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यह पूरी तरह से कमज़ोर तर्क है कि MSP की लीगल गारंटी से अंतरराष्ट्रीय व्यापार गड़बड़ा जाएगा!

लोकतांत्रिक राज्यों में दरअसल राज्य की यही सबसे बड़ी भूमिका होती है कि वह संसाधनों का ऐसा प्रबंधन करें किसान के साथ न्याय हो पाए।
MSP
फोटो : गौरव गुलमोहर

नए कृषि कानूनों के समर्थकों के जरिए टीवी पर एक तर्क प्रस्तुत किया जा रहा है की एमएसपी को कानूनी अधिकार के तौर पर स्थापित करना व्यवहारिक नहीं है। इनका तर्क है कि अगर फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया ने अनाज की खरीद एमएसपी पर नहीं की और साथ में प्राइवेट खरीददार ने भी एमएसपी यानी मिनिमम सपोर्ट प्राइस की वजह से दूसरे देशों से अनाज का आयात कर लिए तब क्या होगा? ऐसे में किसान की उपज धरी की धरी रह जाएगी? इसे खरीदने वाला कोई नहीं मिलेगा। अंतरराष्ट्रीय व्यापार भी पूरी तरह से असंतुलित हो जाएगा। जैसे मुर्गी पालन करने वाले किसान को अगर देश में सस्ते दाम में मक्का नहीं मिल रहा है तो वह देश के बदले विदेश से मक्का मंगवा लेगा। इसलिए न्यूनतम समर्थन मूल्य या एमएसपी या मिनिमम सपोर्ट प्राइस को कानूनी अधिकार में बदल देने की मांग करना जायज मांग नहीं है।

इस तर्क पर चर्चा करना जरूरी है। लेकिन चर्चा करने से पहले एमएसपी क्या है? और अब तक इसकी पृष्ठभूमि क्या रही है? इसे समझना जरूरी होगा ताकि इस तर्क को समझा जा सके कि क्या इस तर्क में दम भी है? या केवल पहली नजर का छलावा है।

अक्सर बहुत सारे लोगों के मन में अर्थव्यवस्था को लेकर बहुत अधिक गलत धारणा होती है। जब भी वह अर्थव्यवस्था शब्द को सुनते हैं तो उन्हें लगता है जैसे कि पैसे का प्रबंधन अर्थव्यवस्था कहलाता है। जबकि ऐसा नहीं होता। अर्थव्यवस्था का मतलब है संसाधनों को इस तरीके से प्रबंधित किया जाए ताकि सभी लोगों तक उसका फायदा पहुंच पाए। कहने का मतलब है की अर्थव्यवस्था को ऐसी छूट ना मिल जाए कि अमीर अमीर होते जाएं और गरीब गरीब होते जाएं। अगर ऐसा हो रहा है तो इसका मतलब है की अर्थव्यवस्था ठीक से चल नहीं रही है। लोकतांत्रिक राज्यों में अर्थव्यवस्था के पीछे का आधारभूत दर्शन यही होता है। इसीलिए जब कोई कहता है कि भारत में सभी वस्तुओं के दाम जब मांग और आपूर्ति यानी डिमांड और सप्लाई के नियम के आधार पर तय होते हैं तो अगर कृषि के बारे में कोई यह कहे की कृषि उपज के कीमत का भी निर्धारण उपज की मांग और पूर्ति के आधार पर यानी डिमांड और सप्लाई के आधार पर हो तो इसमें गलत क्या है? कोई सवाल का जवाब ही होता है कि इसमें सब कुछ गलत है। अर्थव्यवस्था को खुले घोड़े की तरह नहीं छोड़ा जा सकता।

