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केंद्रीय बजट 2022-23 में पूंजीगत खर्च बढ़ाने के पीछे का सच

क्या पूंजीगत खर्च बढ़ने से मांग और रोजगार में वृद्धि होती है?
union budget

वित्त मंत्री सुश्री निर्मला सीतारमण का केंद्रीय बजट 2022-23 एक ही जुनून (obsession) पर आधारित है। यह जुनून बड़े-बड़े इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स में कैपिटल एक्सपेंडिचर (कैपेक्स) बढ़ाने का है। धारणा यह है कि इस तरह के big-ticket वाले बुनियादी ढांचे के खर्च से अतिरिक्त मांग पैदा होगी और निजी निवेश का खुद ही प्रवेश होगा, और इस तरह विकास को बढ़ावा मिलेगा। 

न्यूज़क्लिक ने पूर्व वित्त सचिव श्री एस.पी. शुक्ला से केंद्रीय बजट 2022-23 के पीछे इस अंतर्निहित रणनीति पर उनके विचार जानने के लिए संपर्क किया। उन्होंने कहा, "बजट में कल्याणकारी खर्च, यानी उपभोग खर्च का प्रोत्साहन पर्याप्त नहीं है। यह आपूर्ति पक्ष (supply side) पूंजीगत व्यय उपायों और खपत पक्ष (consumption side) द्वारा कुल मांग को बढ़ाने हेतु समग्र संतुलित प्रोत्साहन (ताकि अर्थव्यवस्था में उच्च विकास हो) के बीच उचित संतुलन की समझ की कमी को दर्शाता है। 

श्री शुक्ला ने आगे कहा: "निजी निवेश सिर्फ इसलिए नहीं होता कि धन प्रवाह सरकार से सार्वजनिक पूंजी व्यय की ओर जाता है। निश्चित ही, बड़े निवेश करने से पहले निवेशक बाजार की क्षमता व संभावित मांग का सावधानीपूर्वक मूल्यांकन करेंगे। भले ही आप निवेशकों को रियायतें दें, कुल मांग को प्रोत्साहन देने के अभाव में, , वे निवेश नहीं करेंगे। इसके बजाय, वे बेहतर दिनों की प्रतीक्षा करेंगे। या, तुरन्त पैसा बनाने के लिए शेयर बाजार में या वित्तीय अटकलों के लिए पैसा निवेशित करेंगे। या, बस अपने लिए लाभांश बढ़ाएँगे। वे केवल गरीब ही होते हैं जो हाथ में कुछ पैसा आते ही सारा खर्च करने लगते हैं । लेकिन, यदि आप किसानों को सहायता केवल पीएम-किसान जैसी कुछ सांकेतिक राशि तक सीमित करते हैं, तो वे इसका उपयोग केवल उन ऋणों को चुकाने के लिए करेंगे जो उन्होंने महामारी संकट के दौरान लिए थे। भूख से निपटने के लिए मुफ्त अनाज देना जरूरी है लेकिन इससे मांग नहीं बढ़ेगी। वर्तमान खपत को बढ़ाने के लिए राशि पर्याप्त होनी चाहिए, केवल इससे ही औद्योगिक वस्तुओं और सेवाओं की मांग बढ़ सकती है। सरकार को एक गलत धारणा के तहत लगता है कि बड़ी टिकट (big-ticket) परियोजनाओं पर खर्च करने से स्वतः ही गुणक प्रभाव (multiplier effect) उत्पन्न हो जाएगा। लेकिन अक्सर ऐसा नहीं होता। बल्कि, यह अक्सर केवल क्रोनी कैपिटलिस्ट्स और राजनेता-ठेकेदार-माफिया गठजोड़ को ही फायदा पहुंचाता है।”

श्री शुक्ल के शब्दों में हाल के आर्थिक इतिहास के तथ्य सत्य को प्रकट करते हुए नज़र आते हैं। उदाहरण के लिए, कुछ-एक वर्षों में मामूली गिरावट के बावजूद, बाद के बजटों में पूंजीगत व्यय (capex) लगातार बढ़ रहा है, लेकिन विकास दर बढ़ने के बजाय घट रहा है।।

