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पृथ्वी पर जीवन के तीन बड़े खतरे, जिन्हें 2021 में हल करना होगा 

नोम चोमस्की और विजय प्रसाद ने आज के समय में मनुष्यता और पृथ्वी के समक्ष उत्पन्न खतरों को लेकर बातचीत की, जिन पर दुनिया को तत्काल गौर किये जाने की दरकार है।
पृथ्वी पर जीवन के तीन बड़े खतरे, जिन्हें 2021 में हल करना होगा 

हमारी इस धरती पर तीव्र गति से हो रहे विखंडन के दुष्परिणामों को आज पहले से कहीं ज्यादा ही अनुभव किया जा रहा है। 

विश्व का अधिकांश भाग-चीन और कुछ अन्य देश-विषाणुओं के प्रकोप से त्रस्त है, जिन पर सरकारों की आपराधिक अक्षमता की वजह से अब तक काबू नहीं पाया जा सका है। ये धनी देशों की सरकारें विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) द्वारा जारी किये गए बुनियादी वैज्ञानिक मसौदे और वैज्ञानिक संगठनों की हिदायतों को गलत तरीके से ताक पर रख दिया है। उनका यह रवैया उनके दुष्टतापूर्ण व्यवहार को दर्शाता है। इस समय तो वायरस का परीक्षण करने, उससे संक्रमित होने वाले लोगों का पता लगाने और इसके बाद ऐसे व्यक्तियों को तय समय तक एकांत में रखने-अगर ये उपाय काफी न हों तो फिर थोड़े समय के लिए ल़ॉकडाउन करने-के अलावा और किसी तरफ ध्यान दिया नहीं जाना चाहिए। अगर ऐसा नहीं होता है तो यह सरकारों की घोर असावधानी है। यह और भी परेशान करने वाली बात है कि इन धनी देशों का बजाय “जनता का वैक्सिन” बनाने तथा उन्हें सार्वजनिक रूप से सब को उपलब्ध कराने के बजाय “वैक्सिन नेशनलिज्म” की नीति अख्तियार कर ली है। समूची मानवता पर आए इस अभूतपूर्व संकट की घड़ी में बौद्धिक सम्पदा कानूनों को निलम्बित करने का विवेक दिखाना होगा और पूरे विश्व के सभी लोगों के लिए वैक्सिन के विकास का तरीका तय करना होगा। हालांकि फिलहाल वैश्विक महामारी का प्रकोप ही हमारे मन-मस्तिष्क में बुरी तरह छाया हुआ है, किंतु इसके अलावा भी कई बड़े मसले हैं, जिनकी तरफ हमारा ध्यान जाना चाहिए,  जिनसे हमारी प्रजातियों तथा इस पृथ्वी ग्रह के लंबे समय तक बने रहने पर ही खतरा उत्पन्न हो गया है। इन खतरों में शामिल हैं:-

परमाणु हथियारों से होने वाला विनाश

परमाणु वैज्ञानिकों की जनवरी, 2020 में जारी एक बुलेटिन में डूम्सडे क्लॉक (प्रलय की घड़ी) को  आधी रात के पहले 100 सेकेंडस् पीछे किया गया। दरअसल, प्रलय की घड़ी में अब आधी रात का वक्त होने में 100 सेकंड से भी कम का समय बचा हुआ है। इस घड़ी में आधी रात का वक्त होने में जितना कम समय रहेगा, दुनिया में परमाणु युद्ध का खतरा उतना ही नज़दीक होगा। यह घड़ी 1945 में विकसित किए पहले परमाणु हथियार के दो साल बाद 1947 में बनाई गई थी, जो दुनिया में बढ़ रहे युद्ध के खतरे से आगाह करती है। बुलेटिन साइंस और सिक्यूरिटी बोर्ड प्रत्येक साल पर इसका आकलन करता है, जो यह तय करता है कि घड़ी में मिनट की सुई को आगे बढ़ाया जाए और अपनी गति में ही चलने दिया जाए।  

विश्व में विनाशक हथियारों की हदबंदी करने वाली संधियां पहले से ही काफी कुतर दी जा चुकी हैं क्योंकि दुनिया की महाशक्तियां लगभग 13,500 हज़ार परमाणु हथियारों  (इनके 90 फीसद हिस्से पर अकेले रूस और अमेरिका का कब्जा है) के जखीरों पर आसन जमा कर बैठी हुई हैं। इन हथियारों की पैदावार इस धरती को और भी ज़्यादा न रहने लायक बना सकती है। अमेरिकी नौ सेना ने कम-क्षमता के सामरिक डब्ल्यू 76-2 परमाणु हथियारों से अपने को पहले से ही लैस कर रखा है। इसलिए हमें अवश्य ही परमाणु निरस्त्रीकरण के वैश्विक एजेंडे की तरफ शीघ्रातिशीघ्र बढ़ना चाहिए। प्रत्येक वर्ष 6 अगस्त को हिरोशिमा दिवस मनाया जाता है, इसे अवश्य ही और जबर्दस्त सोच-विचार और प्रतिरोध का एक दिन बनाना चाहिए। 

