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विपक्षी खेमे की चिंताजनक विभाजनकारी प्रवृत्तियां

टीएमसी प्रमुख ममता बनर्जी ने हाल ही में मुंबई में फ़िल्मकारों के बीच जा कर कहा था कि "“यूपीए क्या है? कोई यूपीए नहीं है!" उनकी इस टिप्पणी की आलोचना शिवसेना ने भी की है।
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फ़ोटो साभार: सोशल मीडिया

वह 2011 का साल था, पश्चिम बंगाल के राजनीतिक इतिहास में वाटरशेड वर्ष। पश्चिम बंगाल राज्य विधानसभा चुनाव के नतीजे घोषित होने में मुश्किल से 24 घंटे बचे थे। एक वरिष्ठ पत्रकार ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता महाश्वेता देवी के आवास पर गए, जो प्रमुख वामपंथी बुद्धिजीवी थीं, जिन्होंने चुनावी लड़ाई में ममता का साथ दिया था। ममता भी अक्सर महाश्वेतादी को अपने अभिभावक के रूप में देखती थीं। रिपोर्टर ने महाश्वेतादी से पूछा, “दीदी, ममता और उनकी पार्टी को निश्चित रूप से शानदार जीत हासिल होगी। ममता के नेतृत्व में आप पश्चिम बंगाल के भविष्य के बारे में क्या सोचती हैं?” पट से बंगाली साहित्य के दिग्गज से गूढ़ जवाब मिला: "मुझे एक बड़ी समस्या का डर है: ममता से ममता को कौन बचाएगा?" विनम्र शब्दों में, अत्यधिक सम्मानित बंगाली बुद्धिजीवी वास्तव में पूछ रही थीं कि क्या ममता में विद्यमान अहंकारोन्माद उन्हें अपनी महत्वाकांक्षा से खुद को बचाने देगा। लगभग एक दशक बाद, ऐसी बड़ी राजनीतिक महत्वाकांक्षा वर्तमान समय में प्रदर्शित हो रही है।

ममता ने पिछले हफ्ते राष्ट्रीय सुर्खियां बटोरीं जब उन्होंने व्यंग्यात्मक टिप्पणी की, “यूपीए क्या है? कोई यूपीए नहीं है।" इसे व्यापक रूप से ममता की कांग्रेस के लिए चुनौती और विपक्षी राजनीति में विभाजनकारी संकेत के रूप में देखा जा रहा है। उन्होंने यह टिप्पणी शरद पवार से मुलाकात के बाद की थी, इससे भी यह महत्वपूर्ण बन गई। आखिर शरद पवार को जून 2021 में विपक्षी दलों की बैठक बुलाने के लिए राजनीतिक हलकों में याद किया जाता है, पर जिसमें उन्होंने कांग्रेस को आमंत्रित नहीं किया था। उस पहल के फ्लॉप होने के बाद भी, वह विपक्षी खेमे में कांग्रेस के खिलाफ एक समानांतर ध्रुव को तैयार करने के लिए प्रशांत किशोर के साथ मिलकर राजनीतिक तिकड़म करते रहे हैं। पवार की तरह, जिन्हें 2004 में उनकी प्रधानमंत्री पद की महत्वाकांक्षाओं को कुचलने के लिए सोनिया  से नाराजगी है, प्रशांत किशोर के पास कांग्रेस के खिलाफ अपना गुरेज़ था, क्योंकि उन्हें, सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी से व्यक्तिगत रूप से मिलने के बावजूद, पार्टी में प्रवेश से वंचित कर दिया गया था जबकि कथित तौर पर उन्होंने उनसे वादा किया था कि वह 300 सीटों पर कांग्रेस की जीत की गारंटी करेंगे। कांग्रेस नेतृत्व ने उन पर ज़रा भी विश्वास नहीं किया। मानो उनकी शंकाओं को पुष्ट करने के लिए, वह अब कांग्रेस के एक विरोधी बन गए हैं, और अब विपक्षी खेमे के भीतर कांग्रेस-विरोधी “ हॉच-पॉच’’ को मजबूत करने की उम्मीद कर रहे हैं। वह अब शरद पवार के प्रमुख सलाहकार हैं, जिन्होंने हाल ही में मोदी से मिलने के बाद, ज़ाहिरा तौर पर किशोर की पटकथा के अनुसार ममता के साथ मिलकर कांग्रेस को छोड़कर एक अलग संकीर्ण विपक्षी समूह बनाने का काम किया है।

