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यात्रा ने जो उम्मीदें जगायीं, क्या विपक्ष उन्हें अंजाम तक पहुंचाएगा?

यह सवाल आज बेहद मौजूं हो उठा है कि विपक्ष बदलाव की इस आकांक्षा को एक जनपक्षीय कार्यक्रम में ढालकर, क्या एक  लोकप्रिय जनअभियान/आंदोलन का नेतृत्व कर सकता है।
bharat jodo yatra
फ़ोटो साभार: PTI

भारत जोड़ो यात्रा समापन की ओर है। यात्रा चुनावी राजनीति की दृष्टि से कितनी सफल होगी, यह अभी भविष्य के गर्भ में है। यह सब इस बात पर निर्भर है कि कांग्रेस तथा अन्य भाजपा विरोधी ताकतें आने वाले दिनों में क्या करती हैं। 

पर यात्रा निश्चय ही इस अर्थ में सफल रही कि वह political discourse के केन्द्र में आ गयी। मोदी-केंद्रित, नफरती हिंदुत्व विमर्श को displace करते हुए भाईचारा और मोहब्बत का पैगाम लेकर चलती इस यात्रा का मीडिया में अच्छा खासा स्पेस कवर करना और राजनीतिक चर्चा के केंद्र में बने रहना अपने आप में सकारात्मक विकास रहा, जिसने इस दौरान ध्रुवीकरण की राजनीति पर एक brake का काम किया है। इसका इससे बड़ा सुबूत क्या हो सकता है कि reverse polarisation की आशंका से भयभीत, स्वयं मोदी जी ने अपने प्रवक्ताओं से मुसलमानों के बारे में गलत बयानबाजी न करने की हिदायत दी है। यह इसी का side effect लगता है!

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भारत जोड़ो यात्रा को दक्षिण से अधिक उत्तर भारत में समर्थन मिला है, यह बहुतों के लिए अचरज में डालने वाला था क्योंकि यहां कांग्रेस कमजोर है और अधिकाँश भाजपा शासित राज्य हैं तथा भाजपा-संघ के जबरदस्त प्रभाव वाले इलाके हैं। पर यह विरोधाभास इस सच्चाई का ही प्रतिबिंब है कि भाजपा राज के दंश को सर्वाधिक उत्तर भारत के लोगों ने ही झेला है, उनके बर्बर बुलडोजर राज की सबसे बड़ी प्रयोगस्थली पिछले लगभग 9 वर्ष से यही इलाका रहा है, स्वाभाविक रूप से उसके खिलाफ उतना ही गहरा आक्रोश और मुक्ति की आकांक्षा भी सबसे बलवती इसी क्षेत्र में  है- जिसे अपनी अभिव्यक्ति के लिए बस एक viable मंच का इंतज़ार है। यात्रा के रूप में एक प्लेटफार्म मिलते ही लोग उसकी ओर उमड़ पड़े।

यात्रा के प्रति मुस्लिम समुदाय, समाज के धर्मनिरपेक्ष उदारवादी तबकों तथा उन तमाम लोगों के बीच जो मोदी राज की विदाई चाहते हैं, उत्साह दिखा है। लंबे समय से ये तबके UP, बिहार, बंगाल जैसे उन बड़े राज्यों में कांग्रेस से अलग रहे हैं, जहां कोई दूसरा viable भाजपा विरोधी विकल्प उन्हें उपलब्ध  रहा है। यही कारण है कि बसपा के पराभव के दौर में,  UP के पिछले चुनाव में  सपा के साथ मुस्लिमों की अभूतपूर्व गोलबंदी हुई। यही हाल तमाम लोकतान्त्रिक धर्मनिरपेक्ष ताकतों का भी रहा। लेकिन अब जब एक बार फिर इन तबकों में कांग्रेस के प्रति आकर्षण बढ़ रहा है, 2024 के निर्णायक चुनावों के लिए इसके गम्भीर निहितार्थ हैं। 

कांग्रेस का पुनर्जीवन अंततः विपक्षी एकता की धुरी बनेगा या उनके बीच बड़े घमासान का स्रोत? एक संभावना यह है कि 2014 और 2019 के विपरीत इस बार एक ताकतवर ध्रुव के बतौर कांग्रेस का उभरना विपक्षी एकता के लिए catalyst का काम करे। परन्तु यदि आत्मघाती प्रतिस्पर्धा और सीटों की खींचतान में यह नहीं हो सका, और भाजपा विरोधी वोटों का कांग्रेसी खेमे तथा किसी नए मोर्चे के नाम पर बने गठजोड़ के बीच विभाजन हुआ तो इसके नतीजे राजनीतिक रूप से सबसे अहम राज्य UP समेत कई जगहों पर विनाशकारी हो सकते हैं।

आज तमाम दलों के लिए न विचारधारा कोई barrier है, न उसूली राजनीति कोई मूल्य है, ऊपर से एजेंसियों की तलवार सर पर लटक रही है। इन हालात में यह तय है कि जनता का भारी दबाव ही विपक्ष की तमाम ताकतों को, चुनाव-पूर्व अथवा चुनाव के बाद एकल भाजपा विरोधी मंच पर ला सकता है।

