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क्रिकेट की चकाचौंध और गेंद बनाने वाले मज़दूरों की दयनीय स्थिति

वैसे तो क्रिकेट की दुनिया काफी चमकदार है, मग़र इसके पीछे का अंधेरा बेहद डरावना है। यानी खेल की सबसे ज़रूरी चीज़ ‘गेंद’ को बनाने वाले मज़दूरों को उनकी मेहनत का वाजिब पैसा नहीं मिल पाता है।
Cricket
Photo Courtesy : istock

इन दिनों भारत में क्रिकेट विश्वकप खेला जा रहा है। दुनिया भर में इसका खुमार चढ़ा हुआ है, मीडिया से लेकर फिल्मी कलाकार तक इसके रंग में डूबे हुए हैं। लेकिन एक वक्त वो भी था जब क्रिकेट भद्र लोगों का खेल माना जाता था, क्रिकेटर पैसा बनाने की मशीन नहीं थे। दुनिया के क़रीब चार-पांच देश ही इसे खेलते थे। साल में एक बार विशेष रूप से शरद ऋतु में ये टीमें एक-दूसरे के देश जाती थीं फिर पांच दिवसीय टेस्ट मैच खेलती थीं, मग़र नब्बे के दशक के बाद से ही यह परिदृश्य पूरी तरह से बदल गया। सीमित एक दिवसीय मैच होने लगे। पहले पचास ओवर, फिर बीस ओवर वाले मैचों ने क्रिकेट को एक ऐसे बाज़ार में खड़ा कर दिया, जिसमें चकाचौंध, तड़क-भड़क और बेशुमार दौलत है। अब साल भर क्रिकेट मैच होते हैं। आईपीएल जैसी प्रीमियर लीग मैचों ने इस खेल में राष्ट्रवाद की संकीर्ण सीमाएं तोड़ दीं, अब बड़े उद्योगपति, फ़िल्मी कलाकार और सट्टेबाज़ नीलामी में बोली लगाकर क्रिकेट खिलाड़ियों को खरीद रहे हैं, अपनी टीम बनाकर मैच खेले जा रहे हैं और प्रयोजकों, खिलाड़ियों तथा क्रिकेट बोर्ड की बेशुमार कमाई हो रही है। एक अनुमान के मुताबिक इस विश्वकप के प्रसारण के दौरान विज्ञापन के पोस्टर लगवाने की लागत 3600 डॉलर प्रति सेकेंड है। विश्वकप की इनामी राशि 40 लाख डॉलर है। अर्थशास्त्रियों के अनुमान के मुताबिक विश्वकप 2023 टूर्नामेंट से भारतीय अर्थव्यवस्था को 22 हज़ार करोड़ रुपये की कमाई होगी। भारत में क्रिकेट का आयोजन कराने वाली संस्था बीसीसीआई ने 2018 से 2022 तक 27 हज़ार करोड़ की कमाई की है। मग़र बहुत कम लोगों को इस ग्लैमर, पैसे और चकाचौंध के पीछे खेल में इस्तेमाल होने वाली चीज़ें, जिसमें सबसे प्रमुख गेंद बनाने वाले मज़दूरों के शोषण का काला सच पता है। दरअसल ये मज़दूर बहुत कम पैसे में गेंद बनाते हैं।

देश में उत्तर प्रदेश का ज़िला मेरठ खेलों का सामान बनाने का सबसे बड़ा केंद्र है, यहां 30 गांवों के क़रीब 10 हज़ार लोग क्रिकेट की गेंद बनाने के उद्योग से जुड़े हैं। ये सारा उद्योग असंगठित क्षेत्र में आता है, यही कारण है कि इन मजदूरों को शोषण से बचाने के लिए कोई भी यूनियन नहीं है। बता दें कि क्रिकेट की गेंद को पूरी तरह हाथ से सिला जाता है, जबकि  बाज़ार में स्वचलित (आधुनिक) मशीनों से सिली जाने वाली आस्ट्रेलियाई कूका बुरा गेंदें भी आ गई है, मग़र आज भी हाथ से बनाई जाने वाली गेंदें सबसे अच्छी मानी जाती हैं, क्योंकि ये बहुत अच्छा स्पिन लेती हैं और अच्छा उछाल देती हैं इसलिए भारतीय मानकों के अनुसार ये सबसे अनुकूल मानी जाती हैं। असल में क्रिकेट गेंद बनाना एक जटिल प्रक्रिया है, जिसमें 10 प्रमुख चरण शामिल हैं। तैयार होने से पहले एक गेंद 10 अलग-अलग प्रक्रियाओं से गुज़रती है। 11 कारीगर जो अपने-अपने काम में कुशल होते हैं, मिलकर इस गेंद को तैयार करते हैं। इस मेहनत और शोषण के अलावा एक सामाजिक सच्चाई और भी है वह ये कि गेंद में चमड़े का काम होने के कारण इस काम में ज़्यादातर दलित और मुसलमान ही आते थे। मग़र पिछले कुछ समय में ये प्रथा थोड़ा सामान्य हुई है, क्योंकि बड़ी जातियों के लोग भी इस पेशे में शामिल होने लगे हैं। यह परिघटना भारत में हुए पूंजीवादी विकास के चलते जातिवादी व्यवस्था में आए बदलाव को भी दर्शाती है। चमड़े को धोने से लेकर, इसे गेंद के आकार में काटने, सिलाई करने, पॉलिश करने जैसे काम अलग-अलग मज़दूर करते हैं। तैयार होने के बाद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गेंद की क़ीमत 2000 से 3500 रुपये तक होती है, पर मज़दूरों को प्रति गेंद 30-35 रुपये ही मिलते हैं। यह गेंद भारत में होने वाले टूर्नामेंटों से लेकर विदेशों में भी निर्यात की जाती है। ये पैसे भी सभी कारीगरों को नहीं मिलते। गेंद बनाने का कौशल उस्ताद प्रणाली के माध्यम से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित की जाती है। दूसरी श्रेणी की गुणवत्ता वाले गेंद की कीमत 200 से 500 रुपये के बीच है। इसके निर्माण में लगे मज़दूरों को प्रति गेंद 20 से 30 रुपये का ही भुगतान किया जाता है। इस क्षेत्र में महिला मज़दूरों की स्थिति और भी अधिक खराब है। यह केवल क्रिकेट गेंद में ही नहीं अन्य क्षेत्रों में भी है। एक महिला ने बताया कि, हर महिला मज़दूर को गेंद की सिलाई के 15 रुपये तथा फुटबॉल की सिलाई के लिए केवल 30 रुपये ही मिलते हैं। इसमें बिचौलिए भारी मुनाफ़ा कमाते हैं। इसके विपरीत वास्तविक कारीगर को बहुत कम मज़दूरी मिलती है, इसमें एक मजदूर का अधिकतम मासिक वेतन 10,000 तक ही होता है तथा काम करने की स्थितियां भी बहुत ख़राब हैं। यह शोषण और मुनाफ़े का अनुचित वितरण न केवल क्रिकेट गेंद के क्षेत्र में देखा जाता है, बल्कि पूरे खेल सामान के उद्योग में प्रचलित है।

मेरठ में क्रिकेट गेंद बनाने वाले एक मज़दूर का कहना है कि कोई भी जीते हमें क्या फ़र्क पड़ता है?  खेल का असली कारीगर तो खिलाड़ी को ही समझा जाता है। यानी इससे बड़ी त्रासदी और क्या होगी कि दिन-रात मेहनत करने वाले मज़दूर को ख़ुद की बनाई गेंद से हो रहा खेल देखने का वक्त न मिलता हो।

वैसे भारत में खेल उद्योग मुख्य तौर पर जलांधर और मेरठ में है। 1947 में पंजाब के बंटवारे के बाद सियालकोट से उजड़कर आए खेल का सामान बनाने वाले कारीगरों ने इन शहरों में फिर से अपना काम शुरू कर दिया। भारत में खेलों के सामान की पूर्ति मुख्य रूप में इन दो जगहों पर लगे उद्योग से ही पूरी होती है। गेंद बनाने के इस काम में लगे ज़्यादातर मज़दूरों को यह हुनर पीढ़ी-दर-पीढ़ी मिलती है। हालांकि अब इस पेशे में मशीनों की अहमियत भी बढ़ रही है। इस काम में मज़दूरों को लंबे समय तक नज़र टिकाकर रखने की ज़रूरत होती है। थोड़ी-सी नज़र हटने या हाथ कांपने से हाथ ज़ख्मी हो सकता है। एक भी सिलाई ग़लत लग जाए तो सारी गेंद खराब हो जाती है और मालिक मज़दूरों को कोई पैसा नहीं देते। एक उम्र के बाद आंखों की रोशनी कम होने के कारण इन मज़दूरों को काम से निकाल दिया जाता है। इतने साल एक ही काम करने के बाद कोई अन्य काम सीखने की गुंजाइश भी नहीं रहती, क्योंकि मज़दूर गेंद बनाने के एक ख़ास हिस्से का ही काम जानते होते हैं, इसलिए वे अपने रोज़गार के लिए इसी उद्योग पर निर्भर होते हैं। माल के ऑर्डर भी कुछ ख़ास सीजन में ही आते हैं।

असंगठित उद्योग होने के कारण श्रम क़ानूनों के पूर्ण अभाव में इन मज़दूरों को और भी शोषण का शिकार होना पड़ता है। काम से हटने के बाद किसी भी बीमारी की हालत में मज़दूरों के लिए किसी भी तरह की सामाजिक सुरक्षा का कोई प्रबंध नहीं होता। इस क्षेत्र में मज़दूर यूनियनों का कोई ख़ास आधार नहीं है, जिसके कारण मालिक वेतन से लेकर, काम के घंटों तक, हर चीज़ में अपनी मर्ज़ी चलाते हैं।

साल 2017 में मोदी सरकार ने देश में गौ-हत्या पर पाबंदी लगा दी। जिसके कारण चमड़े के रेट बढ़ गए और बड़ी संख्या में मज़दूरों की छंटनी कर दी गई। इसके अलावा कोरोना लॉकडाउन के कारण भी खेल उद्योग में काफ़ी नुक़सान हुआ, जिसका बोझ मालिकों ने मज़दूरों पर ही डाला। मज़दूर बताते हैं कि कई बार मालिक 2 हफ़्ते तक तनख़्वाह नहीं देता था, पर अफ़सोस क्रिकेट मैचों की चमक के पीछे इन मज़दूरों की नरक भरी ज़िंदगी समाज की नज़र से छिप जाती है। फ़ैक्टरी में काम करने वाले एक मज़दूर ने कहा कि खिलाड़ी सिर्फ़ चमकती हुई गेंद पहचानते हैं। मनोरंजन के साधन बनाने वाले मज़दूर की ख़ुद उन चीज़ों तक पहुंच नहीं है। उसकी ज़िंदगी सिर्फ

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