Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

क्रांति के मूल्य-विचारों की धमक : सुनिये विरोधियों के प्रचार में

क्रांति का दीर्घकालीन प्रभाव भी लम्बे समय के इतिहास से ही स्पष्ट होता है। प्रश्नांकित तथ्य यही है कि ' जो विचार पराजित हो गया होता है उसे नष्ट करने के लिए इतने परिश्रम और संसाधन की जरूरत नहीं पड़ती है।’
 क्रांति के मूल्य-विचारों की धमक : सुनिये विरोधियों के प्रचार में
लेनिन मज़दूरों के बीच में

आज के जमाने में मार्क्सवाद का महत्व पर 'पहलपत्रिका द्वारा आयोजित भाऊ समर्थ व्याख्यानमाला के अंतर्गत पढ़े गये पर्चे में अपना नजरिया प्रस्तुत करते हुए एजाज़ अहमद ने कहा, " 'पहलकी जानिब से यह फर्माइश हम तक पहुंची तो इस ताकीद के साथ कि चर्चा इस बात पर की जाए कि आज के जमाने में मार्क्सवाद का क्या महत्व रह गया है। साथ ही बात पर चर्चा हो कि साहित्य और संस्कृति पर उसका क्या असर हुआ।  

एक तो यह कि मार्क्सवाद का अगर कोई महत्व है तो इंसान की पूरी तारीख और पूरी सामूहिक जिन्दगी के नाते से है। चुनांचे किसी मार्क्सवादी के लिए यह मुमकिन नहीं होता कि वह राजनीति के सवालों से हटकर, सामाजिक और आर्थिक सवालों से कटकरयह दिखाने की कोशिश करे कि मार्क्सवाद का कोई  खास महत्व साहित्य और संस्कृति के लिए है।

दूसरा प्रश्न यह उठाया कि इन दिनोंजब हम मार्क्सवाद के महत्व की बात करते हैं तो हमारा जोर 'आज के जमानेपर क्यों होता हैआज के जमाने की वह क्या खुसूसियत है जिसके कारण मार्क्सवाद की बाबत इस तरह का शक जाहिर किया जाता है।

"मार्क्सवाद का महत्व खत्म हो जाने की कथा बहुत पुरानी है। इस सदी के शुरू से कहा जा रहा है कि मैक्स वेबर के बाद समाज विज्ञान में मार्क्सवाद का महत्व खत्म हो गया हैफिर चर्चा होने लगी कि कीन्स के बाद तो अर्थशास्त्र में भी मार्क्सवाद का कोई महत्व नहीं रह गया। दूसरा आलमी जंग (विश्वयुद्ध) के बाद पश्चिमी यूरोप के देशों में पारलिमानी जम्हूरियत (संसदीय लोकतंत्र) का रिवाज आम हुआ तो कहा गया कि मेहनतकशों ने अपने सियासी हुकूक जिस तरह अमरीका और बरतानिया में संसद और चुनाव के जरिये हासिल किये हैंउसी तरह अब वो सारी दुनिया में यह हुकूक संसदीय शासन के जरिये हासिल कर सकते हैं, यानी राजनीति में भी मार्क्सवाद का कोई महत्व नहीं रह गया है। साथ ही जब उन बहुत से देशों में कल्याणकारी राज्य बने तो कहा गया कि अब तो आर्थिक ढांचे भी सरमायदारों और मजदूर यूनियनों  के समझौते से  बन रहे हैं, अब मार्क्स का क्या महत्व है?             

एजाज अहमद ने अमरीकी लेखक, डेनियल बेल की पुस्तक 'विचारधारा का अंतका जिक्र करते हुए कहाइस छपी हुई किताब की छाप पश्चिमी दुनिया पर आज भी इतनी गहरी है कि अब समाज और राजनीति के बारे में उत्तर आधुनिकतावाद जो कुछ कहता हैबेल की कही हुई बातों को फ्रांसीसी रंग देकर ही कहता है। लेकिन उत्तर आधुनिकतावाद के उरूज (उत्थान) से बहुत पहले ही बेल की आवाज़ में आवाज़ मिला कर जॉन गेलब्रेथ ने कहना शुरू कर दिया था कि अब न सरमाएदारी (पूंजीवाद) का कोई मानी है न समाजवाद काक्योंकि जो सनअती (औद्योगिक ) समाज कभी बना था वो तो बन के टूट भी चुकाअब तो पोस्टइण्डस्ट्रियल (उत्तर औद्योगिक) समाज हैजिसमें मार्क्सवाद तो क्या,  किसी भी आइडियोलॉजी का कोई महत्व नहीं है। यही विचारधाराएं हैं जिनके ताजातरीन मोड़ पर पहुंच कर फ्रांसीस फुकुयामा ने एलान किया है कि जिस जमाने में आइडियोलॉजी तो क्याइतिहास का भी अंत हो चुकाउसमें भला मार्क्सवाद का क्या महत्व होगा।

