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विचार: पूर्व के आंदोलनों से किस तरह अलग और विशिष्ट है किसान आंदोलन

कुछ राजनैतिक विश्लेषकों ने भी यह सवाल उठाया है कि किसान आंदोलन का वैचारिक राजनैतिक अवदान अतीत के दूसरे महत्वपूर्ण आंदोलनों जैसा नहीं है। इसी की पड़ताल कर रहे हैं वरिष्ठ लेखक और एक्टिविस्ट लाल बहादुर सिंह।
peasant movement
फोटो किसान एकता मोर्चा के फेसबुक पेज़ से साभार

किसान-आंदोलन तमाम हमलों, साजिशों, घेरेबंदी से लड़ते हुए नए आत्मविश्वास के साथ उठ खड़ा हुआ है, पहली वर्षगांठ पर नए जोश के साथ आगे बढ़ने को तैयार है।

750 से ऊपर किसानों की शहादत हो चुकी है। साल के सारे मौसमों की मार किसानों ने बॉर्डर के फुटपाथों पर झेल लीं! वे कुचले गए, गोली, लाठी, जेल, मुकदमे, हत्या, आत्महत्या -सबका साक्षी बना किसान-आंदोलन का कुरुक्षेत्र।

इस अकथनीय बलिदान के बाद भी किसान आंदोलन की मांगें जस की तस हैं। आखिर, इस सारी कुर्बानी का हासिल क्या है ?

कुछ राजनैतिक विश्लेषकों ने भी यह सवाल उठाया है कि किसान-आंदोलन का वैचारिक राजनैतिक अवदान अतीत के दूसरे महत्वपूर्ण आंदोलनों जैसा नहीं है। 

दरअसल, यह जानने का कोई वस्तुनिष्ठ तरीका तो है नहीं  कि वर्तमान कैसा होता अगर किसान आंदोलन न हुआ होता! पर ठोस तर्क और विश्लेषण से कुछ अनुमान जरूर लगाया जा सकता है।

याद करिये, प्रचण्ड बहुमत से 2019 में मोदी के सत्ता में वापस आने के साथ यह खौफ फ़िज़ा में तारी था कि मोदी सरकार अपने twin-agenda - सारे pending economic reforms को complete करने और संघ की शतवार्षिकी 2025 तक हिन्दू-राष्ट्र के निर्माण की ओर ruthless ढंग से आगे बढ़ेगी। याद करिये दूसरे कार्यकाल के पहले एक साल में मोदी के कारनामे-कितनी धृष्टता और बेशर्मी से  कश्मीर, अनुच्छेद 370,  CAA-NRC पर सरकार बेपरवाह आगे बढ़ी, Judicial manipulations द्वारा मन्दिर निर्माण शुरू करवाई, दिल्ली में प्रायोजित दंगे, अल्पसंख्यकों पर हमले, activists के खिलाफ एकदम फ़र्ज़ी मामले, जेल और अंततः राज्यसभा में खुले आम संविधान, कानून, परम्परा की धज्जियां उड़ाते हुए reform का सबसे बड़ा एजेंडा- कृषि कानून जबर्दस्ती पास कराया गया। यह दूसरे कार्यकाल में मोदी सरकार के अपने कारपोरेट-हिन्दू राष्ट्र के एजेंडा पर आक्रामक ढंग से आगे बढ़ने के  खतरनाक इरादों  का एलान था। कारपोरेट-हिन्दू राष्ट्र के अश्वमेध का घोड़ा जिस ferocity और आवेग के साथ आगे बढ़ रहा था, और संसदीय विपक्ष जिस तरह लकवाग्रस्त था, उसमें यह कल्पना करके ही आप सिहर उठेंगे की अब तक उसने कैसा तांडव किया होता ! 

बेशक किसान-आंदोलन के बावजूद उसने पिछले एक साल में बहुत कुछ किया है, लेकिन अगर हम उसके पहले के एक साल से इसकी तुलना करें तो यह निर्विवाद है कि किसान-आंदोलन ने पिछले 1 साल में देश का पूरा discourse बदल दिया है, अश्वमेध के घोड़े की लगाम पकड़ लिया है और उसके रास्ते में बड़े स्पीड-ब्रेकर खड़े कर दिए हैं। फ़ासिस्ट कारपोरेट-हिन्दूराष्ट्र की परियोजना को जबदस्त set-back लग चुका है और वह फिलहाल क्षत-विक्षत हो चुकी है। मोदी सरकार रक्षात्मक मोड में आ चुकी है, चुनाव दर चुनाव और अधिक रक्षात्मक होती जायगी।

