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बद से बदतर होता जा रहा है चीनी मिट्टी के बर्तनों का कारोबार

कोरोना संकट में 82 फ़ीसदी लघु कारोबारों का कामकाज धाराशाही हो गया है और 80 फ़ीसदी छोटी इकाइयां पूंजी की भयानक कमीं का शिकार है।
pottery business

दिल्ली से सटा गुरुग्राम हरियाणा का औद्योगिक और वित्तीय केन्द्र है। जहां छोटे-छोटे काम धंधों से लेकर बड़े-बड़े कारोबार फलते-फूलते है। यह कारोबार भारत ही नहीं बल्कि दुनियाभर में मशहूर हैं। लेकिन कोरोना संकट के इस मंदी भरे दौर में गुरुग्राम के बहुतायत कारोबारों की रौनक़ छिन गयी है। वहीं कुछ लघु कारोबार तो नेस्तनाबूद हो गए है। जो बचे हैं, उनकी स्थिति इतनी दुर्दशाग्रस्त हो गयी है कि कारोबारियों का आजीविका चलाना भी दुश्वार हो गया है। ऐसे में यह लघु कारोबारी सड़क से गुजरते राहगीरों को भी उंची आवाज़ में अपनी दुकान की ओर बुलाने लगते है, ताकि कुछ सामान बिक जाए।

गुरुग्राम में ज्यादातर लघु कारोबार विभिन्न राज्यों से रोजगार की तलाश में आए मुफ़लिस लोग ही करते है। मगर ऐसे लघु कारोबार में इन लोगों का न तो अच्छा वर्तमान है और न ही आने वाले बेहतर भविष्यतकाल की कोई उम्मीद है। गुरुग्राम के ऐसे ही एक लघु कारोबार की स्थिति का हमने जायज़ा लिया। जिसे आमतौर पर लोग चीनी मिट्टी के बर्तनों का कारोबार कहते हैं। यह कारोबार सेक्टर 56 में लाखा बंजारा बाजार के रूप में मौजूद है। जब हम इस बाजार की धरती पर पहुचें तब हमें वहां के बुजुर्ग कारोबारियों से मालूम चला कि चीनी मिट्टी के बर्तनों के लिए मशहूर यह लाखा बंजारा बाजार आज का नहीं है। बल्कि विगत कई दशकों पुराना है।

हमने वहां कारोबार की स्थिति जानने के लिए ओमप्रकाश से बात की। जो अपना बोरियां बिस्तर लिए चीनी मिट्टी के बर्तनों के बीच सड़क किनारे बैठे हुए थे। हमने उनका हालचाल पूछते हुए कहा कि आप कैसे है और आपका कारोबार कैसा चल रहा है? तब वह कहते है कि बस हम जिंदा है और अपना पेट पाल रहे हैं। कारोबार तो इसलिए कर रहे है कि कहीं भूख से मर ना जाएं। फिर हमने पूछा कि आप ऐसा क्यों बोल रहे हैं? क्या कारोबार में मुनाफ़ा नहीं हो रहा? तब ओमप्रकाश कहते है कि मुनाफ़ा तो छोड़िये साहब। अब तो धंधे में कभी 100 तो 200-300 रुपये की कमाई होती है। कभी कभार तो ऐसा लगता है कि धंधा छोड़कर कहीं काम ही करने लगे मगर इस बूढ़े को काम पर कौन रखेगा?

तब हमने कहा कि आप कोई और कारोबार क्यों क्यों नहीं करते? इसके जबाव में वह कहते है कि हम राजस्थान से है. पहले गांव में लोहे के औज़ार बनाने का काम करते थे। जब गांव में धंधे में मुनाफ़ा कम हो गया। तब शहर में आकर लोहे का काम शुरू किया। मगर लोहे की बढ़ती क़ीमत और मशीनों से भरे इस शहर में हमारा यह धंधा चला नहीं। तब हमने चीनी मिट्टी के बर्तन बेचना शुरू कर दिया। फिर हमने सवाल किया कि मिट्टी के बर्तन आप क्या हाथों से बनाते है या फिर खरीद कर लाते है?

तब ओमप्रकाश कहते हैं कि नहीं बर्तन हम हाथों से नहीं बनाते, यूपी के बुलंदशहर से खरीदकर मालवाहक में लाते है। आगे हमने सवाल किया कि आपके बच्चे कितने है और वह क्या करते है? तब वह बताते है कि हमारे 3 बच्चे है। वह भी इसी कारोबार में हाथ बंटाते है। जब हमने पूछा कि क्या आपने उन्हें पढ़ाया नहीं? तब इसके जबाव में ओमप्रकाश कहते है कि यहाँ खाने के लाले पड़े है। हम बच्चों को पढ़ाएं कैसे। इस हालत में हम दो बच्चों को 8 वीं कक्षा तक पढ़ा पाए है। पर एक बच्चा हमारा अनपढ़ ही रह गया है।

