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सरकार की रणनीति है कि बेरोज़गारी का हल डॉक्टर बनाकर नहीं बल्कि मज़दूर बनाकर निकाला जाए!

मंदिर मस्जिद के झगड़े में उलझी जनता की बेरोज़गारी डॉक्टर बनाकर नहीं, बल्कि मनरेगा जैसी योजनाएं बनाकर हल की जाती हैं।
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Image courtesy : The Hindu Business Line

सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी ने फरवरी माह के बेरोजगारी का आंकड़ा जारी किया है। आंकड़े कहते हैं कि बेरोजगारी दर पिछले महीने 8.1 फीसदी थी। यह पिछले छह महीने में सबसे अधिक है। कोरोना से ठीक पहले फरवरी 2020 में देश में बेरोजगारी की दर 7.76 फीसदी थी। यानी अब भी बेरोजगारी का हाल सुधरा नहीं है। कोरोना से बदतर है।

हर महीने आने वाली बेरोजगारी दर की खबर के साथ  सीएमआईई के प्रेसिडेंट महेश व्यास की बात जरूर याद करनी चाहिए। महेश व्यास कहते हैं कि भारत में बेरोजगारी का असली हाल का पता बेरोजगारी दर से नहीं चलता। इसके लिए रोजगार दर को देखना चाहिए। रोजगार दर का हाल यह है कि यह महज 38 प्रतिशत है। यानी भारत की कुल काम लायक आबादी में केवल 38 प्रतिशत लोगों के पास काम है। रोजगार दर जब 60 प्रतिशत पर पहुंचेगा तब कहा जाएगा कि भारत का रोजगार का हाल ठीक ठाक है। इस स्तर पहुंचने के लिए तकरीबन 18 करोड़ लोगों को रोजगार देने की जरूरत है।जिस तरह की मौजूदा सरकार है, उसके कामकाज से तो कहीं से भी नहीं लगता कि यह आंकड़ा हासिल किया जा सकता है।

जानकारों का कहना है कि सीएमआई के आंकड़ों से पता चलता है कि गांव की बेरोजगारी दर कम हुई है और शहर की बेरोजगारी दर बढ़ी है। इसका मतलब यह नहीं है कि शहर में बेरोजगारी का हाल ठीक हुआ है। इसका मतलब यह है कि गांव में लोगों को जितना रोजगार मिल सकता था, वह मिल गया है। गांव में रोजगार ना मिलने की वजह से लोग बेरोजगारी से जूझ रहे हैं। लेकिन लोगों का भरोसा शहरों पर इतना ज्यादा नहीं हो रहा कि वह रोजगार के लिए शहरों में जाए। या लोगों को यह लग रहा है कि अगर गांव में ही ऐसा रोजगार मिल जाए जिससे जिंदगी काटी जा सके तो शहरों की तरफ क्यों जाया जाए? शहरों की महंगी जिंदगी से क्यों जुझा जाए? इसलिए गांव में ही बने हुए है। शहरों में आना नहीं पसंद कर रहे हैं। इसलिए शहरों की बेरोजगारी दर कम बनी हुई है।

इसी बीच राजस्थान सरकार ने इंदिरा गांधी शहरी रोजगार गारंटी योजना की शुरुआत की है। इस योजना को लेकर फिर से शहरी रोजगार गारंटी योजना पर बहस छिड़ गई है। जिस पर जानकारों का कहना है कि भारत की गरीबी और बेरोजगारी के लिहाज से से देखा जाए तो शहरों के लिए भी मनरेगा जैसी कोई योजना बनती है तो इससे कई लोगों को राहत मिलेगा। फिर भी पॉलिसी बनाने वालों को सोचना चाहिए कि वह कैसा रोजगार देना चाहता है? रोजगार के नाम पर किस तरह का काम और कितना मजदूरी देना चाहते हैं? क्या शिक्षा से लेकर सब्जी तक की महंगाई के जमाने में केवल 300 प्रति दिन की कमाई के लिहाज से 100 दिनों के काम की गारंटी से कोई अपनी जिंदगी ठीक ठाक गुजार पाएगा? उस समय क्या होगा जब गांव से ज्यादा शहरों में मजदूरी होगी? तब क्या होगा जब लोग मनरेगा जैसी योजना में काम करने के लिए गांव से शहर की तरफ आएंगे। ऐसा क्यों नहीं किया जा सकता कि मनरेगा जैसी योजना में जितने लोग काम मांगते है, उन्हें काम मुहैया करवाया जाए। अकुशल कामगारों को गांव तक सीमित रखा जाए। उन्हें बेहतर मजदूरी दी जाए। बेरोजगारी की पूरी परेशानी का हल मनरेगा जैसी योजनाओं से नहीं किया जा सकता। अगर ऐसी सोच से सरकार चल रही है तो इसका केवल यही मतलब है कि सरकार केवल अपना चुनावी नफा नुकसान देख कर काम कर रही है। जनकल्याण से उसका कोई लेना देना नहीं।

