है। विज्ञान जगत से जुड़े देश के 1800 से अधिक प्रतिनिधियों ने जिनमें देश के सर्वोत्कृष्ट संस्थान IISc, IIT और TIFR के वैज्ञानिक शामिल हैं, एक खुले पत्र में इसकी खुली भर्त्सना की है, " यह शिक्षा का प्रहसन (Travesty of Education) है।..Evolution की प्रक्रिया को समझना Scientific Temper और rational विश्व-दृष्टिकोण के विकास के लिए अनिवार्य है। ...यह केवल जीवविज्ञान के सभी क्षेत्रों के लिए नहीं वरन अपने आसपास की दुनिया को समझने के लिए crucial है। ...बच्चा अगर विज्ञान की इस fundamental discovery के ज्ञान से वंचित रह गया, तो उसकी विचार प्रक्रिया बुरी तरह कुंद (seriously handicapped) हो जाएगी। यह समझ आज पूरे विश्व में तार्किक विवेक की बुनियाद है कि biological दुनिया लगातार बदल रही है और यह बदलाव प्रकृति के नियमों द्वारा governed है, उसके लिए किसी दैवीय हस्तक्षेप की जरूरत नहीं है। "
 इसके पूर्व इतिहास, साहित्य, राजनीति-शास्त्र जैसे विषयों की किताबों/पाठ्यक्रमों में ऐसे ही सांघातिक बदलाव किए गए हैं और वह सिलसिला जारी है। कुल मिलाकर इन बदलावों का उद्देश्य छात्रों को वैज्ञानिक, सेकुलर व लोकतान्त्रिक चेतना से वंचित करना है।
 उदात्त भावबोध व aesthetic sense, वस्तुनिष्ठ इतिहास बोध, वैज्ञानिक ज्ञान तथा लोकतान्त्रिक चेतना से वंचित कैसे युवा तथा  नागरिक तैयार किये जायेंगे, इसकी कल्पना करके ही सिहरन होती है।
 निजीकरण, सरकारी संस्थाओं के ध्वंस, अंधाधुंध फीसवृद्धि,  छात्रवृत्तियां बंद करके,  परिसर- लोकतंत्र व सांस्थानिक स्वायत्ता का खात्मा करके NEP के माध्यम से शिक्षा व्यवस्था को पूरी तरह चौपट करने और हाशिये के तबके के बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा से वंचित करने का पक्का इंतज़ाम कर दिया गया है।
 