पर्यावरण की तबाही 

2018 में बेहद चौंकाने देने वाली हेडिंग से एक वैज्ञानिक लेख प्रकाशित हुआ था : “सर्वाधिक  प्रवाल द्वीप 21वीं सदी के मध्य में रहने लायक नहीं रह जाएंगे क्योंकि समुद्र जल का बढ़ता स्तर लहरों की विकरालता से विनाशकारी बाढ़ ला देगा।” इसके लेखकों ने पाया कि सेशेल्स से लेकर मार्शल प्रायद्वीप गायब होने की दिशा में बढ़ रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ की 2019 की एक रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया था कि 10 लाख जानवरों और पृथ्वी की प्रजातियां विलुप्त होने की कगार पर हैं। इसमें जंगल में आग से होने वाली आपदाओं और प्रवाल भित्ति के गंभीर रूप से सफेद पड़ते जाने की प्रकिया से उत्पन्न होने वाले खतरों को भी मिला लें तो यह साफ हो जाएगा कि भविष्य की बात तो दूर है, खतरा हमारे वर्तमान की दहलीज पर आ कर बैठा हुआ है। ऐसे में बड़ी महाशक्तियों के लिए, जो जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल रोकने में बुरी तरह विफल हो गये हैं, यह आवश्यक है कि वे “सामान्य लेकिन भिन्न उत्तरदायित्वों” (कॉमन बट डिफ्रिनशिएटेड रिस्पॉन्सिबिलिटिज) के प्रति प्रतिबद्ध हों, जिसको 1992 में रियो डे जेनेरियो में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण और विकास सम्मेलन (यूएन कॉन्फ्रेंस ऑन एनवायरन्मेंट एंड डवलपमेंट) में स्थापित किया गया था।  यह कहा जा रहा है जमैका और मंगोलिया जैसे देश ने अपनी अद्यतन जलवायु योजनाओं को संयुक्त राष्ट्र के समक्ष 2020 के अंत में ही पेश कर दिया है,  जैसा कि पेरिस समझौते के तहत इसे अनिवार्य किया गया था। यह स्थिति तब है जबकि  जमैका और मंगोलिया जैसे देश  बहुत ही कम बल्कि अल्प मात्रा में वैश्विक कार्बन उत्सर्जन  करते हैं।   इस प्रक्रिया में विकासशील देशों की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए एक धन कोष गठित करने की बात तय हुई थी। यह कब की हवा-हवाई हो चुकी है, जबकि बाहरी कर्ज की राशि गुब्बारे की भांति फूलती जा रही है। यह घटना “अंतरराष्ट्रीय समुदाय” की अपेक्षित बुनियादी गंभीरता में कमी को परिलक्षित करती है

सामाजिक अनुबंध का नव उदार विखंडन 

उत्तरी अमेरिका और यूरोप में देशों ने अपने सार्वजनिक क्रिया-कलापों को अशक्त कर दिया है क्योंकि राज्य मुनाफाखोर के रूप में तब्दील हो गया है तथा निजी प्रतिष्ठानों द्वारा नागरिक समुदाय का वस्तुकरण कर दिया गया है। इसका मायने यह है कि विश्व के इस हिस्से में सामाजिक रूपांतरण का स्थान विकृत किया जा रहा है। भयानक सामाजिक असमानता श्रमिक वर्ग की सापेक्ष राजनीतिक कमजोरी का परिणाम है। यह इसकी कमजोरी है, जो अरबपतियों को अपनी नीति तय करने सक्षम बनाती है, जिसके परिणामस्वरूप भूख की दर बढ़ती है।  किसी भी देश को  उसके लिखे संविधान से नहीं तय करना चाहिए बल्कि उनके सालाना बजट से आंकना चाहिए।  उदाहरण के लिए अमेरिका को लें।  यह प्रतिवर्ष लगभग 1 ट्रिलियन डॉलर (अगर इसमें आप उसके अनुमानित खुफिया बजट को भी मिला दें)  अपनी युद्ध मशीनरी पर खर्च करता है जबकि इसका एक बेहद छोटा-सा हिस्सा लोगों की भलाई (जैसे कि स्वास्थ्य की देखभाल पर खर्च करता है,  साक्ष्य के रूप में मौजूदा महामारी)  पर खर्च करता है।  पश्चिमी देशों की विदेश नीतियां ज्यादातर हथियारों की बिक्री को वरीयता देती है: संयुक्त अरब अमीरात और मोरक्को इस शर्त पर इजराइल को मान्यता देने के लिए राजी हुए कि वे  क्रमशः 23 बिलियन डॉलर और 1 बिलियन डॉलर मूल्य के अमेरिकी निर्मित हथियार खरीदेंगे।  फिलिस्तीनियों,  सहरवइयों  और यमन लोगों के अधिकार इस समझौते में कोई तत्व ही नहीं हैं। क्यूबा, ईरान और वेनेजुएला समेत 30 देशों के विरुद्ध अमेरिका द्वारा लगाए गए अवैध प्रतिबंध इन देशों के लिए जीवन के सामान्य हिस्सा हो गए, यहां तक कि कोविड-19 के  सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट के दौरान भी।  यह राजनीतिक प्रणाली की विफलता है कि जब पूंजीपति खंडों में रहने वाले लोग अपनी सरकारों-जो कई अर्थों में केवल नाम-मात्र की लोकतांत्रिक है-पर इस आशय का जोर देने में विफल रह जाते हैं कि वह इस आपातकाल के संदर्भ में एक वैशिवक धारणा के अनुरूप काम करे।  भूख का बढ़ता सूचकांक पृथ्वी के अरबों लोगों के अपने अस्तित्व बचाए रखने के संघर्ष के फैलते क्षितिज को उद्घाटित करता है। (यह तब है जबकि चीन अपने यहां गरीबी का पूरी तरह से उन्मूलन करने और भूख को व्यापक रूप से खत्म करने में सक्षम है)।