बकौल एजाज अहमद, ''यहां मैं इस बहस में नहीं उलझना चाहता कि इतिहास का अंत हो जाने से फुकुयामा का क्या मतलब हैन मेरी मुराद यह है कि वेबर और कीन्स, डेनियल बेल  और गालब्रेथ और उत्तर आधुनिकतावाद और फुकुयामा के बीच कोई फर्क नहीं है। फर्क है और बहुत गहरे और बुनियादी हैं। मैं बात कुछ और कह रहा था- वह यह कि मार्क्सवाद का महत्व    खत्म हो जाने वाली बात बहुत पुरानी है और तरह-तरह की विचारधाराओं से हो कर गुजरी हैयह बात सोवियत यूनियन के बनने से बहुत पहले शुरू हुई थी और सोवियत यूनियन के टूट जाने के बाद भी जारी है। चुनांचेअगर हम मार्क्सवाद का महत्व खत्म हो जाने या घट जाने की बात करते हैं तो हमें तय करना होगा कि यह महत्व कब और कैसे खत्म हुआ : समाज वैज्ञानिक और आर्थिक सोच के मैदान में वेबर और कीन्स के आने के बाद, यानी दूसरी आलमी जंग (विश्व युद्ध ) से पहले या उन सियासी और इक्तसादी (आर्थिक) तब्दीलियों के सबबजिनकी बुनियाद पर दूसरी आलमी जंग (विश्व युद्ध) के बाद पूरे मगरिबी यूरोप में पारलिमानी (संसदीय)

जम्हूरियत (लोकतंत्र) राज्य का रिवाज आम हुआ या पश्चिमी दुनिया में जराअत (कृषि) हत्ता कि सनअत के भी जवाल (पतन) के बादऔर इस उत्तर औद्योगिक समाज के बन जाने सेजिसकी बात भी 1960 के बाद ही शुरू हुई या फुकुयामा के बकौल नजरिया ही नहीं बल्कि इतिहास भी खत्म हो जाने के बाद यानी पांच-दस सालों के दौरान?

बोल्शेविक क्रांति के सौ वर्ष पूरा होने के अवसर पर गोपाल प्रधान द्वारा अलग-अलग पत्रिकाओं में लिखे गये लेखों का संकलन एक पुस्तिका के रूप में 'रूसी क्रांति और साहित्य और संस्कृतिआया है। पुस्तिका नक्सलवादी आंदोलन से जुड़े भाकपा माले के नेतृत्वकारी कामरेड ईश्वर चंद्र त्यागी की स्मृति को समर्पित है। पुस्तिका में 1996 में पिमलिको से ऑरलैंडो फिगेस की किताब 'ए पीपुल्स ट्रेजडी : द रशियन रेवोल्यूशन, 1891-1924' का प्रकाशन हुआ। भूमिका में वे बताते हैं, 'आजकल इतने छोटे बदलावों को भी क्रांति कहने का रिवाज चल पड़ा है कि इस किताब में जिसको क्रांति कहा गया है उसकी व्यापकता को समझने में पाठक को दिक्कत महसूस होगी। रूसी क्रांति प्रभाव के मामले में दुनिया के इतिहास की कुछेक बड़ी घटनाओं में से एक थी। इसके घटित होने के एक पीढ़ी बाद ही दुनिया की एक तिहाई आबादी इसके विचारधारात्मक असर वाले शासन में आ गई। इसने समकालीन दुनिया की शक्ल परिभाषित की और इसकी छाया से बाहर आना बस अभी सम्भव हुआ।

ऑरलैंडो फिगेस की एक पुस्तक 'रिवोल्यूशनरी रशिया,1891-1991: ए पेलिकन इण्ट्रोडेक्शनका प्रकाशन 2014 में पेलिकन से हुआ है। पुस्तक का उद्देश्य रूसी क्रांति को दीर्घकालीन इतिहास के दृष्टिकोण से देखना है। लेखक द्वारा सौ वर्षों को एक ही विप्लवी के रूप में व्याख्यायित किया है। जिसका आरम्भ 1891 में अकाल के समय जार की तानाशाही से होता है एवं समाप्ति होती  है 1991 में सोवियत सत्ता के अंत से। 

लेखक ऑरलैंडो फिगेस का मानना है कि रूसी क्रांति के समूचे चरित्र को समझने के लिए रूस के दीर्घ काल के इतिहास को देखने से हम उसके बीज, उसकी हिंसा, स्वतंत्रता के बाद तानाशाही की परिघटनाओं को रूस के जारशाही अतीत के जरिये समझा जा सकता है।

