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आज़ाद भारत में आज़ादी का अर्थः अमृत महोत्सव मनाने और समझने का अंतर

आज़ादी को समझने और उसे कायम रखने का मूल मंत्र समता के कार्यक्रमों को बढ़ाने और भाईचारे यानी बंधुत्व पर जोर देने में है। इनके बिना आज़ादी लड़खड़ा रही है। आज़ादी कमजोर हो रही है झूठ और निगरानी के बढ़ते प्रभावों के कारण।
आज़ाद भारत में आज़ादी का अर्थः अमृत महोत्सव मनाने और समझने का अंतर
फ़ोटो साभार: सोशल मीडिया

नब्बे वर्षों (1857-1947) के कठिन संघर्षों के बाद मिली भारत की आजादी अपने 75 वें वर्ष में प्रवेश कर रही है और इसीलिए एक ओर उसे सरकारी स्तर पर मनाने की होड़ है तो दूसरी ओर गैर सरकारी लोग भी अपने ढंग से उसे मनाने और समझने का प्रयास कर रहे हैं। आजादी का जश्न मनाने और उसका अर्थ समझने में अंतर है। इसीलिए जब 15 अगस्त 1947 को पंडित जवाहर लाल नेहरू, सरदार बल्लभ भाई पटेल, मौलाना आजाद और उनके मंत्रिमंडल के दूसरे सहयोगी दिल्ली में उसका जश्न मना रहे थे, तब महात्मा गांधी कलकत्ता के बेलियाघट्टा में लोगों को उसका अर्थ समझा रहे थे। यानी आजादी के महान संघर्ष के समुद्र मंथन से सांप्रदायिकता का जो विष निकला था उसे वे पी रहे थे। 

आजादी की लड़ाई लड़ने के गांधी के तरीकों पर मतभेद हो सकता है, उनके धार्मिक प्रतीकों के इस्तेमाल की भी आलोचना हो सकती है और आलोचना हो सकती है उनके ग्राम स्वराज पर आधारित नए भारत के सपनों की। लेकिन इस बात पर तो कोई मतभेद नहीं हो सकता कि सांप्रदायिकता आजादी की दुश्मन है। अगर आजादी अमृत है तो सांप्रदायिकता जहर है। यही वजह है कि जब गांधी ने कलकत्ता के दंगों को शांत करने के लिए 72 घंटे का अनशन किया और वहां की सांप्रदायिकता की धधकती आग ठंडी हुई तो `द स्टेट्समैन’ जैसे अंग्रेजी राज के समर्थक और गांधी ही नहीं आजादी की लड़ाई की आलोचना करने वाले अखबार को भी लिखना पड़ा कि उन्होंने जीवन में पहली बार अच्छा काम किया है।

लेकिन आज जब हम आजादी का अमृत महोत्सव मनाने की शुरुआत कर रहे हैं तो स्वतंत्रता दिवस से तीन दिन पहले कानपुर में हिंदूवादी संगठन के कार्यकर्ताओं ने एक गरीब मुस्लिम युवक की पीटते हुए परेड निकाली और उसे जयश्रीराम कहने पर मजबूर किया। उसकी सहमी हुई बच्ची साथ में है। वह वीडियो भारत की आजादी की भद्दी तस्वीर निर्मित करता है। ऐसी ही तस्वीर उस समय भी निर्मित होती है जब जंतर मंतर पर किसान संसद के बगल में सत्तारूढ़ पार्टी से जुड़े कुछ लोग `जब मुल्ले काटे जाएंगे’ का नारा लगाते हैं। पूरे मानसून सत्र में विपक्ष की पेगासस जासूसी कांड पर चर्चा की मांग की उपेक्षा और सत्र के समापन के दिन राज्यसभा में मार्शलों और बाहर से बुलाए गए लोगों के माध्यम से महिला सांसदों से धक्कामुक्की की गई। उसके बाद विपक्ष पर संगीन आरोप लगाकर उसे बदनाम करने की कोशिश में भी यह तस्वीर और भद्दी होती दिखाई देती है।