तीन कृषि कानूनों पर तो सुप्रीम कोर्ट ने ही रोक लगा दी थी, वैसे भी मोदी सरकार के लिए अब उन्हें लागू कर पाना नामुमकिन है, व्यवहारतः वे कानून अब मृत हो चुके हैं। अलबत्ता, अब आन्दोलन में जुड़ गयी MSP की नई मांग मोदी सरकार और कृषि व्यापार से super-profit कमाने की उम्मीद लगाए बैठे चहेते कारपोरेट घरानों और मोदी सरकार के गले की फांस बन गयी है।

कृषि के क्षेत्र में नवउदारवादी सुधारों को लागू कर उसे बाजार के हवाले करने की विनाशकारी मुहिम पर तो फिलहाल रोक लग ही गयी है, व्यापक समाज और राजनीति के लिए भी किसान आंदोलन का अवदान कम नहीं है।

मोदी की कारपोरेटपरस्ती और साम्प्रदायिक राजनीति का जैसा convincing एक्सपोज़र किसान-आंदोलन ने किया, वह बेमिसाल है।

इस आंदोलन की शायद सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि इसने मोदी सरकार के असली वर्ग चरित्र पर जो लोकलुभावन राष्ट्रवाद ( populist nationalism) की चादर पड़ी हुई थी, जो मोदी की लोकप्रिय मसीहाई अपील के पीछे की सबसे बड़ी ताकत थी, उसे इसने तार-तार कर दिया। मोदी सरकार अपने चहेते अम्बानी-अडानी, कारपोरेट के अकूत मुनाफे के लिए किसानों को बर्बाद करने पर तुली है, यह बात किसानों की चेतना का हिस्सा बनी है और इसने किसानों की कारपोरेट-विरोधी वर्गीय एकता को जन्म दिया है। 

इस आंदोलन ने संघ-भाजपा की विभाजनकारी, साम्प्रदयिक राजनीति के खेल को अपने ठोस अनुभव से समझने में किसानों की और आम जनता की बहुत मदद की है। विशेषकर 26 जनवरी के घटनाक्रम को जिस तरह साम्प्रदायिक उन्माद पैदा कर किसान-आंदोलन को बदनाम करने और कुचलने के लिए इस्तेमाल किया गया, उसने किसानों के कान खड़े कर दिए और भाजपा की साम्प्रदायिक विभाजन की राजनीति/रणनीति का पूरा मर्म एक झटके में उन्हें समझ में आ गया।

इसने सिख किसानों को अलग-थलग करने की साजिश को तो नाकाम किया ही, पश्चिमी UP में 2013 के मुजफ्फरनगर के दंगों से चली आ रही हिन्दू-मुस्लिम  खाई को भी पाट दिया। साथ ही किसान आंदोलन ने  जाति-लिंग-राज्य की सीमाओं के पार एक राष्ट्रीय स्वरूप ग्रहण कर लिया। किसानों और खेत मजदूरों, दलितों और गैर दलितों के बीच एकता के सचेत प्रयास भी किसान नेतृत्व ने किए हैं।

हक और न्याय के लिए विरोध के अपने संवैधानिक अधिकार ( Right to protest ) की रक्षा के लिए किसान जिस बेखौफ ढंग से और बलिदानी भावना के साथ लड़ पड़े, उसने फ़ासिस्ट दमन से पस्त और सहमे देश को लोकतन्त्र के लिए लड़ने का नया हौसला दिया और जीत की नई उम्मीद पैदा की। मजदूर आंदोलन से लेकर अन्य तबकों में लड़ने की नई हिम्मत पैदा की और लकवाग्रस्त पड़े विपक्ष में भी नई जान फूंकी। भीमा कोरेगांव के फ़र्ज़ी मामले में बंद कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों की रिहाई से लेकर छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के दमन जैसे सवाल किसान-आंदोलन के मंच से उठे।

 इस आंदोलन ने शहरी मध्यवर्ग  को भी sensitise किया है और 3 कृषि कानूनों के विरुद्ध किसानों की लड़ाई महज किसानों नहीं वरन पूरे समाज के हित की लड़ाई है, इसके बारे में जागरूक किया है। किसानों को जिस तरह मोदी सरकार के गृह राज्य-मंत्री की गाड़ी से कुचला गया, उस दृश्य ने पूरे समाज में किसानों के प्रति गहरी सहानुभति को जन्म दिया है और जिस बेशर्मी से मोदी-योगी सरकार हत्यारों का बचाव कर रही है, ( जिस पर उच्चतम न्यायालय ने भी बेहद तल्ख टिप्पणियाँ की हैं ) उसके खिलाफ लोगों में भारी गुस्सा है।

