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तिरछी नज़र: सबका मालिक एक!

सभी का मालिक एक है। क्या रेल, क्या रेलवे स्टेशन, क्या एयरपोर्ट और क्या पोर्ट, सबका मालिक एक है। जो कसर बाक़ी रह गई थी वह इस हफ्ते पूरी हो गई है...
Capitalism
प्रतीकात्मक तस्वीर।

इस देश में सबका मालिक एक है। क्या धरती, क्या जंगल, क्या नदिया, क्या समुंदर, क्या आकाश, क्या पाताल। सभी का मालिक एक है। क्या रेल, क्या रेलवे स्टेशन, क्या एयरपोर्ट और क्या पोर्ट, सबका मालिक एक है।

वह सड़कों का मालिक है। सरकार सड़कें बनाती है। अपने नहीं, जनता के पैसे से बनाती है। पर फिर उन्हीं सड़कों को सबके मालिक को बेच देती है। फिर और सड़क बनवाती है, जनता के पैसे से ही बनवाती है, फिर उन्हें भी सबके मालिक को बेच देती है। ऐसे ही सरकार सारे देश में सड़कों का जाल बिछाती है, एक्सप्रेस वे, हाई वे बनाती है, जनता के पैसे से बनाती है और फिर सबके मालिक को बेच देती है। सबका मालिक जनता के पैसे से बनी सड़क पर जनता से चलने का टोल टैक्स वसूलता है।

वह सबका मालिक ही नदियों का मालिक भी है। पहले वही नदी को गंदी करता है और फिर उसी सबके मालिक को नदी को साफ करने का ठेका मिलता है। उससे बस यह नहीं पूछा जाता है कि तुम नदी गंदी क्यों कर रहे हो और यह भी नहीं कि तुम्हारी नदी साफ करने की काबिलियत क्या है। वह नदी साफ करता भी नहीं है। बस वह नदी साफ करने के पैसे पाता है और नदी गंदी ही पड़ी रहती है। वह सबका मालिक बना रहता है।

समुंदर का मालिक भी वही है। समुंदर से तेल और गैस भी वही निकालता है। समुंदर के किनारे पोर्ट का मालिक भी वही है। वहां, उस पोर्ट पर बहुत सारी ड्रग्स (दवाएं नहीं, नशे का सामान), पकड़ी जाती हैं। दस बीस रुपए की नहीं, दस बीस हजार करोड़ रुपए की। पर उससे पूछा भी नहीं जाता है। वह सबका मालिक जो है। बस ड्रग्स का मालिक वह नहीं है।

सरकार जनता के पैसे से रेलगाड़ियां चलाती है, रेलवे स्टेशन बनवाती है। सरकार उसे साफ सफाई का, रख रखाव का ठेका दे देती है। पर वह रेलगाड़ियों का, रेलवे स्टेशनों का मालिक बन जाता है। उस साफ सफाई, रख रखाव के एवज में वह जनता से मनमाने पैसे वसूलने लगता है। इसी तरह से ही वह एयरपोर्टों का भी मालिक बन बैठा है। वह सबका मालिक जो है।

सबका मालिक अमीर है, सबसे अमीर। उसे देश के बैंकों ने सबसे ज्यादा क़र्ज़ दिया हुआ है। वह सबसे बड़ा कर्जदार है। देश के बैंकों ने देश की जनता के जमा पैसे से सबसे ज्यादा कर्ज उसे ही दिया हुआ है। बैंकों का जो लोन उसे दिया गया है वह लोन उस पैसे से दिया गया है जो देश की जनता ने बैंक में अपनी गाढ़ी मेहनत की कमाई से बचा कर जमा किया है। वह पैसा सरकार का नहीं है। फिर भी सबके मालिक को लोन जनता से पूछे बिना ही दे दिया गया है। अब वह जनता के पैसे का भी मालिक है।

ये बैंक जनता को उसके जमा धन पर इसलिए कम ब्याज देते हैं जिससे कि सबके मालिक को कम ब्याज पर लोन दिया जा सके। और कम ब्याज पर लोन उसे इसलिए नहीं दिया जाता है कि वह लोन चुका सके बल्कि कम ब्याज पर लोन उसे इसलिए दिया जाता है कि जब उसका लोन माफ करना पड़े, बट्टे खाते में डालना पड़े तो उस लोन की रकम कम हो। फिर भी लोन की रकम हजारों लाखों करोड़ में हो जाती है। वह सबका मालिक जो है। 

यह सबका मालिक पहाड़ों का भी मालिक है और पाताल का भी। वह मालिक है पहाड़ों के गर्भ को खोद कर निकलने वाले खनिजों का, पाताल से निकलने वाले खनिजों का। और सरकार यह ध्यान रखती है कि यह सब काम सबके मालिक को ही मिले और मिलता ही रहे। सरकार जी तो यह भी प्रयास करते हैं कि उसे ऐसा खनन का काम विदेशों में भी मिलता रहे। सबका मालिक सरकार जी का भी मालिक जो है।

इस सबके मालिक और सरकार जी में बहुत ही बनती है। सरकार जी बताते हैं कि वे सालों, तीस पैंतीस साल तक भीख मांग कर खाते रहे। पर वे सालों भीख देने वाली जनता का, बाद में वोट देने वाली जनता का अहसान नहीं मानते हैं। वे तो अहसान मानते हैं सबके मालिक का। वह सबका मालिक ही तो था जिसने सरकार जी को रैलियों के लिए, सभाओं के लिए सबकुछ सुलभ करवाया। और रैलियों में, सभाओं में पहुंचने के लिए हवाई जहाज उपलब्ध कराए। और सरकार जी जानते हैं कि इस सब के बिना वोट किसे मिलते हैं और कहां मिलते हैं। और सरकार जी अहसान फरामोश नहीं हैं। इसीलिए सबका मालिक सबका मालिक है।

लोकतंत्र के तीन स्तंभ माने हैं। सबका मालिक विधायिका और कार्यपालिका का तो मालिक बना ही बैठा है और जब ये दो साथ हों तो न्यायपालिका भी बेचारी बन जाती है। लोग पत्रकारिता अर्थात मीडिया को भी चौथे स्तंभ के रूप में शामिल कर लेते हैं। क्योंकि यही है जो बाकी के तीन स्तंभों पर लगाम कस सकता है, उनकी आलोचना कर सकता है, उनसे प्रश्न पूछ सकता है। पर सबका मालिक तो धीरे धीरे उसका भी मालिक बन बैठा है। जो कसर बाकी रह गई थी वह इस हफ्ते पूरी हो गई है। अब सबका मालिक वास्तव में सबका मालिक हो गया है। सबका मालिक एक है, और वह है अनियंत्रित, अनैतिक, अमानवीय पूंजीवाद।

(व्यंग्य स्तंभ तिरछी नज़र के लेखक पेशे से चिकित्सक हैं।)

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