मौजूदा कीमतों (current prices) में, 2014-15 में पूंजीगत व्यय 1.97 लाख करोड़ रुपये था। 2015-16 में इसे बढ़ाकर 2.53 लाख करोड़ रुपये और फिर 2016-17 में 2.85 लाख करोड़ रुपये कर दिया गया। 2017-18 में 2.63 लाख करोड़ रुपये की मामूली गिरावट के बाद, फिर से 3.80 लाख करोड़ रुपये की भारी वृद्धि हुई। 2019-20 में फिर से 3.36 लाख करोड़ रुपये की मामूली गिरावट आई, लेकिन 2020-21 में पूंजीगत व्यय में पुनः 4.39 लाख करोड़ रुपये की तेज वृद्धि हुई। यह 2021-22 में 8.40 लाख करोड़ रुपये (आरई) revised estimate निकला। और 2022-23 के लिए इसे 10.67 लाख करोड़ रुपये प्रस्तावित किया गया है। दूसरे शब्दों में, यह 7 वित्तीय वर्षों में पांच गुना से अधिक की वृद्धि है।

इसके विपरीत, 2014-15 में सकल घरेलू उत्पाद का वृद्धि दर 7.41%, 2015-16 में 8.00%, 2016-17 में 8.26%, 2017-18 में 6.80%, 2018-19 में 6.53%, 2019-20 में 4.04% था। और 2020-21 के चरम महामारी वर्ष में एक नकारात्मक -7.96% रहा। यह महामारी के आने से पहले ही लगातार गिरावट को दर्शाता है। दूसरे शब्दों में, पूंजीगत व्यय में वृद्धि के बावजूद भारत में सकल घरेलू उत्पाद के विकास दर में लगातार गिरावट आई है। तो, क्या अब फिर ऐसा ही करने से कुछ और बेहतर होगा?
 
केपेक्स (capex) को बजट रणनीति का एकमात्र जोर क्यों बनाया जाए?

कहीं कोई गलतफहमी न हो तो, सबसे पहले, हम यह स्पष्ट कर दें कि हम पूंजीगत व्यय को बढ़ाने के प्रति आलोचनात्मक नहीं हैं। खपत और कुल मांग को बढ़ाने हेतु किसी भी प्रोत्साहन की पूरी तरह उपेक्षा कर केवल इसे बजट रणनीति का एकमात्र बिंदु बनाने पर हम आपत्ति जता रहे हैं। दूसरे, पूंजीगत व्यय की संरचना भी एक महत्वपूर्ण अंतर पैदा कर सकती है। प्रमुख उपभोग क्षेत्रों को प्रत्यक्ष वित्तीय सहायता के अभाव में एकतरफा निवेश-आधारित विकास एक कपोल कल्पना है।
 
पूंजीगत व्यय (capex) से अधिकतम प्रोत्साहन प्रभाव प्राप्त करने के लिए भी दो मूलभूत प्रश्न बहुत निर्णायक हैं।
क्या सभी पूंजीगत व्यय का पैसा लगभग 200 बड़े कॉरपोरेट घरानों के हाथों में देना है या व्यापक-आधारित निवेश को बढ़ावा देने के लिए विकेन्द्रीकृत पूंजीगत व्यय की ओर बढ़ना है?

क्या सारा पैसा बड़ी बुनियादी ढांचा परियोजनाओं में डालना है या विकेंद्रीकृत निवेश करना है; यानि विशेष रूप से ग्रामीण और सामाजिक बुनियादी ढांचे में उसी पैसे से अधिक प्रोत्साहन प्रभाव प्राप्त करना है ?

दोनों सवालों के जवाब से पता चलता है कि भारत में पूंजीगत व्यय बड़े व्यापारिक घरानों द्वारा बड़ी-टिकट वाली परियोजनाओं के पक्ष में अत्यधिक हो रहा है। यह इसलिए हो रहा है कि कृषि और ग्रामीण बुनियादी ढांचे, स्वास्थ्य बुनियादी ढांचे और हमारी अर्थव्यवस्था की रीढ़ वाले हजारों छोटे और मध्यम निवेशकों द्वारा अर्थव्यवस्था में समग्र निवेश में इज़ाफा हेतु प्रोत्साहन बढ़ाने की उपेक्षा की जा रही है।

कैपेक्स का तिरछा संयोजन

आइए हम 2022-23 के केंद्रीय बजट में पूंजीगत व्यय की प्रकृति पर एक नज़र डालें। कुल पूंजीगत व्यय 10.68 लाख करोड़ रुपये है। पूंजीगत व्यय में वृद्धि सकल घरेलू उत्पाद के 2.9% के रिकॉर्ड स्तर पर है। पूंजीगत व्यय का बजट 2021-22 के संशोधित अनुमान से 24.5% अधिक है। लेकिन फिर पूंजीगत व्यय में सरकार की प्राथमिकता क्या है?

बहुराष्ट्रीय कंपनियों सहित निजी ठेकेदारों द्वारा निष्पादित किए जाने वाले भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण द्वारा 25,000 किलोमीटर राष्ट्रीय राजमार्गों को 1,34,000 करोड़ रुपये मिलेंगे। लेकिन प्रधान मंत्री ग्राम सड़क योजना के तहत ग्रामीण सड़कों को केवल 5000 करोड़ रुपये अधिक मिलेंगे-2021-22 में 14,000 करोड़ रुपये से बढ़कर 2022-23 में 19,000 करोड़ रुपये।

पिछले साल ग्रामीण भारत से सबसे गंभीर राजनीतिक चुनौती का सामना करने के बावजूद, इस साल के बजट में ग्रामीण विकास मंत्रालय के तहत सभी केंद्र प्रायोजित योजनाओं के लिए कुल आवंटन लगभग 11 प्रतिशत गिर गया है। न केवल किसान, ग्रामीण मजदूर और गरीब किसान, जो अपने अस्तित्व के लिए मनरेगा पर निर्भर हैं, उन्हें बजट से कुछ नहीं के बराबर मिला, वर्ष 2022-23 में मनरेगा के लिए आवंटन घटकर 1,35,944.29 करोड़ रुपये हो गया, जो 2021-22 में 1,53,558.07 करोड़ रुपये (संशोधित अनुमान) था।

केंद्रीय बजट में कृषि और ग्रामीण विकास के लिए एक भी बड़ा निवेश नहीं है। क्या हाइवे और फ्रीवे आबादी का पेट भर सकते हैं? भाजपा नेताओं के करीबी ठेकेदारों की ही जेबें भरेंगी । इस तरह के किसान विरोधी राजकोषीय पूर्वाग्रह को देखते हुए, कोई आश्चर्य नहीं है कि प्रधान मंत्री को बिजनौर में अपनी चुनावी रैली रद्द करनी पड़ी; और गृह मंत्री अमित शाह को पिछले हफ्ते पश्चिमी यूपी के बागपत में अपनी चुनावी रैली को काले झंडे वाले विरोध की धमकी के कारण रद्द करना पड़ा। 
 
कैसे सुश्री निर्मला ने महामारी को बजट से गायब कर दिया!

पूरे विश्व ने 2020-21 में महामारी के पीक के दौरान ऑक्सीजन संकट और अस्पताल के बुनियादी ढांचे के संकट को दूर करने में भारत की दयनीय अक्षमता पर चिंता व्यक्त की। उम्मीद की जा रही थी कि इस बजट में स्वास्थ्य बुनियादी ढांचे के विकास को काफी बढ़ावा मिलेगा। व्यापक आक्रोश का सामना करने के बाद, प्रधान मंत्री मोदी ने खुद अक्टूबर 2021 में प्रधानमंत्री आयुष्मान भारत स्वास्थ्य अवसंरचना मिशन (पीएम-एबीएचआईएम) की घोषणा की थी, जिसमें चार वर्षों में कुल 64,120 करोड़ रुपये खर्च किए जाएंगे। 2022-23 बजट में पहले वर्ष में कितना आवंटित किया गया? हालांकि, सुश्री निर्मला सीतारमण ने अपने बजट भाषण की शुरुआत उन लोगों के प्रति सहानुभूति व्यक्त करते हुए की, जिन्हें महामारी के प्रतिकूल स्वास्थ्य और आर्थिक प्रभावों को झेलना पड़ा, लेकिन यह यह सहानुभूति बजट आवंटन आंकड़े में नहीं ही दिखाई दी। 

चौंकाने वाली बात यह है कि स्वास्थ्य ढांचे के लिए महज 5826 करोड़ रुपये ही आवंटित किए गए। यह प्रस्तावित ‘वन हेल्थ’ कार्यक्रम सहित सभी बुनियादी ढांचा विकास योजनाओं के लिए है, जो जूनोटिक रोगों की महामारी, रोगाणुरोधी प्रतिरोध, खाद्य सुरक्षा, पशु स्वास्थ्य और पर्यावरणीय स्वास्थ्य को संबोधित करने के लिए माना जाता है। ऐसा लगता है कि बजट निर्माताओं के लिए भारत को कोई महामारी नहीं झेलनी पड़ी; और बजट जैसे कोविड -19 तीसरी लहर और एक ओमाइक्रोन खतरे के बीच नहीं पेश किया गया हो!
 