रोजगार के मोर्चे पर हालात इससे भी भयावह हैं
 
याद करिए, 9 साल पहले तब के प्रधानमंत्री पद के दावेदार मोदी जी युवा भारत और हमारे डेमोग्राफिक डिविडेंड की कहानी कितने जोश से सुनाते थे और इसी बिना पर  बड़े बड़े सब्जबाग दिखाते थे। 
 भारत को चीन की तरह manufacturing hub बनाकर युवाओं को हर साल 2 करोड़ रोजगार भी उसी पैकेज का हिस्सा था।
 युवा उम्मीदों को उन्होंने जो पर लगाये थे, खुशहाल भविष्य के जो सपने दिखाए थे, उसी के प्रत्युत्तर में उनकी सारी रैलियों और सभाओं में  भोलेभाले ' कृतज्ञ युवाओं ' का मोदी मोदी का सम्मोहक उन्मादी कोरस गूंजता रहता था। लेकिन आज युवा पीढी के सारे सपने धूल धूसरित हो दुःस्वप्न में बदल चुके हैं !
 हालत यह हो गयी है कि रोजगार दे पाने में नाकाम मोदी सरकार ने  बेरोजगारी का खौफनाक सच छिपाने के लिए अब तो बेरोजगारी के आंकड़े ही देना बंद कर दिया है!
 दरअसल, मोदी सरकार अब अपनी 9 साला 'उपलब्धियों' पर जनता की प्रतिक्रिया से इतनी भयभीत है कि वह उन सारे आंकड़ों को छिपाने में लगी है जिनके बिना मानव-विकास के लिए आर्थिक नियोजन को दिशा दे पाना असम्भव है।
 ब्लूमबर्ग के स्तम्भकार मिहिर शर्मा लिखते हैं, " data के साथ भारत की मौजूदा सरकार का रिश्ता असहज है। राष्ट्रीय आय खातों से लेकर घरेलू खपत पैटर्न (house- hold consumption pattern) और रोजगार के आंकड़े देना बंद कर दिए गए हैं या संशोधित किये जा रहे हैं। इस बार की जनगणना राजनीतिक दृष्टि से और भी विस्फोटक होने वाली थी। अपनी विविधता के लिए चर्चित भारत में जनगणना के आंकड़े ही विभिन्न समूहों के सापेक्ष आकार के बारे में अंतिम सच (last word) माने जाते हैं। और जनसंख्या के वे आंकड़े लोकतान्त्रिक भारत में केवल उनकी वोट की ताकत ही नहीं तय करते, बल्कि लोक कल्याण तथा सरकारी सेवाओं/लाभों के वितरण को भी निर्धारित करते हैं।"
 आज जब मांग हो रही है कि सामाजिक न्याय को अधिक युक्तिसंगत बनाने तथा समाज के आखिरी पायदान तक पहुंचाने के लिए census के part के बतौर जाति-जनगणना भी करवाई जाय, तब मोदी सरकार census करवाने से ही भाग खड़ी हुई है। 2021 में जो दस साला जनगणना होनी थी, उसका अब तक कहीं पता नहीं! जब जनगणना ही नहीं होगी, विभिन्न वंचित समूहों की सही संख्या और राष्ट्रीय विकास तथा सार्वजनिक सेवाओं/सुविधाओं ( public goods ) के वितरण में उन्हें अब तक क्या हासिल हुआ और क्या नहीं हुआ, उनकी शिक्षा, रोजी-रोटी, स्वास्थ्य आदि का क्या हाल है, यह पता ही नहीं लगेगा, फिर उनके उत्थान के लिए नीतियां कैसे बनेंगी?
 बहरहाल, आँकड़ों को छिपाने से सच छिपने वाला नहीं है। शिक्षा की बर्बादी और रोजगार के कहर ने युवा पीढ़ी को किस मुकाम पर पहुंचा दिया है, उसे जानने के लिए अब आंकड़ों की जरूरत भी नहीं रही। 
 उसे अब रामनवमी जुलूसों में हाथों में तलवार त्रिशूल लिए उन्मादी नफरती नारे लगाते, गाली-गलौज करते, दूसरे धर्म के पूजा स्थलों पर हमले करते गरीब परिवार के युवाओं के हुजूम को देखकर समझा जा सकता है। ये वही अभागे युवा हैं जिन्हें कभी नौकरियां देने का वायदा किया गया था, लेकिन अब नौकरियों की जगह उनके हाथों में त्रिशूल पकड़ा दिया गया है और दिल-दिमाग में नफरती-जहर भर दिया गया है।
 सार्थक शिक्षा-सांस्कृतिक विकास से वंचित,  उज्ज्वल भविष्य की किसी भी उम्मीद से रहित ये बेकार-बेरोजगार, dehumanised युवा फासीवादी गिरोहों के foot soldier, सत्ता के साजिशी खेल में भाड़े के हत्यारे ( supari killer ) और दंगाई बनने के लिए अभिशप्त हैं।  
आज स्थिति यह है कि सार्वजनिक क्षेत्र के सबसे बड़े employer रेल विभाग में स्वयं मंत्रालय की स्वीकारोक्ति के अनुसार 3.12 लाख पद खाली पड़े हैं। वहां पिछले चार साल से एक भी पद विज्ञापित नहीं हुआ है। आखिरी बार 2019 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले NTPC और Group-D की भर्ती आयी थी।
 हर साल 2 करोड़ रोजगार का वायदा करके सत्ता में आये जो मोदी जी नौ साल में केन्द्र सरकार में महज 7 लाख लोगों को नौकरी दे सके (जबकि apply 22 करोड़ युवाओं ने किया था!), वह चुनाव के मद्देनजर अब अगले 1 साल में  10 लाख नौकरियों का वायदा कर रहे हैं! जाहिर है अब युवाओं को उनकी बातों पर यकीन नहीं रहा। 
 सच तो यह है कि मोदी सरकार ने अपनी नीतियों और कदमों से शिक्षा व्यवस्था और रोजगार की संभावनाओं को systematic ढंग से तबाह करने में कुछ भी उठा नहीं रखा है। उसने वर्तमान ही नहीं, आने वाली पीढ़ियों के भविष्य की बर्बादी का इंतज़ाम कर दिया है।
 आज, जब मोदी जी के कार्यकाल का आखिरी और 10 वां साल आ गया है, पूरे समाज के लिए, विशेषकर युवा पीढी के लिए भावुकता और हर तरह की संकीर्णता से ऊपर उठकर गहरे आत्ममंथन का अवसर है। क्योंकि आज जो दांव पर है वह न सिर्फ उनका समूचा जीवन तथा भविष्य है, बल्कि उससे भी बढ़कर आज हमारे लोकतंत्र का अस्तित्व ही गहरे संकट में फंस गया है, जिसके बिना सारे सपने, बेहतरी की सारी लड़ाई बेमानी ही जाएगी।
 देश के तमाम युवा संगठनों द्वारा हाल ही में रोजगार के कानूनी/संवैधानिक अधिकार के लिए संयुक्त युवा मोर्चे का निर्माण स्वागतयोग्य पहल है। जरूरत है कि रोजगार के साथ शिक्षाव्यवस्था से हो रही खतरनाक छेड़छाड़ को जोड़ते हुए देश के सारे लोकतान्त्रिक-प्रगतिशील छात्र-युवा संगठन एक प्लेटफ़ॉर्म पर आएं और ' रोजगार, शिक्षा, लोकतन्त्र ' के लिए बड़े राष्ट्रीय अभियान में उतरें।
 उम्मीद है इतिहास के इस नाजुक मोड़ पर एक बार फिर देश की युवा पीढी बदलाव की हिरावल बनेगी।
 
(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
 

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