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तिरछी नज़र: बुरा ना मानो...

होली के साथ एक बात प्रचलित है, 'बुरा ना मानो, होली है'। मुझे तो लगता है कि यह भी इसीलिए प्रचलित हुआ होगा क्योंकि पुराने जमाने में भी, आज ही की तरह, बात बात पर बुरा मानने की प्रथा रही होगी।
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फ़ोटो साभार: ट्विटर/@satishacharya

इसी हफ्ते होली थी। दिल्ली में रंग वाली होली बुधवार को अर्थात् आठ मार्च को मनाई गई थी। बुधवार की सुबह जब होली की शुभकामनाएं देने के लिए जयपुर में बसे एक रिश्तेदार को फोन किया तो पता चला कि वहां तो रंग मंगलवार को ही, एक दिन पहले, सात मार्च को ही खेल लिया गया था। सरकारी छुट्टी भी मंगलवार को ही थी। ऐसा ही कुछ अजमेर में रहने वाली दीदी ने भी बताया। तो रंग वाली होली किसी जगह मंगलवार को मनाई गई तो किसी जगह बुध को। अब जब हर त्योहार दो दो दिन मनाया जाता है तो होली उससे कैसे अछूती रह सकती है। 

होली के साथ एक बात प्रचलित है, 'बुरा ना मानो, होली है'। मुझे तो लगता है कि यह भी इसीलिए प्रचलित हुआ होगा क्योंकि पुराने जमाने में भी, आज ही की तरह, बात बात पर बुरा मानने की प्रथा रही होगी। तो लोगों ने, आम लोगों ने होली के दिन कहना शुरू किया होगा कि 'बुरा ना मानो, होली है'। मतलब कम से कम एक दिन तो बुरा मत मानो। कम से कम होली के दिन तो हमारी बात का, आम जनता की बात का, प्रजा की बात का बुरा मत मानो।

बुरा ना मानो, होली है कैसे प्रचलित हुआ, इस बारे में कुछ कहानियां सुनी सुनाई जाती हैं। परन्तु एक कहानी बहुत अधिक प्रचलित है जिस पर, थोड़े बहुत मतभेदों के साथ अधिकतर व्यंग्यकार सहमत हैं कि बुरा ना मानो, होली है इसी तरह से शुरू हुआ होगा। ये कहानी है, इस कहानी का भी बुरा मत मानना। कहानी इस प्रकार से है।

बात प्राचीन काल की है। जम्बूद्वीप के भारत खंड की। द्वापर युग या फिर त्रेता युग की। उस समय भारत वर्ष में सरकार जी नाम का एक प्रतापी राजा हुआ करता था। वह राजा हिरण्यकश्यप का वंशज था। उसके चाटूकार भाट उसे प्रह्लाद का वंशज भी बताते थे पर वह असलियत में हिरण्यकश्यप का ही वंशज था। मिथक की तरह उसी की तरह अहंकारी, उसी की तरह मदमस्त। उसी की तरह उसे भी बात बात पर मैं मैं करने की आदत थी। वह अपने को भगवान मानने लगा था और कहता था कि प्रजा मात्र उसी की भक्ति करे।

जो कोई उसे किसी और की भक्ति करते हुए दिखाई देता था, उसकी खैर नहीं थी। राजा इसका बहुत बुरा मानता था और उसके लिए तरह तरह के दंडों के प्रावधान थे। राजा की दंड देने की इकाइयां उस व्यक्ति के पीछे पड़ जाती थीं। इतिहास में तो यह तक दर्ज है कि सिर्फ वह ही नहीं, उसकी आने वाली पीढ़ियों तक को किसी और की भक्ति करने का दंड भुगतना पड़ता था। तो लोगों को साल के तीन सौ पैंसठ के तीन सौ पैंसठ दिन राजा का प्रकोप झेलना पड़ता था। 

लोग राजा के अत्याचार से, भ्रष्टाचार से, महंगाई से, गरीबी से, मतलब सभी चीजों से परेशान थे, दुखी थे। पर दिखाना यही पड़ता था कि वे बहुत खुश हैं। राजा जब अपने शाही रथ पर सवार हो सड़क पर अपनी प्रजा को दर्शन देने हेतु निकलता था तो भूखी, प्यासी, बदहाल प्रजा को उसके स्वागत के लिए सड़क पर घंटों खड़े रह मुस्कुराना पड़ता था। दुःख का भाव राजा को जरा भी पसंद नहीं था इसलिए प्रजा घंटों मुस्कुराने की प्रेक्टिस किया करती थी। 