क्रांति का दीर्घकालीन प्रभाव भी लम्बे समय के इतिहास से ही स्पष्ट होता है।

सोवियत संघ के पतन के आरंभिक झटके के कुछ समय पश्चात इक्कीसवीं सदी के प्रारम्भ होने से थोड़ा पूर्व मार्क्सवाद में प्रबुद्ध हल्कों में व्यापक रुचि पैदा हुई।

रुचि की परिधि मात्र मार्क्सवाद नहीं बल्कि उसका फैलाव रूसी व्यवहार तक था। मसलन 1999 में यू सी एल प्रेस से मर्क सैंडल की पुस्तक 'ए शार्ट  हिस्ट्री ऑफ सोवियत सोशलिज्मका प्रकाशन हुआ। लेखक ने सोवियत संघ के इतिहास के 1917 से 1991 के काल को समाजवादी प्रयोग का समय माना है।

सन् 2000 में मैकमिलन से राबर्ट सर्विस की पुस्तक, 'लेनिनः ए बायोग्राफीका प्रकाशन हुआ। फिर  2002 में पैन बुक्स से उसका प्रकाशन हुआ और 2008 में पैन बुक्स ने ही उसका इलेक्ट्रानिक संस्करण जारी किया। लेखक का कहना है कि सोवियत संघ में कम्युनिस्ट पार्टी के संग्रहालय को शोध हेतु खोल देने से उन्हें बाकी जीवनियों के मुकाबले में ज्यादा सामग्री देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। लेनिन की उपलब्धियों को गिनाते हुए लेखक ने बोल्शेविक नाम के छोटे से गुट को ऐसी पार्टी में बदल देने की प्रक्रिया का उल्लेख किया जिसने 1917 की क्रांति को संपन्न कियापरिणाम स्वरूप संसार के इतिहास में पहली समाजवादी सत्ता स्थापित हुई। जो अत्यधिक विषम परिस्थितियों में कायम रही। प्रथम विश्व युद्ध और गृह युद्ध से देश को कामयाबी के साथ बाहर निकाला। कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल स्थापित करके सम्पूर्ण विश्व को प्रगतिशील राजनीतिक  दिशा दी। इन सबका कारण यह था कि लेनिन का प्रारंभिक जीवन रूसी समाज इतिहास के एक विचित्र समय में गुजरा। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में रूसी साम्राज्य बुनियादी परिवर्तन से गुजर रहा था और उसी के साथ लेनिन की पीढ़ी ऐतिहासिक बदलावों के भंवर में उलझी हुई थी। विश्व का सबसे बड़ा देश अपनी संभावनाओं को खोल और परख रहा था। पुराने सामाजिक और सांस्कृतिक बंथन ढीले पड़ रहे थे। अंतर्राष्ट्रीय संपर्क बढ़ रहा था एवं रूस की सांस्कृतिक और वैज्ञानिक उपलब्धियों को सारा विश्व अचम्भे से देख  रहा था।

सुसंस्कृत कुलीन तबका था। महान उपन्यासकार वैज्ञानिकसंगीतज्ञ और चित्रकार थे। पेशेवर मध्यवर्ग की संख्या में बढ़ोत्तरी हो रही थी। स्थानीय स्वासन की संस्थाएं विकसित हो रही थीं। नौकरशाही में कुलीनों की तुलना में पेशेवर लोगों की अधिक भरती हो रही थी। रूस संक्रमण और उथल-पुथल के दौर से गुजर रहा था। यथास्थिति के विरोधी सदियों से समाज का दमन करने वाली जारशाही के विरोध में हिंसक तरीके इस्तेमाल कर रहे थे। किसानी समाजवाद के  समर्थक अपनी  विचारधारा का प्रचार कर रहे थे। उदारपंथी लोग भी थे। किन्तु सदी के अंतिम मुहाने तक पहुंचते हुए जार की निरंकुशता के विरुद्ध सबसे प्रभावशाली विचारधारा के रूप में मार्क्सवाद स्थापित हो गया। जार एवं पूंजीवाद के विभिन्न पहलुओं के विरोध में बुद्धिजीवियों और मेहनतकश हलकों में व्याप्त माहौल से लेनिन को बहुत फायदा मिला। प्रथम विश्व युद्ध में रूस की हालत शासन विरोधी वातावरण बनाने में सहायक हुई।