वेतन आय बढ़ाने का कोई प्रयास नहीं

पिछले साल पेश किए गए आर्थिक सर्वेक्षण में न्यूनतम मजदूरी पर केवल वाक्पटुता थी। धीरे-धीरे, मोदी सरकार को समझ आने लगा कि वेतन वृद्धि परोपकार का नहीं बल्कि एक व्यापक आर्थिक (macro-economic) अनिवार्यता का सवाल है। अधिक वेतन आय का अर्थ है अधिक खपत और विनिर्माण निवेश तथा विकास के लिए अधिक प्रोत्साहन। 2018-19 के आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (Periodic Labour Force Survey) के सरकार के अपने एनएसएसओ के आंकड़े हमें बताते हैं कि भारत में अनौपचारिक श्रमिकों – संख्या 38.4 करोड़- को केवल औसत न्यूनतम मजदूरी 209 रुपये प्रति दिन मिल रही थी। ILO के अनुसार, महामारी ने 2020 में इसे और नीचे ला दिया और 2022 में अनौपचारिक मजदूरी में 22.6% की गिरावट आई। लेकिन वेतन वृद्धि, जो मांग वृद्धि को बढ़ावा देती है, के बिना कोई औद्योगिक विकास नहीं होता। 

अनौपचारिक क्षेत्र में न्यूनतम मजदूरी को लागू करना मुश्किल हो सकता है। लेकिन मनरेगा ने ग्रामीण मजदूरी में क्रांति ला दी है। इसी तरह, अगर मोदी सरकार ने शहरी क्षेत्रों में मनरेगा का विस्तार किया होता तो शहरी अनौपचारिक मजदूरी दोगुनी से अधिक हो जाती, जिससे कुल मांग में जबरदस्त वृद्धि होती। बड़े किसानों के पक्षधर विचारकों द्वारा फैलाया गया मिथक की मनरेगा के कारण मजदूरों को रोजगार देने वाले मध्यम किसान खेती से बाहर हो जाने के लिए मजबूर होंगे, वास्तविकता को देखते हुए ही खारिज हो जाता है। 

2007 से 2009 में कृषि मूल्य वृद्धि ने छोटे किसानों को परेशान किए बिना उच्च मजदूरी का ध्यान रखा था। इसी तरह, मनरेगा के शहरी क्षेत्रों में विस्तार से अनौपचारिक उद्योग अपंग नहीं होंगे। बल्कि, मांग को बढ़ावा देने के साथ, और अधिक एमएसएमई खड़े हो सकते हैं।

बजट में शहरी गरीबों के लिए भी कुछ नहीं था। मूल लक्ष्य के अनुसार, 2 करोड़ प्रधानमंत्री आवास योजना (पीएमएवाई) घरों को 2022 तक पूरा किया जाना था, लेकिन 9 फरवरी 2022 तक केवल 114.02 लाख पीएमएवाई घरों को मंजूरी दी गई है और उनमें से 75% भी पूरे नहीं हुए हैं। शेष 85 लाख घरों को तैयार करने के लिए बजट के ‘जुमला लक्ष्य’ को पूरा करने हेतु कितनी धनराशि आवंटित की गई? सिर्फ 500 करोड़ रुपये! आगे टिप्पणी करने की आवश्यकता नहीं है।

कैपेक्स पुश के अलावा, बड़े कॉरपोरेट घरानों को भी कर छूट के रूप में एक बड़ा बोनस मिला। पहले, कॉरपोरेट्स को अन्य वित्तीय लाभों की गणना व्यय बजट में छोड़े गए राजस्व के रूप में करते थे। प्रत्येक बजट में 4 से 5 लाख रुपये की औसत राजस्व परित्यक्त राशि (average revenue foregone) दिखाई गई है। लेकिन भाजपा के पूर्व वित्त मंत्री अरुण जेटली ने धोखाधड़ी से बजट गणना में इस तरह से हेरफेर किया कि कॉर्पोरेट रियायतों के कारण राजस्व हानि के आंकड़े वास्तविक के लगभग एक-चौथाई ही दिखाए गए।

तदनुसार, इस वर्ष प्राप्ति बजट के अनुलग्नक 7 में 2019-20 में 1,01,402.54 करोड़ रुपये और 2020-21 में 1,11,289.29 करोड़ रुपये का राजस्व परित्यक्त दिखाया गया है। यह इस तथ्य के बावजूद कि 1 अक्टूबर 2019 को, मोदी सरकार ने कॉर्पोरेट टैक्स में 30% से 22% और नई कंपनियों के लिए 25% से 15% तक कटौती की घोषणा की। और, सरकार के अपने दावे से अकेले 2020-21 में कॉरपोरेट घरानों को 1.45 लाख करोड़ रुपये का लाभ अर्जित होगा। इससे ही साबित होता है कि बजट में पारदर्शिता का अभाव है और बजट बनाने में इतनी बेईमानी को देखते हुए सारे आंकड़ों को संदेह की नज़र से ही देखा जा सकता है.