1857 में भारत के आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर ने जो एलान किया था उसमें कहा था कि खुदा ने इंसान को जितनी नियामतें बरकत की हैं उसमें सबसे कीमती नियामत आजादी है। आजादी की यह नियामत प्रकृति ने अपने सभी जीवों को दी है। लेकिन उसका अर्थ समझने, उस पर बहस करने, उसे व्यवस्थित करने, उसे नियंत्रित करने और नियंत्रित किए जाने पर नियंत्रण के विरुद्ध संघर्ष करने का काम इंसान ही करता है। आजादी का जश्न तो प्रकृति के समस्त प्राणी मनाते हैं और शायद इसीलिए उसे नैसर्गिक भी माना जाता है लेकिन मनुष्य उसका अर्थ समझने और उसे विस्तार देने की कोशिश करता है। इसलिए मानव समाज के लिए उसका विशेष अर्थ हो जाता है।

आजादी का अर्थ समझने के लिए यह समझना भी जरूरी होता है कि गुलामी क्या है? उसी के साथ इस मामले पर भी विचार चलता है कि गुलामी आई कैसे? वह कौन सा स्वभाव है, कौन सा संस्कार है, कौन सी व्यवस्था है और कौन सी संस्था है जो हमें गुलाम बनाती है? वह जाति है, धर्म है, लोभ है, भय है या संस्थाओं की कमजोरी है? हमारा स्वाधीनता संग्राम एक ओर अंग्रेजी सत्ता से लड़ने का उद्यम है तो दूसरी ओर यह समझने का प्रयास है कि हम गुलाम क्यों हुए? अगर सुभद्रा कुमारी चौहान अपनी मशहूर कविता झांसी की रानी में लिखती हैं  `गुमी हुई आजादी की कीमत सबने पहचानी थी, दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी’, तो मैथिली शरण गुप्त लिखते हैं कि `हम कौन थे क्या हो गए और क्या होंगे अभी आओ विचारें बैठकर यह समस्याएं सभी’। 

अंग्रेजों का कहना था कि भारतीय असभ्य हैं और आजादी का अर्थ समझ नहीं सकते। इसलिए अंग्रेजी शासन भारतीयों को गुलाम बनाकर सभ्य बनाने का पुण्य कार्य कर रहा है। जबकि भारतीयों का कहना था कि हमारी सभ्यता प्राचीन है और अंग्रेज जब सभ्य होने के बारे में सोच भी नहीं सकते थे तब हमारे यहां महान ग्रंथों की रचना हुई और हम विज्ञान, गणित और भाषा शास्त्र पर उच्च स्तरीय चिंतन कर रहे थे। अगर स्वाधीनता संग्राम और उसके बाद इतिहास से संचालित होने वाली प्रमुख विचार दृष्टियों का जिक्र किया जाए तो कहा जा सकता है कि एक ओर राजनीतिक आजादी के लिए लड़ने वाले थे तो दूसरी ओर आर्थिक आजादी पर जोर देने वाले थे। तीसरी ओर ऐसे लोग भी थे जो सामाजिक आजादी को राजनीतिक आजादी से ज्यादा आवश्यक मानते थे और कहते भी थे कि राजनीतिक आजादी लाने में देरी हो सकती है लेकिन सामाजिक आजादी में विलंब बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।

गांधी, आंबेडकर और कम्युनिस्टों (समाजवादियों) की यह धाराएं आधुनिक भारत की राजनीति में स्पष्ट दिखाई पड़ती हैं और उनके टकराव और सहयोग भी बहुचर्चित हैं। इनके अलावा एक चौथी धारा सांप्रदायिकता की धारा थी जो यह मानती थी कि हिंदू और मुस्लिम अलग अलग राष्ट्र हैं और वे एक साथ नहीं रह सकते। इसी धारा का प्रतिनिधित्व करते हुए सावरकर, हेडगेवार, गोलवलकर और उनके अनुयायी ऐसा हिंदू राष्ट्र बनाने के बारे में सोचते थे जिसमें अल्पसंख्यक समुदाय दोयम दर्जे का नागरिक हो। दूसरी ओर इसी आशंका से ग्रसित होकर मोहम्मद अली जिन्ना मुस्लिम बहुमत वाले इलाके को अलग राष्ट्र बनाना चाहते थे। इन धाराओं के भीतर और बाहर क्रांतिकारी, अहिंसावादी और नरमपंथी, गरमपंथी जैसी विविध धाराएं थीं जो ओवरलैप करती थीं। उन सबके प्रभाव के चलते अनुसूचित जातियों को आरक्षण देने वाला पूना समझौता हुआ, भारत को आजादी मिली और देश का विभाजन भी हुआ। आजाद होने के बाद भारत को उसके विद्वान और समझदार नेतृत्व ने भयानक सांप्रदायिक हिंसा की परवाह न करते हुए उसे एक संविधान भी दिया। ताकि वह अपने लक्ष्य को तय करके अपनी संस्थाओं को उस काम के लिए लगाए। यह आजादी की मुकम्मल योजना थी जहां भारतीय नागरिक अपने विकास का रास्ता स्वयं तय कर सकें।