'लेनिन पर अपने समय का प्रभाव तो था हीसमय पर उनका प्रभाव भी कुछ कम गहरा नहीं था। उनके घर में शिक्षा को उन्नति की राह समझा जाता था। शिक्षा के चलते उन्हें विदेशी भाषाओं को सीखने का मौका मिलाविज्ञान के प्रति लगाव पैदा हुआ और समाज को समझने में सहायक विचारधाराओं से प्रेम हुआ। लेनिन को अपनी भावनाओं को काबू में रखना आता था और अपने क्रोध को जुझारू आक्रमकता का रूप देकर वे लम्बे समय तक राजनीतिक लड़ाई लड़ सकते थे। अपनी बुनियादी मान्यताओं को उन्होंने दृढ़ता के साथ पकड़े रखा। मार्क्सवाद के अलावा रूसी साहित्य का भी उन पर अमिट असर पड़ा। 'लेनिन घनघोर पढ़ाकूप्रचण्ड लिक्खाड़ थेवक्ता उतने प्रभावी न थे।

अध्ययन और राजनीतिक संवेदनशीलता के कारण 1917 में उन्होंने सत्ता दखल की पटकथा लिखी। परिणामस्वरूप अक्टूबर में सत्ता दखल को अंजाम दिया। मार्च 1918 में ब्रेस्त-लितोव्स्क संधि के जरिये रूस पर जर्मनी के हमले को उन्होंने रोका। 1921 में नई आर्थिक नीति लागू करके उन्होंने ही नवजात सोवियत संघ को जन विक्षोभ से उबारा। इन सभी अवसरों पर लेनिन के जरिये संचालित अभियानों ने घटनाओं की दिशा तय की।

इसी श्रृंखला में इसी साल पालग्रेव से जान गुडिंग की पुस्तक 'सोशलिज्म इन रशिया: लेनिन हिज लीगेशी,1890-1991' का प्रकाशन हुआ। लेखक ने बीसवीं सदी  में रूस में किये गये समाजवादी प्रयोग के सिलसिले में कुछ बुनियादी सवालों का जवाब दिया है। प्रथम तो यह  कि रूस जैसे पिछड़े अर्ध एशियाई देश में मार्क्सवाद से प्रभावित समाजवादी विचारों ने कैसे जड़ पकड़ी? इसका उत्तर देते हुए उनका कहना है," मजबूत भौतिक आधार न होने के बावजूद रूसी समाज को -समाजवाद- की सबसे अधिक जरूरत थी।"

सन् 2017 में वर्सो से तारिक अली की पुस्तक 'दि डिलेमाज आफ लेनिन : टेररिज्म, वार, एम्पायरलवरिवोल्यूशन का प्रकाशन हुआ है। लेखक के मुताबिक किताब का मकसद लेनिन को सही ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखना है। वे ऐसी क्रांति के जनक थे जिसने विश्व राजनीति को बदल दियापूंजीवाद और उसके साम्राज्य पर सीधे हमला किया तथा वि-उपनिवेशीकरण की प्रक्रिया तेज कर दी।

किताब के लेखन की दूसरी वजह यह है कि आज की शासक विचारधारा एवं शक्ति संरचना बीसवीं सदी के सामाजिक मुक्ति संघर्षों के प्रति इतनी हिकारत से भरी हुई है कि ऐतिहासिक और राजनीतिक स्मृति का उत्खनन अपने आपमें प्रतिरोध महसूस हो रहा है। वर्तमान संघर्ष का लक्ष्य अतीत को दुहराना नहीं है बल्कि उससे सकारात्मक के साथ ही नकारात्मक शिक्षा भी लेनी चाहिए। तारिक अली का कहना है कि बीसवीं सदी में लेनिन का अतिरिक्त सम्मान करने वाले सम्भवतः उन्हें पढ़ते थे। श्री अली का मानना है कि 'दुनिया भर में तात्कालिक उद्देश्यों के लिए उनकी गलत व्याख्या की गयी और उनके विचारों का दुरुपयोग किया गया। लेनिन रूसी इतिहास के साथ ही यूरोपीय मजदूर आंदोलन की भी पैदाइश थे। इन्हीं दोनों के भीतर से वर्ग व पार्टी के रिश्ते पर सवाल आया था। इस सवाल पर अराजकतावाद तथा मार्क्सवाद की धाराओं के बीच होड़ रही थी। इस होड़ में मार्क्सवाद की विजय में लेनिन की निर्णायक भूमिका रही है।