इस बजट में लुभावने बजट आंकड़ों की बात करें तो, 2022-23 के लिए राजस्व घाटा सकल घरेलू उत्पाद के 3.8% पर लक्षित है, जो 2021-22 में 4.7% के संशोधित अनुमान से कम है। 2022-23 में राजकोषीय घाटा सकल घरेलू उत्पाद के 6.4% पर लक्षित है, जो 2021- 22 में सकल घरेलू उत्पाद के 6.9% के संशोधित अनुमान से कम है। सभी फर्जी आंकड़े हैं ।

 निर्मला सीतारमन ने विनिवेश के जरिए पैसा जुटाने के बड़े लक्ष्य की घोषणा की थी। यह न केवल एक फ्लॉप शो बन गया, एकमात्र बिग टिकट विनिवेश है एयर इंडिया का टाटा को सौंपना। टाटा को 12,906 करोड़ रुपये का भुगतान करने के लिए कहा गया था, जिसमें से उन्होंने केवल 2700 करोड़ रुपये का भुगतान नकद के रूप में किया। बाकी के लिए, उन्हें 40 पैसे की सबसे सस्ते दर पर बैंक ऋण दिया गया। इससे भी अधिक, एयर इंडिया को टाटा को सौंपने की सुविधा के लिए, सरकार को बजट से एयर इंडिया के 52,000 करोड़ रुपये के ऋण को चुकाना पड़ा। दूसरे शब्दों में, सरकार ने केवल इस "सफल" निजीकरण की खातिर 12,906 करोड़ रुपये हासिल करने के वास्ते 52,000 करोड़ रुपये खर्च किए। लेकिन यह घोटाला पूरी तरह से कानूनी है! ठेकेदारों को एनएचएआई (NHAI) के बोनस के अलावा, इस निंदनीय सौदे में बजट से कुल पूंजीगत व्यय का एक बड़ा हिस्सा भी शामिल था।

चेन्नई के अर्थशास्त्री आर. विद्यासागर ने न्यूज़क्लिक को बताया, "मोदी सरकार के पूंजीगत खर्च का जुनून केवल कुछ गलत विचारधारा या अर्थशास्त्र के कारण नहीं था। बल्कि, हर जानकार व्यक्ति को पता है कि परियोजना का 10% -20% पैसा सत्ताधारी पार्टी के राजनेताओं की जेब में जाता है। तो कुछ वास्तविक निहित स्वार्थ ज़रूर शामिल हैं”। लेकिन बड़े कॉरपोरेट घरानों को सबसे ज्यादा फायदा होता है। श्री रतन टाटा की 2017 में नागपुर में मोहन भागवत से मुलाकात व्यर्थ नहीं गई। संयोग से, 7 फरवरी 2022 को खबर आई कि श्री गौतम अडानी सबसे अमीर एशियाई के रूप में उभर कर श्री मुकेश अंबानी को भी पीछे छोड़ चुके हैं। और हर कोई जानता है कि अडानी को अपना निवेश फंड कहां से मिलता है और कैसे उनके शेयर की कीमतों में हेराफेरी की जाती है।

सबका विकास? इस सूट-बूट सरकार के तहत? 

सरकार ने दावा किया कि अगले ही दिन शेयर बाजारों ने 600 अंकों की वृद्धि के साथ बजट का स्वागत किया। केवल उन्होंने यह नहीं बताया कि निर्देशों के तहत पीएसबी और एलआईसी-जीआईसी ने कितने शेयर खरीदे। लेकिन अगले चार दिनों में सेंसेक्स 2500 अंक से अधिक लुढ़क गया। निर्मला जी के सबसे फीके बजट पर बाजारों ने अपना फैसला सुना दिया था । क्या मोदी अब इस बात की जांच करेंगे कि शेयर बाजारों में कोई टुकड़ा-टुकड़ा गैंग तो नहीं छिपा है ?

(लेखक आर्थिक और श्रम मामलों के जानकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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