तिरछी नज़र: कोरोना का वायरस बहुत ही खुश है!
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कोरोना की दूसरी लहर चल रही है। पिछले कुछ दिनों से मरीज चार लाख के आसपास चल रहे हैं। कभी कुछ कम, कभी कुछ ज्यादा। इस बीमारी के खिलाफ मरीज और डाक्टर मिल कर लड़ाई लड़ रहे हैं। लोग कह रहे हैं कि सरकार कहीं दिखाई नहीं दे रही है। वैसे भी बीमारी में मरीज होता है और डाक्टर। सरकार का क्या मतलब। लोग बाग तो वैसे ही सरकार को दोष दे रहे हैं। कुछ लोगों का तो काम ही बस यही है कि सरकार में दोष निकालते रहो।
कोरोना के खिलाफ लड़ाई में डाक्टर अपने मरीज को उसकी बीमारी के हिसाब से दवा दारू तो देता ही है, उसे पोष्टिक भोजन करने के लिए भी कहता है और समझाता है कि हिम्मत नहीं हारनी है। अपनी इच्छा शक्ति को मजबूत रखना है। कोरोना के बारे में अधिक नहीं सोचना है। नकारात्मक खबरें नहीं देखना है। घर पर आइसोलेशन में हो तो खबरें न देख मनोरंजक कार्यक्रम देखने हैं। वैसे भी बहुत सारे चैनलों पर समाचार भी मनोरंजन वाले कार्यक्रमों से भी अधिक मनोरंजक होते हैं।
हमारे देश में कोरोना के वायरस से भी बड़ा एक वायरस है। वह वायरस कोरोना के वायरस की तरह ही भीड़ को देख कर खुश होता है। वह वायरस कोरोना काल में भी भीड़ इकट्ठी करता है और भीड़ देख कर अभीभूत हो जाता है। वह वायरस खुश हो कहता है 'जिधर देखो लोग ही लोग दिखाई दे रहे हैं'। वह वायरस भीड़ देख सोचता है कि उसका प्रचार प्रसार हो रहा है। उस बड़े वायरस से कोरोना का छोटा सा वायरस बहुत ही खुश है। जब वह वायरस अपना प्रचार कर रहा होता है तो वास्तव में प्रसार तो कोरोना के वायरस का ही हो रहा होता है।
लेकिन कोरोना के मामले में यह बड़ा वाला वायरस डाक्टर की एक सलाह तो जरूर ही मानता है। कोरोना पर बिल्कुल भी ध्यान नहीं देता है। कोरोना के बारे में बिल्कुल भी नहीं सोचता है। कोरोना की खबरें उस तक अगर पहुंचती भी हैं तो उन्हें बिना देर किए डस्ट बिन में डाल देता है। नकारात्मक खबरें तो बिल्कुल ही नहीं देखता, सुनता या पढ़ता है। नकारात्मकता उसे बिल्कुल भी पसंद नहीं है। जलते शवों में भी मनोरंजन ढूंढ उत्सव मनाने की बातें करता है।
उस बड़े वायरस में सकारात्मकता इतनी है कि उसने कोरोना के संक्रमण से अपना ध्यान पूरी तरह से हटा रखा है। वह 'काम की बात' से ज्यादा 'मन की बात' करता है। वह आज भी 'मन की बात' में कोरोना के अलावा कोई भी बात कर सकता है। वह या तो कोई साधु है, या फिर योगी या फकीर है। वह सचमुच ही कोई पहुंचा हुआ तपस्वी है जिसकी तपस्या को कोरोना जैसी महामारी भी भंग नहीं कर पा रही है।
उस बड़े वायरस ने जरूर ही अपने बचपन में साबरमती के किनारे बालू और रेत के भव्य किले बनाये होंगे (उसके बचपन का वृतांत लिखने वाले लेखक जरा ध्यान दें)। इसीलिए उसने कोरोना काल में भी अस्पतालों में बिस्तर बढ़ाने, आक्सीजन की सप्लाई दुरस्त करने जैसे अस्थायी काम करने की बजाय राम मंदिर का शिलान्यास करने, नये संसद भवन और प्रधानमंत्री आवास को बनाने जैसे स्थायी काम करने पर जोर दिया। उसे पता है कि नाम स्थायी कामों से ही अमर होता है।
उस बड़े वायरस में अमर होने की बहुत ही अधिक अभिलाषा है। उसे पता है कि अमर होना है तो नये बने संसद भवन के शिलालेख पर नाम होना चाहिये, राम मंदिर की पट्टिका पर नाम होना चाहिये। वह जानता है कि आने वाली पीढ़ियाँ संसद भवन के शिलालेख पर और मंदिर की पट्टिका पर नाम पढ़ सदियों तक उसे याद रखेंगी। कोरोना को कैसे मिसमैनेज किया, लोग यह तो साल, दो साल में भूल जायेंगे पर राम मंदिर और नई संसद को लोग दशकों तक याद रखेंगे।
कोरोना के छोटे वायरस को यह बड़ा वायरस इसलिए भी पसंद है क्योंकि यह बड़ा वायरस बहुत ही अधिक लोकतांत्रिक है। लोकतंत्र की विश्व सूची में हम भले ही गिरते जा रहे हों पर चुनाव कराने में हम सबसे आगे हैं। इस बड़े वायरस को चुनाव बहुत ही पसंद हैं और कोरोना के सूक्ष्म वायरस को भी चुनाव बहुत पसंद हैं। जब पहली लहर थी, बिहार और झारखंड में चुनाव थे और अब दूसरी लहर में भी पांच पांच राज्यों में चुनाव थे। कोरोना का यह छोटा सा वायरस अपने बड़े भाई, बड़े वायरस की वजह से ही इतना फैल पाया है। इसीलिए ही यह कोरोना का यह वायरस बड़े वायरस से बहुत ही खुश है।
(इस व्यंग्य स्तंभ के लेखक पेशे से चिकित्सक हैं।)
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