तारिक अली बताते हैं कि लेनिन के बगैर अक्टूबर क्रांति संभव नहीं थी। जिस गुट और पार्टी का उन्होंने 1903 से ही अनेकों तकलीफ उठा कर निर्माण किया था वह फरवरी 1917 से अक्टूबर 1917 के बीच के निर्णायक महीनों में क्रांति करने के लिए तैयार नहीं थे। लेनिन की विदेश से वापसी से पहले इसके ढेर सारे नेता महत्वपूर्ण मुद्दों पर समझौता करने को तैयार हो गये थे। मतलब यह कि क्रांति के लिए ही बनाई गई राजनीतिक पार्टी भी नाजुक अवसर पर विचलित हो जा सकती है। लेनिन ने समझ लिया कि अगर इस मौके पर चूक हो गई तो फिर से प्रतिक्रया की जीत हो जाएगी। उन्होंने जमीनी समर्थकों के बल पर अनिच्छुक बोल्शेविक नेताओं को क्रांति की पहल करके अपने साथ चलने के लिए तैयार कर लिया। इसमें उनको युद्ध से उकताए सैनिकों का मजबूत साथ मिला क्योंकि वे भी बरसों से खाइयों-खंदकों में आपस में वही बातें कर रहे थे जो बोल्शेविकों के नारों में व्यक्त हुए। विश्व युद्ध की थकान ने लेनिन को अवसर दिया और उन्होंने इसे सफल क्रांति में तब्दील कर दिया। क्रांतियों से इतिहास आगे बढ़ा है।

 

सन्  2004 में पालग्रेव मैकमिलन से आर डब्ल्यू  डेविस की नयी भूमिका के साथ इ.एच.कार की पुस्तक 'दि रशियन रेवोल्यूशन : फ्राम लेनिन टू स्तालिन'(1917 से 1929) को फिर से छापा गया है। इसके पहले 1979 में इसका प्रकाशन हुआ था। हिन्दी पाठकों के लिए उनका महत्व है उनकी मशहूर किताब 'इतिहास क्या है'?

किन्तु उनकी अकादमिक प्रतिष्ठा सोवियत संघ का इतिहास लिखने के कारण है। तीस वर्ष लगा कर चौदह खण्डों में सोवियत संघ का इतिहास लिखने के बाद उसी  सामग्री के माध्यम से सामान्य पाठकों के लिए उन्होंने यह किताब लिखी है। उनका जन्म 1892 में हुआ था। 1917 में रूसी क्रांति के बाद 25 वर्ष की आयु में वे 'रूसी समस्याके अध्येताओं के एक छोटे से समूह के  सदस्य बने। इस क्रांति के दशाधिक साल बाद आई महामंदी ने यूरोपीय समाज को हिला कर रख दिया था। महामंदी के कारण यूरोप और अमरीका में गरीबी और बेरोजगारी में बढ़ोत्तरी के साथ ही उपनिवेशों में भी महंगाई की मार पड़ी थी। परन्तु इसी मंदी के दौर में सोवियत संघ मजबूती के साथ उद्योगीकरण के रास्ते पर चलता रहा था। उस समय श्री इ.एच. कार, 'लीग आफ़ नेशंस  में राजनयिक के बतौर कार्यरत थे। उन्हें पूंजीवादी अर्थ व्यवस्था में अन्तर्निहित अराजकता का प्रत्युत्तर सोवियत संघ की पंचवर्षीय योजनाओं में नजर आया। हालांकि वे सोवियत अर्थतंत्र के अंध प्रशंसक नहीं थे। सोवियत व्यवस्था की उनकी आलोचना की पुष्टि 1936 से 1938 के बीच की रूस में घटित घटनाओं से हुई। द्वितीय विश्व युद्ध के समय श्री कार 'द टाइम्सअखबार में सहायक संपादक के रूप में काम कर रहे थे। रूसी सेनाओं द्वारा चलाए गये फासीवाद विरोधी अभियान से एक बार फिर उनके मन में रूस के प्रति प्रशंसा भाव पैदा हुआ। स्तालिन को उन्होंने रूसी क्रांति की निरंतरता में देखना शुरू किया। श्री कार समाजवादी लोकतंत्र के पैरोकार थे। फासीवाद पर विजय के उस ऐतिहासिक माहौल में समाजवादी लोकतंत्र की आवश्यकता पर उन्होंने जोर दिया। समाजवादी लोकतंत्र को वह विशेषाधिकार संपन्न व्यक्तिवादी पूंजीवादी लोकतंत्र का उत्तर मानते थे। वे समता मूलक जन भागीदारी पर आधारित लोकतंत्र और योजनाबद्ध आर्थिक प्रक्रिया के पक्षधर थे। इसी को वे नया समाज समझते थे जिसकी ओर उनके अनुसार समाजवादी एवं पूंजीवादी समाजों को आगे जाना था। ई.एचकार का इस इतिहास में उनका उद्देश्य क्रांति की घटनाओं का विवरण प्रस्तुति के बजाय रूसी क्रांति से उत्पन्न सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था का विश्लेषण करना था। उन्होंने इंग्लैण्ड अथवा अमरीका के मानदण्डों से रूस का मूल्यांकन नहीं किया बल्कि नये मानदण्ड विकसित किये। इन्हें विकसित करने की प्रक्रिया को डेविस ने उपरोक्त पुस्तक की नयी भूमिका में प्रस्तुत किया है। डेविड के मुताबिक शुरू में कार की योजना लेनिन की मृत्यु के बाद तक का ही इतिहास लिखने की थी। आरम्भ में लेनिन के देहांत के समय की सामाजिक संरचना पर एक अध्याय होना था। बहरहाल एक बार लिखना शुरू किया तो योजना पूरी तरह से बदल गई। रूस के भविष्य को प्रभावित करने की लेनिन की क्षमता के कारण तीन खण्ड लेनिन को ही समर्पित हो गये जिनमें राजनीतिक व्यवस्थाआर्थिक व्यवस्था तथा वैदेशिक संबंधों पर विचार किया गया था। रूस का क्रांति के तुरंत बाद का 1920 का दशक उन्हें इस कदर रुचिकर प्रतीत हुआ कि 1923 से 1929 तक के समय के विवेचन में ग्यारह खण्ड लिखे गये। चौदहवें खंड के पूरा होते-होते कार की आयु 86 वर्ष की हो गई।