गांधी आजादी के लिए `स्वराज’ शब्द का इस्तेमाल करते थे और उन्होंने –स्वराज- शब्द की व्याख्या कुछ इस तरह से की है। वे कहते थे स्वराज का मतलब यह नहीं है कि अंग्रेजी फौज चली जाए और हम भारतीय फौज के अधीन हो जाएं। न ही स्वराज का अर्थ यह है कि अंग्रेज पूंजीपति यहां से चले जाएं और देश पर भारतीय पूंजीपतियों का कब्जा हो जाए। इसी तरह भगत सिंह का कहना था कि आजादी का अर्थ यह नहीं है गोर अंग्रेज चले जाएं और उनकी जगह पर काले अंग्रेज हावी हो जाएं। भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन का मुख्य जोर पूंजीवाद को पराजित करने पर रहा है। क्योंकि वह साम्राज्यवाद को पूंजीवाद की चरम अवस्था मानता था इसलिए वह मानता था कि पूंजीवाद को हराए बिना साम्राज्यवाद नहीं हारने वाला है। वह एक समाजवादी क्रांति में भारत की आजादी का स्वप्न देखता था। वह कभी आजादी की लड़ाई को राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन के अनिवार्य हिस्से के रूप में देखता था तो कभी कभी वैसा नहीं मानता था। उसके लिए आजादी एक अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के तहत मिलने वाली सुविधा और अधिकार  है।

जबकि आंबेडकर और उनके जैसे सामाजिक न्याय के आंदोलनकारियों का मानना था कि अंग्रेजों के आने के बाद भारत में अछूतों और दूसरी पिछड़ी जातियों की स्थिति में सुधार हुआ है। अंग्रेज भारत को एक आधुनिक व्यवस्था दे रहे हैं। इसलिए उनके साथ लड़ने के बजाय उनसे सहयोग करना जरूरी है। आंबेडकर पूर्ण आजादी के बजाय डोमिनियन स्टेटस की मांग कर रहे थे।

आजाद भारत के पिछले 75 सालों में इन्हीं धाराओं ने देश का निर्माण किया। चूंकि समाजवादी और कम्युनिस्ट यह यकीन नहीं कर पा रहे थे कि जो संविधान बन रहा है वह उनकी सोच के अनुरूप पूंजीवादी और सामंती व्यवस्था का समाजवादी विकल्प प्रस्तुत करेगा इसलिए वे संविधान सभा में शामिल नहीं हुए। अपने समाजवादी सपनों को पहले समाजवादियों ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के मुक्ति संग्राम से जोड़ा लेकिन बाद में 1948 में उससे अलग हो गए। वे गांधी के नेतृत्व को स्वीकार करते थे लेकिन गांधी समाजवादी समाज बनाएंगे ऐसा नहीं मानते थे। वे उसमें सहायक हो सकते हैं। पर नेहरू को लेकर तो वे ज्यादा ही खफा हो गए। जबकि कम्युनिस्टों को गांधी के नेतृत्व में बहुत सारी कमियां दिखती थीं इसलिए वे उनसे सट नहीं पाए। उन्हें नेहरू में कभी कभी आशाएं दिखती थीं इसलिए उनसे सहयोग किया।