भारत में बहुत बड़ी आबादी गरीबी में रहती है। अगर डिमांड और सप्लाई के आधार पर अनाज की बिक्री होती तो आज पहले ही गेहूं की कीमत 200 रुपये किलो से अधिक होती। धान की कीमत भी आसमान छू रही होती। गरीब आदमी कुछ भी नहीं खरीद पाता। उसे अनाज नहीं मिल पाता। अनाज और भोजन के मामले में सरकारों का हस्तक्षेप करना इसलिए बहुत जरूरी है। सब कुछ बाजार पर नहीं छोड़ा जा सकता। अच्छी बात यह है कि सरकार बहुत पहले से अनाज और खाद्यान्न पदार्थों की कीमत पर हस्तक्षेप करते आ रही है। 

आजादी के बाद भारत में भुखमरी की हालत थी। अनाज उत्पादन कम होता था। इसलिए सवाल यह था कि अनाज का उत्पादन कैसे बढ़े? इसी सवाल के जवाब में 60 के दशक में हरित क्रांति हुई। लेकिन हरित क्रांति रुके ना, किसान उत्पादन करता रहे इसलिए जरूरी था कि किसान को अपनी उपज का वाजिब दाम मिले। इसी क्रम में एपीएमसी की मंडियां बनी। सरकार ने तय किया कि अगर बाजार नहीं खरीदेगा या वाजिब दाम नहीं देगा तो एपीएमसी की मंडियों में न्यूनतम समर्थन मूल्य के तहत अनाज खरीदा जाएगा।

यहां पर गौर से सोचने कि बात यह है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य किसान को मिलने वाला वाजिब दाम नहीं है बल्कि वह दाम है जिससे कम पर अगर किसान अपनी उपज बेचता है तो इसका मतलब है कि उसका शोषण किया जा रहा है। इसे मिनिमम वेज की तरह समझिए। जहां सरकार यह तय करती है कि अमुक राशि से कम अगर मेहनताना होगा तो इसका मतलब है कि मजदूर के साथ शोषण किया जा रहा है।

लोकतांत्रिक राज्यों में दरअसल राज्य की यही सबसे बड़ी भूमिका होती है कि वह संसाधनों का ऐसा प्रबंधन करें किसान के साथ न्याय हो पाए। ऐसा ना हो कि सरकार के प्रभावी हस्तक्षेप के बिना लोगों का शोषण होने लगे। अगर प्रभावी हस्तक्षेप नहीं हो रहा है तो इसका मतलब है कि सरकार होते हुए भी सरकार नहीं है।

इन तर्कों से लेखक आपको यह बताना चाहता है कि अर्थव्यवस्था के मामले में लोकतांत्रिक राज्यों में राज्यों का बहुत अधिक महत्व है? राज्यों ने यह भूमिका जब ठीक से निभाई है तभी सबका भला हो सका है। और जब अपनी भूमिका से राज्य मुकरा है तो जनता को बहुत अधिक परेशानी झेलनी पड़ी है।

अब एमएसपी के मामले में यह परेशानी कैसी है? तो पहली परेशानी यह की सरकार तकरीबन 23 फसलों पर एमएसपी का ऐलान करती है। लेकिन मिलता केवल दो फसलों पर है। वह भी सभी किसानों को नहीं मिलता है। उन्हीं किसानों को मिलता है जिनकी पहुंच एपीएमसी की मंडियां तक है। शांता कुमार कमेटी की रिपोर्ट कहती है कि एमएसपी लेने वाले किसानों की हिस्सेदारी कुल किसानों में तकरीबन 6 फ़ीसदी है। रिपोर्ट थोड़ी पुरानी है तो मान लेते हैं कि मौजूदा समय में 10-12 फ़ीसदी किसानों को एमएसपी मिलती होगी। यह भी बहुत कम है। ऑर्गनाइजेशन ऑफ इकोनोमिक एंड डेवलपमेंट का आंकड़ा है कि साल 2000 से लेकर 2016 के बीच कृषि उपज पर वाजिब दाम ना मिलने की वजह से किसानों को तकरीबन 45 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है। ऐसा होने के बाद भी सरकार किसानों को स्वामीनाथन कमीशन के तहत उनकी लागत का डेढ़ गुना मूल्य देने के लिए तैयार नहीं है। सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में जाकर खुद हलफनामा दिया है कि वह एमएसपी के तौर पर किसानों को स्वामीनाथन कमीशन के तहत डेढ़ गुनी कीमत का भुगतान नहीं कर सकती है।