तीस साल का समय लगा और ढाई लाख शब्द खर्च हुए।

1926 से 1929, तक की आर्थिक व्यवस्था पर केंद्रीत नौवें और दसवें खण्ड डेविस की सहायता से लिखे गये थे और इसी दौर में विदेश नीति एवं तीसरा इण्टरनेशनल पर केंद्रित बारह से चौदहवें खंड तक के लेखन मेंतमारा ड्यूशर ने मदद की थी।

इस इतिहास में खण्डों का विभाजन विषय अनुसार किया गया था। लेकिन उससे अलग इस पुस्तक में कहानी को कालक्रमिक तरीके से प्रस्तुत किया गया है।

जिन लोगों ने श्री इ.एच. कार के चौदह खण्ड नहीं देखे हैं, वे उन्हें कथात्मक इतिहासकार मानते हैं। इस इतिहास के आठ खण्डों में घरेलू मोर्चे पर उदीयमान सोवियत व्यवस्था के विभिन्न कामों का विश्लेषण किया गया है। इनमें परिवार,कानून,साहित्य और धर्म के बारे में चर्चा करते हुए उनके विवेचन के साथ इनके संबंध को प्राथमिकता दी गयी है। लेनिन की नई आर्थिक नीति को रूस के अतीत के साथ समायोजन की कोशिश के बतौर प्रस्तुत किया गया है। कार के मुताबिक इसी पृष्ठभूमि में 1925 के अंत में 'एक देश में समाजवादका सिद्धांत विजयी हुआ। लेकिन 'अतीत की ओर यह वापसी सामान्य नहीं थी'। जन्म लेने वाले बच्चे के पालन-पोषण की सामाजिक जिम्मेदारी की जगह माता-पिता की प्राथमिक जिम्मेदारी की बात होने लगी थी। संतोषप्रद स्थिति यह थी कि बेघर बच्चों की देख-रेख करने वाली सामुदायिक संस्थाओं का अस्तित्व बना रहा और उनमें बच्चों का रखरखाव भी होता रहा। सामाजिक उथल-पुथल ने विवाह संबंधों को कानूनी मान्यता देने के मामले में उदार वातावरण बनाया था किन्तु ग्रामीण समाज में उनकी स्वीकृति व्यापक नहीं थी। सरकार और परिवार के बीच संबंधों के सामानांतर कानून के मामले में भी उठा पटक हुई। पहले कानून को ऐसा बुर्जुआ अवशेष समझा गया जो धीरे-धीरे समाप्त हो जायेगा।

सन् 1922 में सोवियत में कानून संस्थान की स्थापना हुई। इसके बाद आपराधिकनागरिककृषि और श्रम कानून बने। पूरे देश में सर्वोच्च न्यायालय के अधीन अदालतें स्थापित हुईं। न्याय प्रणाली में छोटे मोटे अपराधों के मामलों को शिक्षा और सुधार के जरिये मानवीय तरीके से निपटाने का लक्ष्य रखा गया । प्रति-क्रांतिकारी अपराधों के मामले में कठोर प्रक्रिया अपनायी जाती रही। नई आर्थिक नीति के बाद से खुफिया पुलिस की शक्ति पर कुछ रोक लगाई गई और  सारे मुकदमे एक ही अदालत में लाए जाने लगे। 1922 में 'राजकीय अपराधकी कोटि बनाई गयी जिसके तहत आने वाले अपराधों की सजा खुफिया पुलिस की जेल होती थी। यही प्रवृति सरकार और साहित्य के रिश्तों में भी प्रकट हुई। गृहयुद्ध के दिनों में विशेष सर्वहारा साहित्य विकसित करने की गंभीर और आग्रही कोशिशें हुईं। यह कोशिशें कहीं विवादों की सुर्खियां बनीं तो कभी व्यग्र एवं व्यथित करने वाली खबरों ने मानसिक दुविधा के तौर पर परेशान करती रहीं। लेनिन ने इस तरह की प्रवृत्तियों की सदैव निन्दा की। नई सरकार और धार्मिक संगठनों के बीच के रिश्ते भी जटिल थे। न केवल  बोल्शेविक बल्कि गैर कम्युनिस्टजारशाही विरोधी सभी समाजवादी रूसी पारंपरिक चर्च को प्रतिक्रिया का गढ़ मानते थे। चर्च विरोधी अभियान 1922-23 में चरम पर पहुंच गया। उनकी अधिकतम संपत्ति जब्त कर ली गयी। चर्च के बड़े अधिकारियों की गिरफ्तारी और सजा हुई।