आजाद भारत में संविधान ने एक रास्ता तय किया तो परिवर्तनकारी समूहों ने अपने ढंग से आंदोलन और चुनाव का रास्ता पकड़ा। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने दुनिया में पहली बार केरल में लोकतांत्रिक ढंग से चुनी हुई सरकार का गठन किया। वह सरकार स्थायी नहीं रही लेकिन उसके बाद उनकी केरल में एक स्थायी जगह बन गई। सन 1977 में पश्चिम बंगाल में वाममोर्चा की सरकार आई जिसने 34 साल यानी 2010 तक लगातार शासन किया। त्रिपुरा में वाममोर्चा सरकार ने 1978 से 1988 तक शासन किया और फिर 1993 से 2018 तक सरकार चलाई। इसी तरह समाजवादियों ने 1967 में संविद सरकारों से माध्यम से सात राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारों का गठन किया और उसके बाद बिखराव के बावजूद अलग अलग रूपों में केंद्र और राज्य की सत्ता में गठबंधन के रूप में आते जाते रहे। हालांकि आज भले समाजवादी और कम्युनिस्ट संविधान की प्रस्तावना का उल्लेख बार बार करते हैं लेकिन आरंभ में वे उसे एक दिखावटी और सजावटी वाक्य ही मानते थे।

इसीलिए अगर लोहिया ने सप्तक्रांति की अवधारणा प्रस्तुत की तो जयप्रकाश नारायण ने संपूर्ण क्रांति की।वामपंथी विचारधारा के टी नागीरेड्डी ने इंडिया मार्टगेज्ड जैसी पुस्तक भी लिखी जिसमें भारत की आजादी की कड़ी आलोचना है। संवैधानिक लिहाज से देखें तो भारत की आजादी का अर्थ संविधान की प्रस्तावना में दिए गए उद्देश्यों को पूरा करना है। संविधान के मूलतः तीन उद्देश्य हैं। एक नवोदित राष्ट्र की एकता और अखंडता को कायम करना तो दूसरा है सामाजिक क्रांति करना और तीसरा है लोकतांत्रिक व्यवस्था और संस्कृति का निर्माण करना।

लोकतांत्रिक समाज का निर्माण सामाजिक क्रांति से होगा और संविधान उसके लिए वैधानिक मार्ग निर्धारित करता है। लेकिन लोकतांत्रिक संस्थाएं एकता और अखंडता के नाम पर उसमें बाधा डालती हैं। यही कारण है कि संविधान में ही दिए गए क्रांति के उद्देश्यों को प्राप्त करने के दौरान उसकी संस्थाओं और नागरिकों में टकराव होता है। 

इसी टकराव के कारण जेपी आंदोलन हुआ और आपातकाल लगा जिस दौरान नागरिक अधिकारों का बुरी तरह दमन हुआ और लाखों नेताओं और राजनीतिक कार्यकर्ताओं को जेलों में डाल दिया गया। उसके बाद जेपी ने आजादी की दूसरी लड़ाई लड़ी और कांग्रेस के अधिनायकवादवादी शासन को सत्ता से हटा दिया। इसी टकराव के कारण तेलंगाना में पचास के दशक में सामंती व्यवस्था के विरुद्ध खड़े हुए कम्युनिस्ट आंदोलन का दमन किया गया। इसी के कारण साठ के दशक में पश्चिम बंगाल और बिहार में उठे नक्सली आंदोलन की हिंसा से राज्य सहम गया फिर उसे बुरी तरह कुचला गया। आज भी देश में सामाजिक क्रांति के उद्देश्यों को लेकर विविध संगठन सक्रिय हैं और उन्हें माओवादी बताकर उनका दमन किया जा रहा है। माओवादियों की हिंसा गलत है लेकिन सभी के माओवादी बताना भी गलत है। दरअसल आजादी तब तक अधूरी है जब तक लोगों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय न मिले। वह तब तक पूरी नहीं होती जब तक उसके नागरिकों को सोचने, आस्था रखने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता न प्राप्त हो। इसके अलावा संविधान अपने नागरिकों को गरिमामय जीवन प्रदान करने का भी संकल्प जताता है और उसे भी राष्ट्र की एकता और अखंडता से पहले रखता है। 