इसके साथ एफसीआई की मंडियों में होने वाले भ्रष्टाचार को जोड़ लिया जाए। एफसीआई मंडियों के सरकारी अधिकारी और आढ़तियों के बीच बहुत गहरा सांठगांठ होती है। किसान अपनी उपज सीधे एफसीआई की मंडियों में नहीं भेज पाता है। सरकारी अधिकारी कई तरह के बहाना कर किसान की उपज को नहीं खरीदते हैं। उन्हें लौटाने की जुगाड़ में लगे रहते हैं। इसलिए यहां सरकारी खरीद होती भी है तो यहां कई पेच है। किसान सरकारी पोर्टल पर रजिस्टर करे, कागज दाखिल करे, फसल की गुणवत्ता साबित करे। सरकार ने अधिकतम पैदावार की सीमा भी बांध रखी है। अगर खरीद हो गई तो पेमेंट देर में होता है। झक मारकर किसान कम दाम में आढती को बेचकर जान छुड़ाता है। आढ़ती को बेचने के बाद उसे वैसे ही कभी न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं मिलता है। उससे कम ही मिलता है। 

कहने का मतलब यह है कि बहुत लंबे समय से सरकार कृषि क्षेत्र में अपनी प्रभावी हस्तक्षेप कारी भूमिका से भाग रही है। इसलिए अगर किसान यह मान बैठे हैं कि एमएसपी लिखित देने से कुछ नहीं होगा इसे कानूनी तौर पर स्थापित किया जाए तो इसमें कोई गलत बात नहीं।

इस पूरी पृष्ठभूमि को समझने के बाद यह बात तो साफ हो गई कि कृषि क्षेत्र में कीमत तय करने से जुड़े अधिकारों को पूरी तरह से बाजार के हवाले नहीं किया जा सकता है। सरकार खुद इस भूमिका को स्वीकार करती है। बहुत लंबे समय से खाद्य सुरक्षा और जनहित को देखते हुए कृषि क्षेत्र में हस्तक्षेप करते आ रही है। भले ही उसके हस्तक्षेप में कई तरह की कमियां हैं, जिससे किसानों को कई तरह के नुकसान झेलने पड़े हैं।

अब आते हैं इस तर्क पर की एमएसपी की लीगल गारंटी कर देने से लोग सस्ते कीमत पर अंतरराष्ट्रीय बाजार से अनाज खरीद लेंगे और अंतरराष्ट्रीय व्यापार में गड़बड़ी आ जाएगी। इस तर्क में सबसे बड़ी कमी यह है कि तर्क करने वाले अंतरराष्ट्रीय बाजार को पूरी तरह से राज्य की पाबंदियों से मुक्त इलाका मान रहे हैं। उनके तर्क में यह बात छिपी हुई है कि राज्य अंतरराष्ट्रीय बाजार पर नियंत्रण नहीं करता है। इसलिए एमएसपी की लीगल गारंटी कर देने पर सब कुछ गड़बड़ हो जाएगा। इसलिए बेसिक तौर पर देखा जाए तो यह तर्क पूरी तरह से गलत है। दुनिया में ऐसा कोई देश नहीं है जो अपने मुल्क के अंतरराष्ट्रीय बाजार की सही तरीके से देखरेख नहीं करता हो। भारत भी यह काम करता है। 

कृषि बाजार तो अब तक भारतीय राज्य के जरिए नियंत्रित होते आ रहा है। साल 1970 के दशक में जब अनाज की कमी से पूरा हिंदुस्तान जूझ रहा था तो सरकार ने ऐसी व्यवस्था तक बना दी थी कि किसान अपनी उपज का एक हिस्सा सस्ती कीमत पर बाजार में बेचेगा। ताकि अनाज की कमी से निपटा जा सके। सरकार ने समय-समय पर कृषि बाजार का प्रबंधन किया है तो सरकार के पास यह पूरा अधिकार है कि कृषि बाजार का अंतरराष्ट्रीय बाजार को देखते हुए भी प्रबंधन कर सके।

