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रोज़गार और शिक्षा के सवाल पर छात्र-युवा आक्रोश के विस्फोट का साक्षी रहा साल 2022

इस वर्ष जिन प्रमुख आंदोलनों ने 2022 के गतिपथ का निर्माण किया, उनमें छात्र-युवा आंदोलन तथा अकादमिक-बौद्धिक समुदाय का प्रतिरोध प्रमुख रहा।
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केंद्रीय शिक्षक पात्रता परीक्षा (सीटीईटी) और बिहार शिक्षक पात्रता परीक्षा (बीटीईटी) उत्तीर्ण अभ्यर्थियों ने स्थायी नौकरी की मांग को लेकर पटना में धरना। फाइल फ़ोटो/पीटीआई

 

वर्ष 2022 में दमन और प्रतिरोध की ताकतें साल भर गुत्थमगुत्था होती रहीं। फ़ासिस्ट प्रतिक्रिया और लोकतांत्रिक प्रगति की ताकतों के बीच घात-प्रतिघात इस साल नई मंजिल पर पहुंच गया।

2022 के आगाज़ के ठीक पहले देश में एक ऐतिहासिक जनान्दोलन पर विराम लगा था। राजनीतिक मजबूरी में एक कदम पीछे हटते हुए 3 कृषि कानूनों को वापस लेकर मोदी सरकार किसी तरह किसान-आंदोलन की घेरेबंदी से उबरने में सफल हुई थी, पर रोजगार व शिक्षा को लेकर छात्रों-युवाओं, नए लेबर कोड, निजीकरण तथा महंगाई को लेकर श्रमिकों, लोकतांत्रिक अधिकारों पर बढ़ते हमलों के खिलाफ नागरिक समाज तथा बढ़ते सामाजिक अन्याय के खिलाफ हाशिये के तबकों का गुस्सा भी फूटने लगा था और सामने UP जैसे महत्वपूर्ण चुनाव से शुरू हो रही चुनावों की श्रृंखला थी, जो अनेक राज्यों से होते हुए 2024 के निर्णायक महासमर तक बढ़ने वाली थी।

जनता के चौतरफा उमड़ते घुमड़ते आक्रोश से निपटने के लिए सत्ता-प्रतिष्ठान ने इस साल दमन और साम्प्रदायिक विभाजन को चरम पर पहुंचा दिया। बुलडोजर अ'न्याय' इस दमन का बर्बर प्रतीक बन कर उभरा तो खुले आम कथित धर्म-संसदों में जनसंहार का आह्वान समूची संवैधानिक व्यवस्था तथा हमारे लोकतन्त्र के भविष्य पर बड़ा सवालिया निशान लगा गया।

बहरहाल, इस सब की बदौलत साल की शुरुआत में भाजपा उत्तर प्रदेश भले जीतने में सफल रही ( हालांकि विपक्ष भी उनके मुकाबले 36% मत और 100 सीटों से ऊपर पहुंच गया ), लेकिन साल का अंत आते आते वह मोदी जी के " Son of the Soil " plank पर लड़े गए गुजरात चुनाव की जीत तक सिमट कर रह गयी, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली MCD समेत अनेक राज्यों के उपचुनावों में उसे हार का स्वाद चखना पड़ा।

विपक्षी सरकारों को गैर-संवैधानिक तरीकों से हड़पने में माहिर भाजपा को बिहार में हुए नाटकीय बदलाव में न सिर्फ सत्ता गंवानी पड़ी, बल्कि इसने विपक्ष के नए ध्रुवीकरण की संभावनाऐं जगाकर यह संकेत भी दे दिया कि 2024 का चुनाव खुला हुआ है। भारत जोड़ो यात्रा को, उसकी सारी सीमबद्धताओं और कमजोरियों के बावजूद, मिलना वाला समर्थन मोदी राज के खिलाफ बढ़ते आक्रोश और बदलाव की आकांक्षा की ही अभिव्यक्ति है। उधर सरकार की वायदाखिलाफी के विरुद्ध संयुक्त किसान मोर्चा ने मार्च में राम लीला मैदान में महापंचायत की घोषणा कर 2023 के लिए अपने दृढ़ इरादों का ऐलान कर दिया है।

इस वर्ष जिन प्रमुख आंदोलनों ने 2022 के गतिपथ का निर्माण किया, उनमें छात्र-युवा आंदोलन तथा अकादमिक-बौद्धिक समुदाय का प्रतिरोध प्रमुख रहा।

साल का आगाज़ बेरोजगारी के महासंकट के खिलाफ युवाओं की जोरदार दस्तक के साथ हुआ। 4 जनवरी, 2022 की रात अचानक हजारों नौजवान उत्तर भारत के प्रतियोगी छात्रों के

प्रमुख केंद्र इलाहाबाद की सड़कों पर ताली-थाली बजाते हुए उतर आए थे। वे नौकरियों और रोजगार की मांग कर रहे थे। उनका यह प्रदर्शन अगले दिन भी चलता रहा। इसके सप्ताह भर के अंदर ही 12जनवरी को युवाओं ने जोरदार ट्विटर अभियान चलाया #भाजपा हराओ रोजगार बचाओ, #youthfor right to employment.

गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर 25 जनवरी, 2022 को रेलवे भर्ती बोर्ड की परीक्षा में अनियमितता तथा जानबूझ कर किये जा रहे विलम्ब के खिलाफ नौजवानों का स्वतःस्फूर्त आक्रोश फूट पड़ा था। जंगल में आग की तरह बिहार के शहर-दर-शहर, और वहाँ से लेकर इलाहाबाद, BHU तक आंदोलन फैल गया, नौजवान हजारों-हजार की तादाद में रेल-ट्रैक पर प्रतिरोध में उतर पड़े, सरकार सकते में आ गयी और पूरा देश भौंचक रह गया था। सरकार ने भारी दमन द्वारा आंदोलन को भ्रूणावस्था में ही कुचल देने में भलाई समझी। इसके खिलाफ 28 जनवरी को छात्र-युवा संगठनों द्वारा आहूत बिहार बंद, जिसे महागठबंधन ने भी समर्थन दिया था, बड़े पैमाने पर सफल रहा।

दरअसल यह बेरोजगारी के महासंकट के खिलाफ युवाओं के संचित आक्रोश का विस्फोट था, जो पूरे साल विभिन्न रूपों में फूटता रहा। सेना में नियमित भर्ती की पुरानी व्यवस्था की जगह लायी गयी अग्निपथ योजना के खिलाफ युवा जबरदस्त विरोध में उठ खड़े हुए, महीनों तक हरियाणा, राजस्थान, UP से लेकर बिहार की वह पट्टी आंदोलित रही, जहां के नौजवान भारी संख्या में सेना में भर्ती होते रहे हैं। कई जगहों पर भाजपा के कार्यालय भी नौजवानों के स्वतःस्फूर्त आक्रोश का शिकार बने। संयुक्त किसान मोर्चा ने अग्निपथ के खिलाफ युवाओं के आंदोलन के समर्थन में 24 जून को देश भर में विरोध दिवस मनाया।

बेरोजगारी के गहराते संकट के खिलाफ छात्रों-युवाओं के भारी आक्रोश और समय समय पर उसे लेकर उभरते आंदोलनों से डरे प्रधानमंत्री को केंद्र सरकार के वर्षों से खाली पड़े पदों को भरने का एलान करना पड़ा। अधिकांश पद तो अभी भी खाली ही पड़े हैं, पर पिछले दिनों उन्हें युवाओं को नियुक्तिपत्र बांटने का रोजगार-मेला जैसा प्रतीकात्मक इवेंट आयोजित करवाना पड़ा।

2022 नई शिक्षानीति तथा उसके भयावह दुष्परिणामों के खिलाफ छात्रों के जबरदस्त आंदोलनों का भी साल रहा। वे अलग अलग परिसरों में भी लड़ते रहे और राजधानी दिल्ली में भी दस्तक देते रहे। AIFRTE के बैनर तले सभी प्रगतिशील छात्र संगठनों ने 27 मई को दिल्ली में NEP-2020 के खिलाफ राष्ट्रीय कन्वेंशन किया। 31 मई को देश भर से आये छात्रों ने जंतर मंतर पर नई शिक्षा नीति के खिलाफ protest किया।

नई शिक्षानीति के तहत की जा रही भारी फीस वृद्धि के खिलाफ BHU, AMU से लेकर पटना तक तमाम परिसरों में यह साल जुझारू छात्र-आंदोलनों का साक्षी रहा। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पिछले 4 महीने से शासन-प्रशासन, पुलिस तथा सत्ता-संरक्षित लम्पटों के चौतरफा हथकंडों तथा दमन के ख़िलाफ़ लड़ते हुए वहां हुई 400% फीसवृद्धि के खिलाफ छात्रों का आंदोलन जारी है। यूजीसी कार्यालय से लेकर जंतर मंतर तक प्रदर्शन कर छात्रों ने अपनी आवाज बुलंद की है। हाल ही में संसद में भी उनके मुद्दे की गूंज सुनाई दी।