देश में राजनीतिक हलकों में तब भौंहें चढ़ गईं जब ममता ने यह घोषणा कर दी कि उनकी टीएमसी गोवा की सभी सीटों पर चुनाव लड़ेगी। उन्होंने बहुत पैसा भी खर्च किया और गोवा में, जहां उसकी ज्यादा उपस्थिति नहीं थी, अपने संगठन को मजबूत करने के लिए कांग्रेस के टर्नकोट्स को खरीदा। गोवा में कांग्रेस और टीएमसी पहले से ही एक-दूसरे के खिलाफ दुष्प्रचार कर रहे हैं। ऐसा नहीं था कि वह पश्चिम बंगाल के चुनावों में वामपंथियों के साथ कांग्रेस  एकता के लिए कांग्रेस को जवाब दे रही थीं, जिसने भाजपा विरोधी वोटों को विभाजित किया। इसके बजाय, वह राष्ट्रीय परिदृश्य में एक महत्वाकांक्षी प्रवेश का लक्ष्य बना रही हैं, लेकिन कांग्रेस की कीमत पर उनकी ऊंची उड़ान भरने की कोशिश उलट परिणम देगी और इस पहल को अस्थिर बना देगी।

ममता ने राहुल या सोनिया का नाम लिए बिना मोदी के खिलाफ उनकी निष्क्रियता के लिए कांग्रेस, और यहां तक कि व्यक्तिगत रूप से राहुल गांधी की आलोचना करते हुए कोई शब्द बाकी न रखे। उनके प्रयासों को उस समय बल मिला जब समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने कुछ दिन पहले मीडिया से कहा कि उन्हें ममता द्वारा बनाए गए किसी भी विपक्षी मोर्चे का हिस्सा बनने में खुशी होगी।

हैरानी की बात यह है कि ममता को शिवसेना की ओर से कड़ी फटकार मिली। शिवसेना के आधिकारिक मुखपत्र सामना ने उनकी संकीर्ण पहल की तीखी आलोचना की। उसने स्पष्ट रूप से कहा- ममता और शरद पवार दोनों को अप्रत्यक्ष रूप से चेतावनी देते हुए हुए- कि कांग्रेस के बिना भाजपा के खिलाफ कोई व्यवहार्य विपक्षी एकता नहीं हो सकती है। सामना ने ममता के कदमों के पीछे की मंशा पर भी सवाल उठाया, जो मोदी के कांग्रेस-मुक्त भारत के आह्वान से काफी मिलता-जुलता है। ममता की राजनीतिक गणनाओं को स्पष्ट रूप से समझते हुए, उद्धव ठाकरे ने उनकी मुंबई यात्रा के दौरान उनसे मिलने के लिए समय देने से इनकार करते हुए उनकी पहलकद्मियों से खुद को दूर कर लिया। बल्कि, उन्होंने केवल अपने बेटे आदित्य ठाकरे को उनसे शिष्टाचार के तहत भेंट करने के लिए भेजा।

विधानसभा चुनाव विपक्षी खेमे में बंटवारे को मज़बूत करेंगे

विधानसभा चुनावों से भाजपा के राजनीतिक भंडार में कमी आने की उम्मीद है। यहां तक कि अगर वे यूपी को बनाए रखने में कामयाब होते हैं, तो भी योगी सरकार के खिलाफ साफ तौर पर सत्ता-विरोधी लहर उठ रही है, और इससे भाजपा की सीटों में लगभग 100 सीटों की कमी आने का खतरा है। गोवा, मणिपुर और उत्तराखंड में भी सत्ता-विरोधी लहर दिखाई दे रही है। ग्राउंड रिपोर्ट्स के मुताबिक बीजेपी को कड़े मुकाबले का सामना करना पड़ेगा। लेकिन, दुर्भाग्य से, एक व्यापक भाजपा-विरोधी एकता को मजबूत करना तो दूर, विधानसभा चुनावों का सामना करने वाले राज्यों में स्थानीय कारकों ने विपक्षी खेमे में दरार पैदा कर गहरी कर दी है।