परमाणु हथियारों से होने वाला विध्वंस  और  पर्यावरण-विनाश से प्रजातियों का होने वाला विलुप्तीकरण से इस धरती के दो खतरे हैं।  इस बीच,  नव उदारवादी प्रतिघातों, जिसने पिछली पीढ़ी को त्रस्त कर दिया था, के शिकार लोगों के लिए उनके अस्तित्व को बचाये रखने की अल्पकालिक समस्याएं इस कदर तारी हो जाती हैं कि हमारे बच्चों और नाती-पोतों की नियति से जुड़े बुनियादी सवाल दरकिनार हो जाते हैं। 

इस स्तर की वैश्विक समस्याएं  अपने सफलतापूर्वक निदान के लिए वैश्विक सहयोगी की अपेक्षा करती हैं।  तीसरी दुनिया के देशों के दबाव में,  1960 के दशक में, दुनिया की बड़ी ताकतें  1968 में परमाणु हथियारों के निरस्त्रीकरण (ट्रीटी ऑन दि नन- प्रोलिफरेशन ऑफ न्यूक्लियर वेपन्स)पर रजामंद हुई थीं।  हालांकि उन्होंने गहरे महत्व के नई अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था की स्थापना के घोषणा पत्र 1974 (डेक्लरेशन  ऑन दि इस्टैब्लिश्मन्ट ऑफ ए न्यू इंटरनेशनल इकनोमिक ऑर्डर ऑफ 1974) को खारिज कर दिया था।   ऐसे वर्ग एजेंडा को अंतरराष्ट्रीय मंच पर ले जाने वाली संतुलनकारी ताकतें वहां मौजूद नहीं हैं,  खासकर, पश्चिम के देशों में राजनीतिक गत्यात्मकता  किंतु विकासशील दुनिया के बड़े देशों (जैसे; ब्राजील, भारत, इंडोनेशिया, और दक्षिण अफ्रीका)  में सरकारों के चरित्रों में बदलाव आवश्यक हैं।  प्रजातियों का विलुप्तीकरण : परमाणु युद्ध से होने वाले विलुप्तीकरण, पर्यावरण विनाश से होने वाले विलुप्तीकरण और सामाजिक विघटनों से होने वाले विलुप्तीकरण-के ज़ोखिम की तरफ पर्याप्त और तत्काल ध्यान दिए जाने के लिए एक जबर्दस्त अंतर्राष्ट्रीयतावाद का तकाजा है। आगे के कठिन कार्य निश्चित रूप से हतोत्साहित करने वाले हैं लेकिन उन्हें स्थगित नहीं किया जा सकता है।

नोम चोमस्की एक महान भाषाविद्, दार्शनिक और राजनीतिक कार्यकर्ता हैं। वे एरीजोना विश्वविद्यालय में  भाषाविज्ञान के सम्मानित प्रोफेसर हैं। ‘क्लाइमेट क्राइसिस एंड द ग्लोबल ग्रीन न्यू डील :  द पॉलिटिकल इकोनॉमी ऑफ सेविंग दि प्लानेट’ उनकी हालिया प्रकाशित किताब है। 

विजय प्रसाद भारतीय इतिहासकार,  संपादक और पत्रकार हैं।  वह ग्लोबट्रॉटर के मुख्य संवाददाता और राइटिंग फ़ेलो हैं। वह लेफ्टवर्ड बुक्स के मुख्य संपादक और ट्रिकॉन्टिनेंटल : इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल रिसर्च के निदेशक हैं। वह चाइना के रेनमिन विश्वविद्यालय में चोन्ग्यांग इंस्टीट्यूट फॉर फाइनेंशियल स्टडीज में वरिष्ठ अप्रवासी अध्येता हैं।  उन्होंने 20 से अधिक किताबें लिखी हैं, जिनमें ‘दि डार्कर नेशंस’  और ‘दि पुअर नेशंस’ शामिल हैं।  ‘वाशिंगटन बुलेट्स’ उनकी  हालिया छपी किताब है, जिसकी भूमिका इवो मोरालेस आयमा ने लिखी है।

(यह आलेख ग्लोबट्रॉटर द्वारा प्रस्तुत किया गया था।)

 इस लेख को मूल रूप से अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें-

Three Major Threats to Life on Earth that we Must Address in 2021

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