जैसे ही हम वहां से आगे बढ़े तब हमें 8-10 साल के 4-5 बच्चे एक बर्तन की दुकान पर सामान बेचतें दिखे। तब हमने उनके पास जाकर सवाल किया कि आपसे यह दुकान कौन चलवाता है और क्या आप सभी पढ़ाई भी करते है? तब वहां मौजूद मनीषा कहती है कि हां हम पास के सरकारी स्कूल में 5 वीं कक्षा में पढ़ते है। पर स्कूल की अभी छुट्टी चल रही है। जिससे हम फ्री रहते है। तब मम्मी-पापा की मदद करने के लिए दुकान चलाते है। फिर हमने उनसे पूछा कि आपकी स्कूल की छुट्टियां कितने दिन की है और आप घर पर कितना पढ़ते है? तब सचिन जो 5 वीं कक्षा में पढ़ते है। वह बताते है कि हमारी 5 दिन की छुट्टियां है और हम घर में सुबह-शाम 2 घंटे पढ़ते है।

जब हम आगे बढ़े तब हमारी मुलाक़ात मैना से हुयी और हमने बर्तन के कारोबार को लेकर उनसे बात की। जब हमने उनसे पूछा कि कोरोना के पहले आपके कारोबार की कैसी स्थिति थी और उसके बाद अब कैसी है?

तब वह बताती है कि कोरोना के पहले हम 1000-2000 हजार रुपए तक रोज़ाना कमाते थे। पर कोरोना में हमारा धंधा चकनाचूर हो गया। फिर हमने एक कारोबारी से 40 हजार रुपए ब्याज पर लेकर कारोबार शुरू किया है। जिसमें अब खर्च भी चलाना है और 40 हजार का ब्याज के साथ 50 हजार रुपए भी देना है।

तब हमने पूछा कि आपने कारोबारी से ही पैसा ब्याज पर क्यों लिया, बैंक से लोन क्यों नहीं लिया? तब वह कहती है कि हम बैंक भी लोन लेेने गए थे। लेकिन बैंक के साहब लोग हमारी बात सुनते नहीं है और हम अनपढ़ है तो हमें समझ आता नहीं की लोन निकलवाते कैसे है। वहीं मौजूद जुनैद इस सवाल का जबाव देते हुए अपनी आप बीती बताते है। वह बताते है कि हम दो-तीन बार बैंक लोन लेने गए है। लेकिन बैंक के साहब कहते है कि तुम्हारे पास क्या है, ऐसा कि तुम्हें लोन दे दें? कुछ ज़मीन-जायदाद के काग़ज़ात वग़ैरह लाओं, तब तुम्हें लोन देगें। आगे जुनैद बताते है कि दूसरे साहब इस संबंध में कहते कि, ‘‘देख भई अब, जिसकी लाठी उसकी भैंस वाला माहौल है, यदि तुम्हारी कोई लिंक वग़ैरह हो तब ही तुम्हें लोन मिल पायेगा, नहीं तो भटकते रहोगे‘‘।

इसके बाद जुनैद कहते है कि हम तब से कभी लोन मांगने बैंक नहीं गए। अपने एक परिचित से 20 हजार रुपये ब्याज पर लेकर धंधा कर रहे है। फिर इसके उपरांत हमने प्रश्न किया कि आप लोग इतनी विकट परिस्थितियों  में अपना खर्च कैसे चलाते है? तब जुनैद बताते है कि हमारा हाल सचमुच बहुत खराब है। आजकल खाना भी उधार खा रहे है। ऐसे में इस माह के खाने का पैसा अगले माह तक चुका पायेगें। इसी सवाल के जवाब में वहां मौजूद नंदनी कहती है कि हमारा दिल तो हर चीज का करता है, अच्छी खरीददारी का, अच्छा घूमने का, रिश्तेदारों के यहां शादी में जाने का लेकिन हमारी हालत पर यह कहावत फिट बैठती है कि, ‘‘उतने पांव पसारिए, जितनी लंबी चादर‘‘।

फिर जैसे ही हम आगे बढ़े तब हमें कुछ कारोबारी आपस में बातचीत करते नज़र आए। जब हम उनके क़रीब पहुचें तब उनका हालचाल पूछते हुए हमने सवाल किया कि कोरोना के चलते इस आर्थिक ढलान के समय में आपको कारोबार करने मेें कौन-कौन सी समस्याएं आ रही है? तब इसका जवाब देते हुए गोविंद कहते है कि हमें बर्तनों की खरीददारी में बहुत अड़चन आ रही है। क्योंकि कंपनियों में अब पहले जैसे माल का स्टॉक नहीं है।