सरकार न सिर्फ फीसवृद्धि कर रही है, बल्कि छात्रों को अब तक मिलने वाली तमाम छात्रवृत्ति को भी बंद कर रही है। कक्षा 1 से 8 तक SC, ST, OBC तथा अल्पसंख्यक समुदाय के छात्रों को मिलने वाली pre-matric स्कालरशिप बंद कर दी गयी। हाल ही में अल्पसंख्यक समुदाय के M Phil तथा Ph D के छात्रों को मिलने वाली मौलाना आज़ाद नेशनल फेलोशिप बंद कर दी गयी। इसके खिलाफ तमाम परिसरों से लेकर राजधानी दिल्ली तक लगातार protest जारी है। MANF बंद करने के विरोध में प्ले-कार्ड लिये जादवपुर विवि में दीक्षांत समारोह में छात्रों का फोटो सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा है।

पाठ्यक्रमों के भगवाकरण के आक्रामक अभियान के खिलाफ कर्नाटक के बुद्धिजीवियों ने पूरे देश के बौद्धिक समुदाय को रास्ता दिखाया। दरअसल नई शिक्षानीति के तहत तमाम प्रगतिशील साहित्यकारों की रचनाओं को जिनमें फ़ैज़ ही नहीं कबीर, मीरा, मुक्तिबोध, निराला, दुष्यंत, फिराक भी शामिल हैं, जगह जगह पाठ्यक्रमों से हटाया जा रहा है। इसी क्रम में जब कर्नाटक में भगत सिंह को हटाकर हेडगेवार को शामिल करने, टीपू सुल्तान, समाज सुधारक बासवन्ना, पेरियार, नारायण गुरु आदि को भावनाएं आहत होने के नाम पर हटाने की मुहिम छिड़ी तो उसके खिलाफ सुप्रसिद्ध कन्नड़ लेखक देवानूरु महादेव और जी रामकृष्ण जैसे लोग उठ खड़े हुए और उन्होंने विरोधस्वरूप अपनी सारी रचनाएं पाठ्यक्रमों से हटाने की मांग की। सरकार को तात्कालिक तौर पर पीछे हटना पड़ा।

सरकार तथा सत्ता-संरक्षित लम्पटों द्वारा परिसरों में लोकतांत्रिक आंदोलनों को कुचलने के लिए छात्रनेताओं तथा प्राध्यापकों पर हमले और प्रताड़ना की घटनाएं इस साल की विशेषता रहीं। ज्ञानवापी प्रकरण पर कथित " भावनाएं आहत करने वाले " बयानों के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय के प्राध्यापक प्रो. रतन लाल को गिरफ्तार किया गया तथा लखनऊ विश्वविद्यालय के प्रो. रविकांत चंदन पर मुकदमा दर्ज हुआ और सत्ता से जुड़े छात्र संगठन ने उनके खिलाफ हल्ला बोल दिया। दरअसल इन दोनों का असल "अपराध " यह था कि ये सत्ता के मुखर विरोधी हैं। JNU की मेस में नॉन वेज खाने के सवाल पर अपना " फूड कोड " थोपने पर उतारू लम्पटों ने छात्रों पर हमला बोल दिया जिसमें छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष बालाजी भी घायल हुए थे। अभी हाल ही में दिल्ली विश्वविद्यालय में AISA के प्रदेश अध्यक्ष पर सत्ता संरक्षित गुंडों ने उस समय हमला बोल दिया जब वे नई शिक्षानीति और FYUP के ख़िलाफ़ अभियान में लगे हुए थे।

बहरहाल, यह साल साक्षी रहा कि सत्ता का कोई भी दमन छात्र-नौजवानों की अदम्य भावना ( indomitable spirit ) को परास्त नहीं कर सकता। कर्नाटक के चर्चित हिजाब प्रकरण में परिसर में भगवा लहराते लम्पटों से घिरी अकेली छात्रा की मुट्ठी ताने, नारे लगाती, साहसिक चुनौती पूरे देश-दुनिया में वायरल हो गयी और इस वर्ष फासीवादी दमन के विरुद्ध प्रतिरोध की सबसे प्रेरक तस्वीर बन गयी।

उम्मीद है अगला साल छात्र-युवा आंदोलनों तथा अकादमिक-बौद्धिक समुदाय के प्रतिरोध के और भी ऊंचाई पर जाने, उनके राजनीतिक स्वरूप ग्रहण करने तथा और बड़ी गोलबंदी और नई जीतों का साल बनेगा।

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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