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पीएम केयर्स फंड और पारदर्शिता का सवाल

पीएम केयर्स पब्लिक अथॉरिटी है कि नहीं विवादास्पद मुद्दा बन गया है क्योंकि इसके फंड में रेलवे जैसी सरकारी कंपनियों के द्वारा पैसा दिया गया और सांसद राशि भी सम्मिलित है। यह जनता का पैसा है जिसे कुछ नियमों के दायरे में रहकर ही खर्च किया जा सकता है और वह कैसे किया गया यह जानने का अधिकार जनता के पास है। 
पीएम केयर्स फंड 
Image courtesy: The Logical Indian

अमरीका के प्रसिद्ध गायक जिम मॉरिसन ने कहा था - "जो मीडिया को नियंत्रित करता है वही जनता के मस्तिष्क को भी नियंत्रित करता है।" पिछले पांच महीने से भारत की कोरोना के खिलाफ जंग और उसका मीडिया द्वारा कवरेज देख कर यह बात शत प्रतिशत सच होते हुए नज़र आ रही है। 25 मार्च को प्रधानमंत्री ने देश के नाम अपने सन्देश में कोरोना के खिलाफ अभियान की महाभारत के युद्ध से तुलना करते हुए देश को आश्वासन दिया था कि जिस तरह महाभारत का युद्ध 18 दिनों में जीता गया था उसी तरह कोरोना के खिलाफ युद्ध में 21 दिन लगेंगे। आज उस 'ऐतिहासिक' भाषण के 145 दिन बाद कोरोना के प्रतिदिन पचास हज़ार से अधिक केस आ रहे हैं।

जनता कर्फ्यू में थाली बजाने से शुरू हुई इस पूरी मुहिम के दौरान राष्ट्रीय न्यूज़ चैनलों पर सरकार के काम की आलोचना तो दूर समीक्षा भी नहीं हुई है। जहां एक तरफ अपने आस - पास के लोगों से लगातार अस्पतालों में बिस्तर की कमी की खबरें मिल रही हैं वहीं बिहार जैसे देश के कई राज्यों से सोशल मीडिया पर भयावह तस्वीरें सामने आ रहीं हैं। किन्तु हमारे जनसंवाद से यह बातें पूरी तरह गायब हैं। मीडिया की मुख्यधारा द्वारा नज़रअंदाज़ किये गए ऐसे ही एक पहलू पर नज़र डालना ज़रूरी है। 

किस्सा पीएम केयर्स फंड से खरीदे गए वेंटीलेटर का:

पीएम केयर्स फंड 28 मार्च को कोरोना से उत्पन्न हुई आपातकालीन स्थिति से निपटने के उद्देश्य से बनाया गया था। हालांकि आपदाओं से निपटने के लिए भारत सरकार के पास पीएम नेशनल रिलीफ फंड जैसे ट्रस्ट पहले से मौजूद थे फिर भी कोरोना के लिए मोदी सरकार द्वारा एक नया फंड बनाने का फैसला लिया गया। पीएम केयर्स फंड के अध्यक्ष स्वयं प्रधानमंत्री हैं और उनके साथ गृह मंत्री, रक्षा मंत्री और वित्त मंत्री इसके ट्रस्टी नियुक्त किये गए हैं। इसके अतिरिक्त प्रधानमंत्री तीन विशेषज्ञों को समिति में नियुक्त कर सकते हैं। इस फंड के बनने के हफ्ते भर के अंदर ही इसमें 6,500 करोड़ रुपए जमा हुए। यह मामला पेचीदा तब हुआ जब आरटीआई एक्टिविस्ट साकेत गोखले ने पीएम केयर्स फंड द्वारा वेंटीलेटरों की खरीदी पर सवाल उठाते हुए इसमें 3000 करोड़ के घोटाले का दावा किया। याद रहे यह सवाल ट्विटर जैसे सार्वजनिक प्लेटफार्म पर लगाए गए हैं!  

24 मार्च को ही सरकार ने कोरोना की तैयारी के मद्देनज़र वेंटीलेटर के निर्यात पर रोक लगा दी। गोखले ने दावा किया है कि फंड बनने के मात्र तीन दिन बाद 31 मार्च को ही सरकार ने 40, 000 वेंटीलेटर का ऑर्डर दिया जबकि पीएम केयर्स का ऑर्डिनेंस 1 अप्रैल को प्रभाव में आया। इसमें से 30,000 वेंटीलेटर स्कैनरे-बेल और 10,000  ऐग-वा को बनाने का ठेका मिला। इस पूरी प्रक्रिया के दौरान इन कंपनियों की मदद करने के लिए टेंडर की शर्तों को बार-बार बदला गया। टेंडर मिल जाने के बाद ऐग-वा द्वारा बनाए वेन्टीलेटरों की कई विशेषज्ञों और अस्पतालों से शिकायतें आने लगीं।