राजा को आलोचना बिल्कुल भी बर्दाश्त नहीं थी। वह अपनी आलोचना का बहुत ही बुरा मान जाता था। उस काल में भी राजा की आलोचना देश की आलोचना मानी जाती थी। आपके मुंह से राजा की जरा सी आलोचना निकली नहीं कि राजा की पुलिस आपके दरवाजे होती थी। हर समय यह चिंता रहती थी कि कहीं राजा बुरा ना मान जाए। और बुरा मान जाए तो आपको जेल में ना डाल दे। बताया जाता है कि यह जोक उसी राजा के समय शुरू हुआ था कि कोई व्यक्ति चौराहे पर खड़ा हो कर बोल रहा था कि राजा चोर है, राजा बेईमान है, राजा भ्रष्ट है। जब उसे पकड़ कर थाने में लाया जाता था तो वह अपनी सफाई में कहता था कि वह तो दुश्मन पड़ोसी देश के राजा के बारे में बोल रहा था। और थानेदार उसे चार बेंत जड़ते हुए जेल में डाल देता था कि क्या हमें नहीं पता है कि कहां का राजा चोर है, बेईमान है, भ्रष्ट है। यह जोक वर्तमान समय में भी सुनाया जाता है।

तो जब प्रजा राजा के बात बात पर बुरा मानने से, बार बार बुरा मानने से परेशान हो गई तो उसे एक तरकीब सूझी। वह होली के त्यौहार को अपने चेहरे पर तरह तरह के रंग पोत कर, पुतवा कर, एक दूसरे से रंग लगवा कर और एक दूसरे को रंग लगा कर, निकलती और राजा की आलोचना करती। राजा की पुलिस रंग लगा होने की वजह से लोगों को पहचान नहीं पाती थी और पहचान न पाने के कारण कुछ नहीं कर पाती थी। जगह जगह लगे खूफिया कैमरे भी रंगों से पुते चेहरों को पहचानने में नाकाम रह जाते थे। राजा बुरा मान कर भी बुरा ना मान पाता था। साल के तीन सौ पैंसठ दिन में से एक दिन, होली के दिन लोगों को बुरा मानने के डर से निजात मिल गई। तभी से यह चल निकला 'बुरा ना मानो, होली है'।

आज भी देश में सरकार जी की सरकार है। सरकार जी चाहते हैं, प्रजा किसी भी बात का बुरा ना माने। ना कठुआ का बुरा माने और ना उन्नाव का। ना हाथरस का बुरा माने और ना कानपुर देहात का। ना मोब लांचिंग का बुरा माने और ना बलात्कार का। ना बुलडोजर का बुरा माने और ना अत्याचार का। और तो और महंगाई और बेरोजगारी का भी बुरा ना माने। पर सरकार जी किसी भी बात का बुरा मान जाएं। हम उनके बुरा करने का भी बुरा ना मानें पर वे उनके बुरा करने पर हमारे लिखने का, हमारे गाने का भी बुरा मान जाएं।

आप यह न सोचें कि होली दो दिन थी तो अब बुरा ना मानने के दिन भी दो होंगे। असलियत में तो अब दो दो दिन होली मना कर हमारे लिए तो बुरा ना मानने का एक मात्र दिन भी छीन लिया गया है। आप आठ मार्च को दिल्ली बैठ कर राजा के खिलाफ बोलेंगे तो असम पुलिस आ जाएगी क्योंकि वहां बैठे राजा को बुरा लग जाएगा। वहां तो होली सात को ही हो गई है ना। और अगर सात मार्च को जयपुर में राजा की आलोचना करोगे तो दिल्ली पुलिस पहुंच जाएगी क्योंकि दिल्ली में तो होली एक दिन बाद है। हमारे से तो बुरा ना मानने का एक दिन, होली का एक दिन भी छीन लिया गया है, दो दो दिन होली मना कर।

(लेखक पेशे से चिकित्सक हैं।)

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