इस आंदोलन ने आसन्न विधानसभा चुनावों, विशेषकर UP में भाजपा की चुनावी संभावनाओं पर मरणांतक चोट कर 2024 में मोदी की पुनर्वापसी की राह को कठिन बना दिया है।

आंदोलन की न जाने कैसी-कैसी महान संभावनाएं अभी भविष्य के गर्भ में हैं, पर अभी ही यह बेहिचक कहा जा सकता है कि आज़ाद भारत के इतिहास के एक निर्णायक काल खंड में, जब फ़ासिस्ट आक्रामकता के एक बिल्कुल अनजाने, अभिनव दौर से देश का सामना हुआ, उस समय यह ऐतिहासिक किसान-आंदोलन था जिसने full-fledged फासीवाद के ऑक्टोपसी शिकंजे में जाने से देश को बचा लिया और इतिहास की धारा को मोड़ दिया! जाहिर है यह  महान आंदोलन इतिहास में अमर हो चुका है और स्वर्णाक्षरों में दर्ज हो चुका है।

दरअसल सभी आंदोलनों की अपनी खासियत होती है क्योंकि वे अपने दौर की विशिष्ट परिस्थितियों की उपज होते हैं,  इसलिए उनको एक ही सांचे में रखकर ठीक ठीक तुलना नहीं हो सकती।

अतीत के जो अनेक आंदोलन विचारधारा और राजनीति से प्रेरित रहे हैं, जिनमें से कई की परिणति सत्ता परिवर्तन में भी हुई, उनकी अपनी सकारात्मक और नकारात्मक उपलब्धियां, सीमाएं और कमजोरियां  रही हैं, उन सबकी तुलना में किसान आंदोलन की अपनी विशिष्टताएं हैं।

दरअसल किसान आंदोलन किसानों के एक मुद्दे को लेकर शुरू हुआ मुद्दा-आधारित आंदोलन है, स्वाभाविक है यह न किसी   "वाद " पर आधारित है न किसी दल से जुड़ा है। इसका यह चरित्र इसकी genesis में अंतर्निहित है। आंदोलन की व्यापकता का यह आधार है। पूरे देश के 500 से ऊपर किसान संगठनों को एक छतरी के नीचे संगठित कर आगे बढ़ते आंदोलन का यह स्वाभाविक गतिविज्ञान है।

लेकिन 80 दशक के अराजनीतिक किसान आंदोलनों से भिन्न इस आंदोलन की विशेषता यह है कि इसने विचार और राजनीतिक समझ के प्रश्न पर अपनी rigid सीमाएं नहीं बांध रखी हैं, वरन अपने ठोस अनुभव से सीखते हुए लगातार अपनी वैचारिकी और राजनीतिक दिशा को उन्नत कर रहा है। कारपोरेट और मोदी सरकार के nexus के खिलाफ किसानों और अन्य मेहनतकश तबकों की गोलबंदी करते हुए  "भाजपा हराओ " तक की यात्रा इसने तय किया है। देश बचाने और लोकतन्त्र बचाने का सवाल इसने उठाया है। जाहिर है यह सब आंदोलन की लगातार विकासमान वैचारिक-राजनीतिक समझ का ही प्रमाण है।

विपक्षी राजनीतिक दलों के साथ अपने को नत्थी न कर और उनका पिछलग्गू न बन कर आंदोलन की स्वतंत्रता को हर हाल में बरकरार रखकर किसान नेताओं ने परिपक्वता और दूरदृष्टि का परिचय दिया है क्योंकि किसान आंदोलन का लक्ष्य महज सत्ता परिवर्तन नहीं बल्कि व्यवस्था परिवर्तन-कृषि के कारपोरेटीकरण और नवउदारवादी सुधारों को रोकना है, जिसके प्रति गैर-वामपन्थी सारे दल नीतिगत तौर पर प्रतिबद्ध रहे हैं।

सच यह है कि आज किसान-आंदोलन कारपोरेट-नवउदारवाद और साम्प्रदयिक फासीवाद के विरुद्ध भारतीय जनता के प्रतिरोध का सबसे विराट, रैडिकल  जन-केंद्र है। इसकी पूर्ण विकसित वैचारिक-राजनैतिक सम्भावनाएं अभी भविष्य के गर्भ में हैं, आज का किसान-आंदोलन उसका भ्रूण है।

नवउदारवाद के बुनियादी नीतिगत ढांचे में बदलाव के लिए अपनी प्रतिबद्धता और विराट जन-चरित्र के कारण, किसान-आंदोलन अतीत के उन आंदोलनों से अधिक प्रगतिशील और आगे का आंदोलन है जिनकी मंजिल महज सत्ता-परिवर्तन थी।

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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