मौजूदा किसान आंदोलन से जुड़े कार्यकर्ता योगेंद्र यादव बीबीसी के एक इंटरव्यू में कहते हैं कि अनाज और खाद्यान्न का इस्तेमाल किसान भी करता है। मुर्गी पालने वाले व्यक्ति को भी हम किसान आंदोलन से जुड़े लोग किसान ही मानते हैं। उसे भी सस्ती कीमत पर मुर्गियों को खिलाने के लिए मक्का मिले यह जरूरी है। कृषि बाजार में सस्ते और महंगे का तनाव हमेशा चलता रहता है। यहीं पर राज्य की भूमिका आती है। राज्य सही तरह से प्रबंधन कर सब कुछ ठीक करता है। अंतरराष्ट्रीय बाजार केवल भारत की हकीकत नहीं है। अमेरिका यूरोपियन यूनियन कनाडा सब अंतरराष्ट्रीय बाजार की सीमाओं से निपटते हैं। इसीलिए कृषि क्षेत्र में हर जगह सब्सिडी दी जाती है। सब्सिडी का ऐसा प्रबंधन भी करते हैं कि उनकी सब्सिडी डब्ल्यूटीओ के रडार से नीचे रह जाए। अब सब्सिडी के कैसा प्रबंधन किया जाए? इस पर बहस की जा सकती है और की जानी चाहिए 

एक गलतफहमी फैल जाती है जब हम एमएसपी की लीगल गारंटी की बात करते हैं तो मीडिया वाले सहित बहुत लोगों को लगता है कि किसानों की मांग यह है कि सरकार 23 फसलों सहित सभी की खुद ही खरीदारी करे। यह संभव नहीं है। किसान बेवकूफ नहीं हैं। किसान यह कहते हैं कि सरकार तीन चार औजारों का इस्तेमाल करें। पहला, सरकार के जरिए जितनी खरीद इस समय होती है, उससे ज्यादा खरीद की जा सकती है। मसलन दाल और दूसरे अनाजों के मामले में। दूसरा जैसे ही बाजार में एमएसपीसी नीचे कृषि उपज का दाम गिरने लगे वैसे ही सरकार बाजार में हस्तक्षेप करें। सरकार खुद खरीदें। ऐसा काम सरकार करती है। इसे ही सरकार द्वारा मार्केट इंटरवेंशन कहा जाता है। लेकिन इसके लिए सरकार केवल 150 करोड़ रुपये का बजट रखती है। इससे क्या होगा? 10 से 20 हजार रुपये करोड़ का बजट रखना चाहिए। तब जाकर बाजार का माहौल बदलेगा। तीसरा औजार यह कि जहां भी किसान को एमएसपी से कम कीमत मिले वहां सरकार एमएसपी और मिले हुई कीमत के बीच के अंतर का भुगतान खुद कर दे।

इस तरह से एमएसपी से जुड़े कानूनी अधिकार को लागू किया जा सकता है। लेकिन उसका कहीं से भी है मतलब नहीं है कि सब कुछ केवल एमएसपी का आश्वासन देने भर से ठीक हो जाएगा। सरकार ने तीन कानून के तौर पर जो सौगात दी है पहले उसे वापस ले और एमएसपी को लीगल गारंटी बनाएं। किसान आंदोलनों की यही मांग है।

इस तरह से यह पूरी तरह से साफ है कि एमएसपी के मामले में अंतरराष्ट्रीय व्यापार की अड़चन कोई अड़चन नहीं है। बहुत ही कमजोर अड़चन है। इस अड़चन को राज्य के प्रशासनिक सूझबूझ से बहुत ही आसानी से संभाला जा सकता है।

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