प्रियंका गांधी ने घोषणा की है कि कांग्रेस यूपी की सभी 403 सीटों पर स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ेगी। एक मजबूत राय हो सकती है कि कांग्रेस और सपा के अलग-अलग चुनाव लड़ने से भाजपा के वोटों को अधिक नुकसान होगा क्योंकि असंतुष्ट ब्राह्मणों और अन्य उच्च जाति के मतदाताओं के लिए कांग्रेस को वोट देना ज्यादा आसान होगा। लेकिन तब कांग्रेस और सपा एक दूसरे के खिलाफ आपसी कटुता के बिना भाजपा के खिलाफ अपना विरोध केंद्रित कर सकते थे। अपनी चुनावी रैलियों में प्रियंका गांधी जैसी कददार नेता कहती हैं कि अखिलेश की मुख्यमंत्री के रूप में वापसी गुंडा राज की वापसी होगी। अपनी ओर से, अखिलेश कहत हैं कि कांग्रेस यूपी विधानसभा चुनाव में शून्य सीटें जीतेगी और पश्चिम बंगाल में उसका सफाया हो जाएगा।

यह सच है कि विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद स्थिति बदल सकती है। देश में लोकतंत्र की बहाली के लिए सत्तावादी मोदी शासन के खिलाफ विपक्षी एकता महत्वपूर्ण है और सभी दलों को अपने व्यक्तिगत पार्टी हितों को इस बड़े लक्ष्य के अधीन रखना चाहिए। विधानसभा चुनाव जैसे अल्पकालिक कारक जहां स्थानीय राजनीतिक समीकरण हावी हैं, को विपक्षी एकता की दीर्घकालिक आवश्यकता में बड़ी बाधा नहीं पैदा करनी चाहिए।

विपक्षी खेमे में दिखाई देने वाली विभाजनकारी प्रवृत्तियों ने व्यापक विपक्षी एकता के उत्साही लोगों को अपेक्षित रूप से निराश किया है। लेकिन विपक्षी एकता की सहज प्रक्रिया के लिए कोई शाही रास्ता नहीं होता । 2024 में भाजपा-विरोधी विपक्ष का नेतृत्व आसान नहीं । इसे हल्के में नहीं लिया जा सकता। यह शक्तियों के उभरते वस्तुनिष्ठ संतुलन से ही आकार ले सकता है। शायद, केवल 2024 के बाद की गिनती ही विपक्षी खेमे के समीकरणों को संयम में ला सकती   है।

मोदी-समर्थक कॉरपोरेट्स के लिए ममता का प्रस्ताव

ममता का एक और इशारा, जो उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा को दर्शाता है, वह है मुंबई में कॉरपोरेट नेताओं के साथ उनकी मुलाकात। ममता ने मुंबई में अपने दौरे के बीच अदानी से मुलाकात की। यह बैठक ज़ाहिरा तौर पर उन्हें पश्चिम बंगाल में निवेश करने के लिए आमंत्रित करने के लिए थी। लेकिन अ अडानी क्यों? हर कोई जानता है कि कॉरपोरेट जगत में मोदी के लिए गौतम अडानी राइट हैंड हैं। जाहिर है, बैठक में राज्य में निवेश के लिए अनुरोध करने की तुलना में राजनीतिक रंग अधिक थे। डिलिवरेबल्स के संदर्भ में भी, ममता के पास पश्चिम बंगाल में अडानी द्वारा निवेश के लिए कोई विशेष प्रस्ताव नहीं था और अडानी भी कोई ठोस निवेश प्रस्ताव लेकर नहीं आए थे। क्या यह उनकी महत्वाकांक्षी अखिल भारतीय राजनीतिक योजनाओं को ‘बैंकरोल’ करने के लिए कॉरपोरेट घरानों से राजनीतिक धन-संग्रह हेतु एक कदम था?