जनकल्याण को ध्यान में रखकर अगर सरकार काम करती तो कैसा काम करती? इसका एक सबसे शानदार उदाहरण हम सबके सामने सवाल बनकर खड़ा है। लेकिन इस सवाल को हम मजबूती के साथ अपने सरकारों से नहीं पूछना चाहते।

यूक्रेन संकट को लेकर मेडिकल की पढ़ाई को ही देख लीजिए। इस समय यूक्रेन में हर वक़्त भारतीय छात्रों पर मौत का साया मंडरा रहा है। यह वह छात्र है जो यूक्रेन में मेडिकल की पढ़ाई करने गए है। मेडिकल क्षेत्र का हाल यह है कि भारत में प्रति 1000 लोगों पर 1.7 नर्सें और प्रति 1404 लोगों पर 1 डॉक्टर है। विश्व स्वास्थ्य संगठन WHO के मुताबिक 1000 लोगों पर 3 नर्सें और 1100 की जनसंख्या पर 1 डॉक्टर होना चाहिए.शहरों का हाल इस मामले में थोड़ा ठीक ठाक है तो गांव का हाल बदतर है। अब भी ऐसे गांव है जिनके आस पास दूर - दूर तक मेडिकल सुविधाओं से लैस अस्पताल नहीं है। अब भी प्रसूति के समय कई महिलाएं अस्पताल पहुंचने से पहले दम तोड़ देती है। डॉक्टरों और नर्सों की अथाह कमी है।

यह सारी कमियां लोगों को रोज दिखती हैं लेकिन इस पर चर्चा ना होने के कारण यह बदहाली बनी रहती है। अगर इस बदहाली दूर करने के लिए काम किया जाता तो ना जाने कितने लोगों को रोजगार मिलता। डॉक्टर और नर्स बनते। लेकिन इस पर नहीं सोचा जाता है। इस पर चर्चा नहीं होती है। जिसकी वजह से भारत के तकरीबन 25 लाख लोगों पर 1 मेडिकल की सीट है। 6 सालों की मेडिकल की पढ़ाई लिखाई का खर्चा तकरीबन 1 से  डेढ़ करोड़ है। फिर भी इस पर आज तक बहस नहीं हुई कि आखिकार मेडिकल की पढ़ाई भारत में इतनी महंगी क्यों
है?भारत में मेडिकल कॉलेज और मेडिकल सीट इतना ज्यादा कम क्यों है?

अगर इस पर बात होती तो ढेर सारे लोग जो पैसे की कमी की वजह से मेडिकल की पढ़ाई  नहीं कर पाते है, वह मेडिकल की पढ़ाई के लिए आगे बढ़ते। मेडिकल की सीट बढ़ती। डॉक्टरों की कमी पूरी होती। लेकिन यह सब तब होता जब ईमानदार सरकार होती। जनकल्याण पर सोचने वाली सरकार होती। तब बेरोजगारी को दूर करने का तरीका केवल मनरेगा जैसे रोजगार गारंटी योजनाएं ना होती। बल्कि यह सब होता जिसका जिक्र किया है। जिससे नौकरी भी गरिमापूर्ण मिलती और मेहनताना भी गरिमा पूर्ण मिलता। अगर भारत की सरकारें मंदिर और मस्जिद की लड़ाई से इतर सोचती तो जनता भी यह सोच पाती कि डॉक्टरों और अस्पतालों को लेकर भारत की बदहाली कैसी है? बेरोजगारी की हर दिन पहाड़ की तरह बढ़ती ना चली जाती।

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