आगे वह बताते हैं कि 23 जून को प्रधानमंत्री कार्यालय ने एक प्रेस नोट जारी किया जिसके अनुसार 50,000 वेन्टीलेटरों के लिए पीएम केयर्स फंड से 2000 करोड़ रुपए दिए गए। इसमें पहले का भारत सरकार का स्कैनरे-बेल और ऐग-वा का 40,000 वेन्टीलेटरों का ऑर्डर शामिल था। तो क्या पीएम केयर्स ने भारत सरकार को उसका पैसा दिया? उसी प्रेस नोट में सरकार ने यह दावा किया है कि उस तारीख तक 2,923 वेंटीलेटर बन कर तैयार थे और उनमें से 1,340 वेंटीलेटर डिलीवर हो चुके थे। लेकिन स्कैनरे-बेल ने एक आरटीआई के जवाब में 15 जून को 4000 वेंटीलेटर बना लेने की बात मानी थी। मतलब इन दोनों में से कोई तो जनता को गुमराह कर रहा है!

जून के अंत तक हम अपनी ज़रुरत के केवल 6% वेंटीलेटर बना पाए थे फिर भी कुछ दिन पहले वेंटीलेटरों के निर्यात पर लगी रोक को मोदी सरकार ने एकाएक हटा दिया! जब प्रतिदिन पचास हज़ार से ज़्यादा मामले हमारे देश में आ रहे हैं तब ऐसा फैसला कई सवाल खड़े करता है। गोखले का दावा है की पीएम केयर्स फंड के द्वारा खरीदे गए सारे वेंटीलेटरों में मरीज़ तक ऑक्सीजन पहुंचाने के लिए गले में नली डालनी पड़ती है और कोरोना का इलाज कर रहे डॉक्टर इसे पसंद नहीं करते। नतीजतन यह सारे अस्वीकृत वेंटीलेटर अब निर्यात के लिए तैयार हैं! 

पीएम केयर्स फंड और पारदर्शिता का सवाल

हैरत की बात यह है कि आरटीआई आदि से जुटाई इस जानकारी की कोई जांच नहीं हो सकती क्यूंकि पीएम केयर्स फंड आरटीआई के अधिकार क्षेत्र से बाहर रखा गया है। प्रधानमंत्री कार्यालय का तर्क यह है की पीएम केयर्स फंड कोई पब्लिक अथॉरिटी नहीं है इसलिए इसके विषय में कोई भी जानकारी सार्वजनिक करने को वह बाध्य नहीं है।

एक ख़बर के मुताबिक प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) ने इस सिलसिले में एक आरटीआई आवेदन पर कोई भी जानकारी देने से इंकार कर दिया है। यह आरटीआई एक्टिविस्ट रिटायर्ड कमोडोर लोकेश बत्रा द्वारा दायर की गई थी।

कोई भी स्वशासन का संस्थान जो संविधान, संसद या विधानसभा के किसी एक्ट से बना हो या सरकार के आदेश से बना हो उसे पब्लिक अथॉरिटी माना जाता है। इसके साथ-साथ जिन संस्थाओं का बड़ा हिस्सा सरकारी फंडिंग से चलता हो उसे भी पब्लिक अथॉरिटी माना जा सकता है। 

ऐसे में पीएम केयर्स पब्लिक अथॉरिटी है कि नहीं विवादास्पद मुद्दा बन गया है क्योंकि इसके फंड में रेलवे जैसी सरकारी कंपनियों के द्वारा पैसा दिया गया और सांसद राशि भी सम्मिलित है। यह जनता का पैसा है जिसे कुछ नियमों के दायरे में रहकर ही खर्च किया जा सकता है और वह कैसे किया गया यह जानने का अधिकार जनता के पास है। वैसे भी जिस संस्था का अध्यक्ष स्वयं प्रधानमंत्री हो उसका पब्लिक अथॉरिटी न माना जाना तर्कसंगत नहीं है! याद रहे कि नरेंद्र मोदी पहली बार सत्ता में भ्राष्टाचार-मुक्त भारत का वादा करके आए थे। क्या उन्हें पारदर्शिता की मिसाल कायम करते हुए पीएम केयर्स फंड को किसी सर्वदलीय संसदीय समिति की देखरेख में नहीं सौंप देना चाहिए? 

लेकिन ऐसी ज़रूरी बहस आपको टीवी चैनलों पर देखने को नहीं मिलेगी। उन्हें तो प्रधानमंत्री के लोकप्रियता के सर्वे और सरकार के अनगिनत मास्टर स्ट्रोक के विश्लेषण से फुरसत ही नहीं है। वैसे भी प्रधानमंत्री प्रेस कांफ्रेंस नहीं करते और जब उनका इंटरव्यू होता है तब उनसे लोग आम खाने के बारे में सवाल पूछते हैं। कोरोना की तैयारी और उसमें संभावित भ्रष्टाचार जैसे ‘नीरस’ विषय को कौन जनता तक पहुंचाए? शायद मुख्यधारा के मीडिया ने पोस्ट ट्रुथ के बाद पोस्ट - मोरालिटी के युग में प्रवेश कर लिया है। पारदर्शिता और नैतिकता के सवाल आज गौण हो चुके हैं। 

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। आप जेएनयू में सेंटर फॉर पॉलिटिकल स्टडीज से एमफिल कर चुके हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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