1990 के दशक के आरंभ में आजादी को नया अर्थ देने वाली धाराएं भारत के राजनीति क्षितिज पर प्रकट हुईं और उन्होंने अपने अपने ढंग से भारत का निर्माण करने का चक्रवात पैदा कर दिया। यह धाराएं थी मंदिर आंदोलन के बहाने उठी हिंदुत्व की धारा, मंडल आयोग की रपट के बहाने उठी आंबेडकरवादी और लोहियावादी सामाजिक न्याय की धारा और तीसरी थी वैश्वीकरण की धारा। इन तीनों ने भारतीय राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था में काफी उथल पुथल किया। वे एक दूसरे से टकराईं भी और समझौता भी कर लिया।

1991 में आए उदारीकरण ने भी नवउदारवादी विचारों के माध्यम से राजनीतिक और आर्थिक स्वतंत्रता का एक नया छद्म प्रस्तुत करना चाहा था। उसका दावा था कि विकास ही स्वतंत्रता है। लेकिन अब सिर्फ निजीकरण को तेज करने और अपनी पूंजी की रक्षा करने में लग गया है। यानी उसके लिए व्यक्ति की स्वतंत्रता से ज्यादा कारपोरेट की स्वतंत्रता महत्वपूर्ण है। उसने वैश्वीकरण का दामन छोड़कर राष्ट्रवाद का दामन थाम लिया है। इसी के साथ देश में बहुसंख्यकवाद और हिंदुत्व के विचार ने तेजी से राष्ट्रवाद का एक नया आख्यान रचा है ताकि दोनों एक दूसरे की रक्षा कर सकें। उसने सबका साथ सबका विकास का नारा तो दिया है लेकिन उसमें न तो सभी को सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक न्याय उपलब्ध कराने का संकल्प है और न ही विचार, आस्था और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देने का इरादा।

पूंजीवाद और बहुसंख्यकवाद ने एक मजबूत गठजोड़ बनाया है जो एक दूसरे के हितों को साधते हुए जनता के अधिकारों को निरंतर कम रहे हैं। वे एक ओर पुलिस और सेना को अधिकार संपन्न बना रहे हैं तो दूसरी ओर तमाम सार्वजनिक क्षेत्र का निजीकरण कर रहे हैं। उनके लक्ष्य पर प्राकृतिक संसाधनों के साथ सहजीवी रिश्ता बनाकर रह रहे आदिवासी हैं तो खेती करने वाले किसान हैं। उनके निशाने पर बहुसंख्यक राष्ट्रवाद से असहमत अल्पसंख्यक हैं तो निजीकरण से आहत मजदूर हैं। उनके निशाने पर वे राजनीतिक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं जो लोकतंत्र और नागरिक अधिकारों के लिए संघर्ष करते हैं। वे भले आज आजादी का जश्न मना रहे हैं लेकिन उनके भीतर भी इस आजादी और उसके प्रतीकों को लेकर तमाम आपत्तियां रही हैं।

डा आंबेडकर ने कहा था कि लोकतंत्र सिर्फ संस्थाओं से नहीं चल सकता। उसके लिए एक लोकतांत्रिक समाज चाहिए। वह लोकतांत्रिक समाज सिर्फ राजनीतिक बराबरी देने से नहीं बनता। उसके लिए सामाजिक और आर्थिक बराबरी देनी होती है। यह व्यवस्था आरक्षण देकर सामाजिक बराबरी यानी न्याय देने का अहसास कराती है लेकिन भीमा कोरेगांव के बहाने दलित विचारधारा को कुचल देती है। वह जल, जंगल और जमीन के संघर्ष में लगे आदिवासियों को माओवादी बताकर उन्हें जेलों में डाल देती है। दिल्ली की सीमा पर बैठे किसानों को एक तरफ अन्नदाता कहती है तो दूसरी ओर उन्हें खालिस्तानी या डकैत(टिकैत की पैरोडी) कहती है। निवारक नजरबंदी कानून पहले भी थे। उनका प्रयोग नेहरू सरकार ने भी किया और इंदिरा सरकार ने भी। नरसिंह राव और मनमोहन सिंह की सरकार ने भी किया। लेकिन उन कानूनों के उपयोग(दुरुपयोग) की रफ्तार आज दोगुनी हो गई है। एक ओर सुप्रीम कोर्ट निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार बताता है तो दूसरी ओर अति आधुनिक उपकरण पेगासस के माध्यम से लोकतांत्रिक संस्थाओं के प्रमुखों, पत्रकारों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं की जासूसी हो रही है। जवाब में सरकार कहती है कि जासूसी तो पहले भी होती रही है। 

स्वयं सुप्रीम कोर्ट को यह कहना पड़ रहा है कि हमारे थानों में मानवाधिकारों को थर्ड डिग्री यातना के माध्यम से कुचला जाता है। सुप्रीम कोर्ट लाचारी जता रहा है कि उनके आदेशों को माना नहीं जाता। यानी आजादी की रक्षा करने वाली संस्था की अनदेखी हो रही है। ऐसा नहीं है कि आजादी का वह अर्थ जो संयुक्त राष्ट्र के 1948 के मानवाधिकार चार्टर में दिया गया है और जो हमारे संविधान के मौलिक अधिकारों में उल्लिखित है उसे सारे लोग समझ रहे हैं। लेकिन जो कुछ लोग समझ रहे हैं उन्हें कभी आतंकवाद के नाम पर खामोश कर दिया जाता है तो कभी भ्रष्टाचार के नाम पर। आजादी के आंदोलन में महात्मा गांधी ने युवाओं को आगाह किया था कि सांप्रदायिकता और छुआछूत(जातिवाद) का जहर अपने मन से निकालना होगा। आज राजनीति धूम फिर कर जातिवाद और सांप्रदायिकता पर लौट आई है। जिस व्यक्ति पूजा के लिए डा आंबेडकर ने मना किया था और जिसे व्यक्ति की स्वतंत्रता और लोकतंत्र का दुश्मन बताया था आज उसका बोलबाला है। गांधी ने बार बार कहा था कि आजादी की लड़ाई के प्रतीकों का इस्तेमाल करें लेकिन किसी पर उसे थोपे नहीं। उन्होंने कहा था कि तिरंगा अपने सीने पर लगाएं लेकिन उसे किसी के सीने पर जबरदस्ती न लगाएं। राष्ट्रगान गाएं लेकिन किसी को उसे गाने को मजबूर न करें। गोरक्षा करें लेकिन अगर आपका भाई गाय को मारने लगे तो भाई को न मारें बल्कि गाय को भगवान के भरोसे छोड़ दें। क्योंकि गाय को मान देना ठीक है लेकिन मनुष्य को भी मान देना जरूरी है। बल्कि मनुष्य को गाय से ज्यादा मान देना चाहिए।

भारत की आजादी का जश्न मनाने का इरादा तो ठीक है लेकिन उसके सही अर्थ को समझे बिना वह चंडू खाने या मयखाने की मौज होकर रह जाएगा। अगर हम अमेरिका के फ्रीडम हाउस और फ्रांस के रिपोर्ट्स विदाउट बार्डर्स की रिपोर्ट में अपने लोकतंत्र और प्रेस की आजादी की घटती साख को महज विदेशी साजिश मानेंगे तो उसे समझ नहीं सकेंगे। और जब समझ नहीं सकेंगे तो बचा भी नहीं सकेंगे। आजादी को समझने और उसे कायम रखने का मूल मंत्र समता के कार्यक्रमों को बढ़ाने और भाईचारे यानी बंधुत्व पर जोर देने में है। इनके बिना आजादी लड़खड़ा रही है। आजादी कमजोर हो रही है झूठ और निगरानी के बढ़ते प्रभावों के कारण। आजादी का अर्थ है पारदर्शिता। आजादी का अर्थ है सत्य और अहिंसा। आजादी का अर्थ है प्रेम। वही प्रेम जो मानवता को बांधे हुए है। हम इसे समझते हैं तो जश्न मनाने का अधिकार रखते हैं। लेकिन तब वह जश्न नहीं संघर्ष होगा। वह अमृत महोत्सव के दौरान निकलने वाले सांप्रदायिकता के विष को पीने का संघर्ष यानी दूसरी आजादी का संघर्ष होगा।    

(लेखक वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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