अदानी पहले कॉरपोरेट नेता नहीं हैं जिन्हें ममता ने मिलने के लिए चुना। ममता 2017 में मुकेश अंबानी से भी मिलीं। उन्होंने अंबानी परिवार की शादी में भी शिरकत की। कॉरपोरेट जगत के लोग भी ‘दीदी’ से मिलने के लिए बेताब हैं। केवल सत्ताधारी और विपक्ष दोनों को अपनी जेब में रखना बड़े कॉरपोरेट्स की इच्छा नहीं है।बल्कि, जमीनी हकीकत को सही ढंग से पढ़ने पर, वे विपक्षी खेमे में दूसरे उभरते हुए ध्रुव को खड़ा करके, मोदी के हित में कांग्रेस को कमतर आंकने के लिए उत्सुक प्रतीत होते हैं, जो उनके अपने व्यापक हित में है।

यहां तक कि पश्चिम बंगाल के प्रगतिशील वामपंथी बुद्धिजीवियों के एक वर्ग ने माकपा के नौकरशाही कैडर राज के खिलाफ उनकी लड़ाई में ममता का समर्थन किया। लेकिन पश्चिम बंगाल की वही प्रगतिशील ताकतें अगर ममता को कारपोरेटों के करीब जाते हुए देखती हैं, तो उसे अच्छा नहीं लगेगा। क्या राष्ट्रीय स्तर पर कुछ बड़ा करने की उनकी हताशा ने उन्हें यह भ्रम दिया है कि कॉर्पोरेट्स वास्तव में  उनकी महत्वाकांक्षाओं को  बैंकरोल करेंगे? उन्हें उन कॉरपोरेट्स से क्या मदद मिल सकती है, जो पूरी तरह से मोदी समर्थक हैं? वह उन्हें लुभाने में सफल होने से ज्यादा, मोदी के खिलाफ कांग्रेस के विरोध को कमजोर करने और विपक्षी खेमे के भीतर एक दरार पैदा करने के लिए केवल उसके साथ दांव-पेंच करने की कोशिश करेंगे।

ममता की अत्यधिक राजनीतिक महत्वाकांक्षा ही नहीं, कांग्रेस का अहंकारी आत्म-अलगाव भी विपक्षी खेमे में विभाजन के लिए जिम्मेदार है। हो सकता है, स्थानीय कारकों या अपनी खुद की चुनावी क्षमताओं को मजबूत करने की आवश्यकता ने उन्हें यूपी चुनावों में अकेले लड़ने के लिए मजबूर किया हो। लेकिन उन्हें अन्य विपक्षी दलों और क्षेत्रीय दलों के साथ अपने मतभेदों को अपने तक रखना चाहिए और किसान के मुद्दे पर जोरदार प्रतिक्रिया या मोदी द्वारा महामारी कुप्रबंधन के लिए अन्य विपक्षी दलों के साथ मिलकर गैर-संसदीय क्षेत्र में अधिक एकता के प्रस्ताव के साथ सामने आना चाहिए।

दुर्भाग्य से,अल्पकालिक मतभेदों को दूर करने और दीर्घकालिक विपक्षी एकता को बढ़ावा देने के लिए एक वामपंथी आवाज भी सामने नहीं आ रही है। संभवत: मौजूदा विधानसभा चुनावों में उनकी अपनी सीमित भूमिका के कारण उनका मनोबल टूट गया है। पश्चिम बंगाल में ममता से हारने के अलावा, वे अखिल भारतीय विपक्षी पहल को खोने का जोखिम कैसे उठा सकते हैं, खासकर जब ममता गुमराह करने वाली पहल का सहारा लेती हैं। ममता के झूठे कदमों पर खुशी मनाने और ममता के साथ अपनी खुद की प्रतिद्वंद्विता के संकीर्ण दृष्टिकोण से देखने से ज्यादा, उन्हें व्यापकतम संभव विपक्षी एकता पर जोर देकर नैतिक ऊंचाई हासिल करनी चाहिए।

(लेखक आर्थिक और श्रम मामलों के जानकार हैं। विचार निजी हैं।)

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