जिससे हमें 4-5 दिन बर्तन ढूंढने में, उनकी उठा-धरी करने में और रायपुर जैसे शहरों में आने-जाने मेें कुल मिलाकर हफ़्ता बीत जाता है। इसी सवाल के उत्तर में गोमती कहती है कि हम मालवाहक में भर कर बर्तन लाते है। जिसमें 8-10 हजार रुपए भाड़ा लग जाता है। वहीं रास्तों के दचकों में 15-20 बर्तन फूट जाते है। जिससे हमारे फायदे की उम्मीद पर घाटे का पानी फिर जाता है। ऐसे में बची कसर वह बर्तन पूरी कर देते है, जिनमें दरारें आ जाती है। या फिर जो सालों से धूप और बरसात में खराब हो रहे है। आगे वह कहती हैं कि ऐसे बर्तन हमें फेविकोल से मरम्मत करके आधी क़ीमत पर बेचने पड़ते है।

इसके पश्चात हमने सवाल किया कि कोरोना संकट में कितने कारोबारियों का यह कारोबार ठप हो गया? तब श्याम सहित वहां मौजूद अन्य कारोबारी जवाब देते हुए कहते है कि कोरोना के पहले इस जगह पर सड़क के आस-पास 1000 हजार छोटी चीनी मिट्टी के बर्तन की दुकानें हुआ करती थी। मगर क़रीब 500 दुकानें बदतर हालत के चलते बंद हो गयी। आगे रामदयाल कहते है कि कोरोनाकाल में यहां की कुछ दुकानें आस-पास की जगहों पर भी शिफ्ट कर दी गयी। जिससे भी यह कारोबार छितर-बितर हो गया है। इसी संबंध में आगे भगवती कहती है कि हम 45 सालों से चाय की दुकान चलाते आ रहे थे। जो कोरोना में ठप हो गयी है। उसके बाद हमने यह मिट्टी के बर्तनों का कारोबार जमाया। लेकिन लगता यह भी चौपट हो जायेगा।

तब हमने सवाल किया कि आपका कारोबार दिन-ब-दिन ख़स्ता क्यों होता जा रहा है और इसे मजबूत कैसे बनाया जा सकता है? इस सवाल के उत्तर में भगवती कहती है कि हमारे हाथ में कुछ नहीं। जो कुछ करता है। वह भगवान करता है। वही हमारे कारोबार की रक्षा करेगा। इसी संबंध में राधा कहती है कि हमारे कारोबार की रंगत-ढंगत बदलने के लिए सरकार को कम से कम 1 लाख रुपए की मदद देनी चाहिए। तब हौले-हौले कारोबार में सुधार आयेगा।

हमने अगला सवाल इन कारोबारियों से पूछा कि आप लोग रहते कहां है और वहां सुविधाएं क्या-क्या है? तब वैभव बताते है कि हमारे यहां रहने का कोई ढंग का स्थाई ठिकाना नहीं है। न ही हमारी इतनी गुंजाइश है कि यहां हम घर खरीद सकें। बस झुग्गियों में ही रहते है। जहां खाली जगह दिखती है वहां झुग्गियां बना लेते है। जब सरकारी लोग वहां से झुग्गियां हटा देते तब डेरा लेकर दूसरी जगह पहुंच जाते है। आगे वह बताते है कि ऐसे में हमें पानी की सबसे ज्यादा दिक्क़त होती है।

गौर फ़रमाने योग्य है कि डन एंड ब्रैडस्टीट की रिपोर्ट के मुताबिक कोरोना संकट में 82 फ़ीसदी लघु कारोबारों का कामकाज धाराशाही हो गया है और 80 फ़ीसदी छोटी इकाइयां पूंजी की भयानक कमीं का शिकार है। वहीं एक सर्वे से पता चलता है कि कोरोनाकाल में कारोबारियों की 80-90 फ़ीसदी आय कम हुई है। जिससे देश की अर्थव्यवस्था को 10 लाख करोड़ रुपए की क्षति हुई है। ऐसे में लघु कारोबार चौपट होने से बहुत से कारोबारी आत्महत्या भी कर रहें है। हमें एनसीआरबी के आंकड़ों की ओर रुख़ करने से ज्ञात होता है कि वर्ष 2019 के मुक़ाबले वर्ष 2020-21 में कारोबारियों की आत्महत्या के आंकड़े 50 प्रतिशत बढ़े है। जिसमें 11,716 कारोबारियों ने अपनी जीवन-लीला समाप्त कर ली है। 

वहीं चीनी मिट्टी के बर्तनों की भांति लघु कारोबार करने वाले कारोबारी बुनयादी ज़रूरतें भी हासिल नहीं कर पा रहे है। लेकिन सरकार है कि घोषणाओं पर घोषणाएं करती जा रही है। जो दूर से सुनाई तो देती है, पर इस ख़स्ताहाल वर्ग की बेहतरी के लिए धरातल पर दिखाई नहीं देतीं। ऐसे मेें सरकार को न इन लघु कारोबारियों की ख़बर है और न इनके कारोबार की। सरकार तो केवल धनपतियों के पीछे लगी हुयी है।

(सतीश भारतीय एक स्वतंत्र पत्रकार है) 

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