साथ ही धार्मिक आस्था की व्यापकता को देखते हुए सुलह समझौते का रास्ता भी अपनाया गया। सोवियत समर्थक एक विद्रोही चर्च को प्रोत्साहन दिया गया और मुख्य चर्च के साथ सुलह की गयी। परिणाम स्वरूप चर्च के प्रमुख ने 1927 में सोवियत सत्ता के प्रति पूर्ण निष्ठा प्रकट करते हुए परिपत्र जारी किया। इसे कार ने समझदार की नरम नीति कहा है।

स्तालिन को इ.एच. कार ने अपने देश काल का उत्पाद माना है। आगे चल कर उन्हें स्तालिन के प्रति अपने रुख में ज्यादती का बोध हुआ। इसी प्रसंग में श्री कारयोजनाबद्ध अर्थतंत्र को क्रांतिकारी प्रेरणा का पुनर्जीवन मानते हैं। वे सत्ता के प्रशासनिक दुरुपयोग के विरोध में सोवियत कानून की रक्षा तथा पार्टी निष्ठा की पक्षधरता के लिए स्वयंसेवी संवाददाताओं की भूमिका को भी रेखांकित करते हैं। श्री कार समाज में उत्पन्न होने वाले विक्षोभ के समक्ष कानून में सुधार की तुलना में दंडित करने सोच में वृद्धि पर चिंता व्यक्त करते हैं। पुराने लोग इन चीजों को कृषक देश के उद्योगीकरण से जुड़ी समस्याओं को हल करने के तात्कालिक उपायों की तरह देख रहे थे, लेकिन श्री कार के अनुसार बाद में कठोरता की बुनियाद भी उसी समय पड़ गई थी। यह प्रक्रिया कानून के साथ ही अन्य क्षेत्रों में भी चली। 1928 में स्तालिन ने सांस्कृतिक क्रांति के आह्वान का समर्थन किया ताकि मजदूर वर्ग के सांस्कृतिक संसाधनों का विकास हो सके। इसके लिए बुर्जुआ और पेट्टी बुर्जुआ विचारधाराओं से संघर्ष करते हुए पार्टी के लेखक  संगठन को मजबूत करना था। कुछ ही समय बाद मायकोव्सकी ने आखिरी स्वायत्त साहित्यिक संगठन को  भंग कर दिया। धर्म के मामले में भी चर्च के साथ सुलह का माहौल कुछ ही महीनों तक रह सका। इसके बाद धर्म विरोधी अभियान में तेजी आई। शिक्षा मंत्री ने घोषित किया कि स्कूलों में आस्तिक अध्यापकों जगह धर्म निरपेक्ष दृष्टिकोण वाले अध्यापकों को वरीयता दी जाए। पार्टी के मुखपत्र प्रावदा में धार्मिक अवकास के विरोध में लेख लिए गये।

इन सभी अभियानों में पुरानी चीजों  को पूरी तरह नष्ट नहीं किया। उदाहरण के लिए,साहित्य में सर्वहारा साहित्य के चलते शास्त्रीय साहित्य को मिटाया नहीं गया। स्तालिन ने खेती के सामूहीकरण के दौरान जोश में आकर ग्रामीण चर्चों के विरुद्ध अभियान चलाने वालों की उन्हें छद्म क्रांतिकारी कह कर आलोचना भी की। साहित्य के मामले में भी 1932 में पार्टी से बाहर के   दायरे के लेखकों को साथ लिया गया। लेकिन इन अलग अलग प्रवृत्तियों को भी एक हद तकसोवियत नीति के प्रत्येक पहलू के सोत्साह समर्थन के अंदर ही काम करने की अनुमति थी।