हाल ही में इसकी एक झलक  दिखी जब भारत जोड़ो यात्रा उत्तर प्रदेश पहुंची, शुरू में partisan politics की नुकसानदेह छाया इस पर पड़ती दिखी जब एक बेहद अपरिपक्व और damaging बयान में सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव ने कांग्रेस-भाजपा को एक समान करार दिया। लेकिन  किसान आंदोलन की पट्टी में, जो कभी भयानक दंगों की भी साक्षी थी, मिले भारी जनसमर्थन ने ( अन्य तबकों के साथ किसानों और मुसलमानों के ) और सम्भवतः राजनीतिक पुनर्विचार ने अखिलेश और यहाँ तक कि मायावती जी को भी राहुल गाँधी को शुभकामना के पत्र लिखने को प्रेरित किया। जयंत चौधरी ने भावुक सन्देश दिया, उनके दल के  कार्यकर्ता तथा किसान यूनियन के लोग समर्थन में सड़क पर उतरे।

दरअसल भारत जोड़ो यात्रा ही नहीं विपक्ष के तमाम कार्यक्रमों में जनता की भीड़ उमड़ रही है, जो इस बात का प्रतीक है कि जनता ऊबी हुई है और मौजूदा हालात में बदलाव चाहती है।

इसीलिए, विपक्षी एकता की जरूरत के साथ ही यह सवाल आज बेहद मौजूं हो उठा है कि  विपक्ष बदलाव की इस आकांक्षा को एक जनपक्षीय कार्यक्रम में ढालकर, क्या एक  लोकप्रिय जनअभियान/आंदोलन का नेतृत्व कर सकता है और एक ऐसा नैरेटिव रच सकता है जो मोदी-भाजपा के विभाजनकारी, बहुसंख्यक-राष्ट्रवादी, पॉपुलिस्ट नैरेटिव को पीछे धकेल सके और जिसे आत्मसात कर सचेत जनसमुदाय फासीवादी राज के हर छल-छद्म, दमन और पूँजी की ताकत के खिलाफ एक अजेय ताकत बन कर उठ खड़ा हो !

दुर्भग्यवश, अभी इसका कोई संकेत नहीं है।

यात्रा के माध्यम से राहुल ने देश को कितना समझा यह तो वे ही जानें, पर देश ने भी उनको समझा-उनकी सामर्थ्य व संभावनाओं के साथ सीमाओं को भी, जो मूलतः कांग्रेस की वर्गीय सीमाएं हैं। तमाम मुद्दों पर देश को उनके रुख की एक झलक मिली। 

बेशक, राहुल ने इस यात्रा के दौरान मोदी सरकार के विध्वंसकारी राज के खिलाफ जनता की हर दुखती रग पर हाथ रखने की कोशिश की, बीमारी के सभी लक्षण गिनाए, पर शायद ही कोई आश्वस्त हो कि वे इसके पीछे के मूल कारणों की शिनाख्त कर पाए और उनका ठोस समाधान पेश कर पाए। 

मिसाल के तौर पर वे monopoly और क्रोनी पूंजीपतियों पर तो बोले, लेकिन बड़े पैमाने पर सार्वजनिक संपत्ति को अम्बानी-अडानी के हवाले करने के फैसलों और नीति को reverse करने, निजीकरण को रोकने के सवाल पर चुप रहे। किसानों की तकलीफ पर तो बोले, लेकिन MSP की कानूनी गारंटी के सवाल पर non-committal रहे। छत्तीसगढ़ में जल-जंगल-जमीन पर कब्ज़े के खिलाफ प्रतिरोध करते आदिवासियों के दमन, पूरे देश में सालों से बंद राजनीतिक-नागरिक समाज, अल्पसंख्यक समुदाय के कार्यकर्ताओं की रिहाई, काले कानूनों की वापसी जैसे बेहद महत्वपूर्ण लोकतांत्रिक प्रश्नों पर भी उनका कोई स्पष्ट stand सामने नहीं आया।

इसी तरह मजदूर विरोधी लेबर कोड वापस लेने, रोजगार को मौलिक संवैधानिक अधिकार बनाने, शिक्षा-स्वास्थ्य पर बड़े पैमाने पर सार्वजनिक निवेश बढ़ाने और इस सब के लिए कारपोरेट और super rich तबकों को tax करने जैसे तमाम सवाल अनुत्तरित रहे।

क्या आने वाले दिनों में जनान्दोलन व लोकतान्त्रिक ताकतें इन सवालों के ठोस जवाब के लिए विपक्ष को बाध्य कर पाएंगी ?

बताया जा रहा है कि यात्रा के बाद हाथ से हाथ जोड़ो कार्यक्रम के तहत राहुल गांधी का संदेश तथा मोदी के खिलाफ अभियोगपत्र लेकर कांग्रेस कार्यकर्ता घर घर जाएंगे। 

बहरहाल, समय की मांग उससे आगे जाने की है। एकताबद्ध विपक्ष तथा किसान-आंदोलन समेत जनान्दोलन की तमाम ताकतों, लोकतान्त्रिक शक्तियों को मोदी के विनाशकारी राज के खिलाफ राष्ट्रीय पुनर्निर्माण का विश्वसनीय एवं लोकप्रिय वैकल्पिक कार्यक्रम लेकर राष्ट्रीय अभियान/आंदोलन में सड़क पर उतरना होगा। कारपोरेट-हिंदुत्व गठजोड़ के फासीवादी गिरोह के विरुद्ध 2024 में संसद की तकदीर का फैसला सड़क की लड़ाई से गुजर कर ही होगा।

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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