सोवियत सत्ता की कुछ नीतियों में, जन शिक्षा की नीति सबसे महत्वपूर्ण है। बोल्शेविक का मानना था कि समूची आबादी को शिक्षित किया जाना चाहिए और उच्च शिक्षा भी विस्तारित की जानी चाहिए। बाद के इतिहासकारों को सोवियत सत्ता की यह उपलब्धि सर्वाधिक टिकाऊ प्रतीत हुई। श्री कार ने उल्लेख किया है कि नई सरकार ने सर्वहारा विशेषज्ञों को प्रशिडक्षित करने पर ध्यान दिया।

रूस में स्त्रियों की स्थिति के बारे में ई. एच. कार ने इतिहास में भरपूर चर्चा की है। प्रथम विश्व युद्ध और गृह युद्ध में पुरुषों के बड़े पैमाने पर मारे जाने के कारण आबादी में स्त्रियों की संख्या अधिक हो गयी। अन्य समाजवादी क्रांतिकारियों की तरह बोल्शेविक भी पुरुष एवं स्त्री की समानता में विश्वास करते थे। क्रांति के बाद जारी सभी आदेशों और घोषणाओं में बलपूर्वक इस सिद्धांत दोहराया गया है। क्रांति के बाद दस सालों में इस सिद्धांत को लागू करने के लिए ढेर सारे व्यवहारिक कदम उठाए गये। सबसे अधिक जोर स्त्रियों को रोजगार प्रदान करने पर दिया गया। उनके साथ पुरूषों के समान ही व्यवहार किया जाता था। इससे उनकी हैसियत उन्नत हुई। समान काम के लिए समान वेतन दिया गया। 1920 दशक के चुनावों में स्त्रियों के मतदान बढ़ाने के लिए अभियान चलाया गया। स्थानीय और राष्ट्रीय शासक संस्थान में उनकी संख्या बढ़ाई गई। इन सबके बावजूद ग्रामीण क्षेत्रों में पुरुष और स्त्री के बीच पारंपरिक श्रम विभाजन कायम रहा। प्रशासन एवं अर्थतंत्र में ऊंचे पदों तक उनकी पहुंच नहीं हो सकी।

1990 के दशक में क्रांति के बाद के दिनों के दस्तावेजों का संग्रहालय रूसी व विदेशी इतिहासकारों के लिए खोल दिया गया। जिन वर्षों का जिक्र ई.एच. कार ने किया है उस दौरान के राजनीतिक एवं प्रशासनिक निकायों के सभी ब्यौरे सार्वजनिक हो चुके हैं। इनसे तत्कालीन रूसी समाज के बारे में हमारी जानकारी बढ़ी है। इसके पहले सोवियत नीति निर्माण के बारे में बेहद कम सूचना उपलब्ध थी। बकौल पुस्तक लेखक गोपाल प्रधान, "फिर भी ई. एच. कार के विश्लेषण की प्रामाणिकता पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा है। कारण कि रूस में प्रेस की आजादी पर कोई प्रतिबंध नहीं था।"

शीत युद्ध के दौरान थोपी हुई हथियारों की होड़ और प्रभाव क्षेत्र के फैलाव की महत्वकांक्षा में उलझकर वैचारिक दृढ़ता के परिवर्धित विस्तार के कार्य भार को विस्मृत कर दिया गया। गोपाल प्रधान के अनुसार " इस प्रकार उस महान प्रयोग का दुखद अंत हुआ जो धरती और मनुष्य की बेहतरी के लिए लड़नेवालों को अपनी गलतियों और उपलब्धियों से शिक्षा के लिए आमंत्रित करता रहेगा। इस सदी में भी उस क्रांति के मूल्यों और विचारों की धमक विरोधियों के प्रचार में सुनी जा सकती है।'' प्रश्नांकित तथ्य यही है कि जो विचार पराजित हो गया होता है उसे नष्ट करने के लिए इतने परिश्रम और संसाधन की जरूरत नहीं पड़ती है।

इस प्रस्तुत लेख की शुरुआत मैंने अपने प्रिय साझा हिन्दोस्तानी (भारत-पाक-बांग्लादेश) लेखक        एजाज़ अहमद के लेख 'आज के जमाने में मार्क्सवाद का महत्वसे की। कुछ अपनी जानकारी की पुष्टि के लिएकुछ नवीनतम तथ्य और दस्तावेजी विवरण से, जिससे गोपाल प्रधान की यह किताब (रूसी क्रांति और साहित्य -संस्कृति ) लैस हैसे अपने इस प्रस्तुत लेख को इन तथ्य और विवरण के जरिये कुछ सार्थक बनाने की चेष्टा की। इंतजार हुसैन साहब और साथी गोपाल प्रधान जी प्रति सादर आभार।

 

(लेखक एक कवि और संस्कृतिकर्मी हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

 

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest