Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

हिमालयी क्षेत्र में परिवहन का बुनियादी ढांचा: दुर्घटनाएं ही दुर्घटनाएं

आज तक कोई नहीं जानता है कि पहाड़ी हिमालयी क्षेत्र में निर्माण के लिए किस तरह के प्रोटोकॉल का पालन किया जा रहा है, जबकि ये हिमालयी पहाड़ जो काफी नये हैं, अपनी भूरचना में काफ़ी भंगुर हैं।
Tunnel Uttarkashi
फ़ोटो : PTI

हिमालयी क्षेत्र में एक और राजमार्ग परियोजना, इस बार यह सरकार की फ्लैगशिप चार धाम परियोजना का हिस्सा है, एक और सुरंग और एक और बड़ी दुर्घटना। खुशकिस्मती की बात है कि इन पंक्तियों के प्रेस में जाने तक, सत्रह दिन के इंतजार के बाद, मजदूर सुरक्षित सुरंग से बाहर निकल आए। इकतालीस मजदूर, सत्रह दिन तक एक 4.5 किलोमीटर लंबी रेलवे सुरंग में फंसे रहे थे। यह सुरंग ब्रह्मखाल-यमुनोत्री खंड में सिलक्यारा और दंदलगांव के बीच बन रही है।

मजदूर सुरंग में उस समय फंस गए, जब सुरंग के मुहाने के निकट उसकी छत आ गिरी। यह घटना रविवार, 11 नवंबर 2023 को सुबह तड़के हुई। मजदूरों की खुशकिस्मती रही कि वे सुरंग के ढहे हुए हिस्से और मलबे के पीछे थे और उनके पीछे, सुरंग के बंद सिरे की ओर, दो किलोमीटर की जगह थी। उनके चलने-फिरने में मुश्किल नहीं थी और मलबे में से होकर डाले गए लोहे के पतले पाइप के जरिए उन्हें आक्सीजन तथा पानी तथा पोषण-सघन सूखा राशन, जैसे मटर, सूखे फल आदि सुरंग में बंद होने के कुछ ही बाद से उन तक पहुंचाए जा रहे थे। बाद में एक कहीं चौड़े पाइप के जरिए इस मामले में स्थितियां और बेहतर बनाना भी संभव हुआ और अंतत: रिहाई से पहले, उनका बाहर अपने परिवारवालों से बात करना ही संभव नहीं हुआ, उन तक ताजा खाना पहुंचाना भी संभव हो गया था।

शुरुआत में सार्वजनिक रूप से उपलब्ध जानकारियों और प्रेक्षकों से मिली जानकारियों के अनुसार, ऐसा लगता है कि इस मामले में बचाव की पर्याप्त तैयारियां नहीं थीं, जबकि सुंरग निर्माण के काम में हमेशा ही ऐसी संभावना का पूर्वानुमान कर के और उसके लिए तैयारी करके चलना होता है। दुर्घटना के करीब 50 घंटे बाद ही, हरिद्वार से एक अपेक्षाकृत हल्की ऑगर ड्रिलिंग मशीन, पाइपों के साथ लायी जा सकी थी क्योंकि सुरंग निर्माण स्थल पर ऐसी कोई मशीन उपलब्ध ही नहीं थी। शुरू में यह सोचा जा रहा था कि सुरंग में गिरे हुए मलबे में सुराख बनाए जाएं और उनसे होकर 900 मिलीमीटर या करीब तीन फुट व्यास के पाइप डाले जाएं, जिससे सुरंग में फंसे मजदूर रेंगकर पाइप के जरिए बाहर निकल सकें।

लेकिन, यह ऑगर ड्रिल मशीन शुरूआत से ही समस्याएं खड़ी कर रही थी। अव्वल तो उसे सही तरीके से जमीन पर जमाया ही नहीं जा सका क्योंकि लगातार ऊपर से ताजा मलबा गिर रहा था तथा एक के बाद एक, जमीन धंसने के प्रकरण हो रहे थे। यह इस पहाड़ की ही अस्थिर प्रकृति को दिखाता था और एक हद तक इस अस्थिरता को खुद सुरंग खुदाई के काम ने तेज किया था।

कार्यस्थल पर मौजूद लोगों ने यह भी बताया कि ड्रिलिंग का काम बहुत ही सावधानी से करना जरूरी था क्योंकि इस इलाके में चट्टानें और मिट्टी बहुत कमजोर हैं। जाहिर है कि यहां ड्रिलिंग करने के नियम-कायदे तय करते समय और ड्रिलिंग की तैयारियां करते समय यह हिसाब में लिया जाना चाहिए था।

क्या यह किया गया था?

इसके ऊपर से छोटी ऑगर ड्रिलिंग मशीन, सामने खड़ी चुनौती के हिसाब से नाकाफी साबित हुई और एक कहीं भारी ड्रिलिंग मशीन मंगवानी पड़ी। इस मशीन को अलग-अलग हिस्से कर के, वायु सेना के हरकुलिस सी-130जे विमान से नजदीकी हवाई अड्डों तक और वहां से सडक़ के रास्ते दुर्घटनास्थल तक लाना पड़ा। इसके बावजूद, इस तरह के सवाल अपनी जगह ही बने हुए थे कि क्या इस कहीं भारी ड्रिंलिंग मशीन से ड्रिंलिंग का काम, इस पहाड़ में और ज्यादा अस्थिरता पैदा नहीं करेगा और पहले से ज्यादा भूस्खलनों तथा मलबे के गिरने का कारण नहीं बनेगा? क्या टनल की खुदाई का काम शुरू होने से पहले इस सेक्शन पर समुचित भूगर्भीय संरचना संबंधित तथा भू-तकनीकी अध्ययन किए गए थे? और क्या ये रिपोर्टें उपलब्ध हैं? तेरहवें दिन, सुरंग में गिरे मलबे को पार करने से करीब आठ मीटर पहले, भारी ऑगर मशीन बैठ गयी और इस एप्रोच से मशीन के जरिए कटाई काम छोडऩा पड़ा। यहां से आगे आठ मीटर के करीब मलबे में से पाइप के अंदर से मैनुअली काटकर रास्ता बनाना पड़ा। इस काम को रैट होल माइनर कहलाने वाले असुरक्षित, अवैध खुदाई करने वाले गरीब मजदूरों ने, सभी अनुमानों के मुकाबले कहीं तेजी से कर दिखाया और सुरंग की कैद से मजदूरों को आजाद कराया। इसके समानांतर, टनल के ऊपर से ड्रिल कर के नये रास्ते से मजदूरों तक पहुंचने या फिर सुरंग की दूसरी बंद तरफ से मजदूरों तक पहुंचने पर भी काम चल रहा था।

परियोजनाओं और निर्माण टेक्नीक में गंभीर खामियां

पिछले कुछ वर्षों में विभिन्न सिविल सोसाइटी संगठनों ने, थिंक टैंकों ने तथा विभिन्न प्रासांगिक क्षेत्रों के प्रौद्योगिकी विशेषज्ञों ने, उत्तराखंड तथा हिमाचल प्रदेश में चारधाम राजमार्ग परियोजना, जल विद्युत परियोजनाओं और अन्य बड़ी बुनियादी ढांचा परियोजनाओं को लेकर, अनेकानेक सवाल उठाए हैं। इस छोटे से लेख में तो इन सब की संक्षिप्त समीक्षा तक नहीं दी जा सकती है। यहां हम इनमें से कुछ महत्वपूर्ण नुक्तों का सार-संक्षेप रखने तक ही खुद को सीमित रखेंगे।

प्रतिष्ठित विशेषज्ञों ने, जिसमें कुछ विशेषज्ञ लेबोरेटरीज तथा प्रतिष्ठित अकादमिक संस्थान भी शामिल हैं, बार-बार यह रेखांकित किया है कि ऐसी ज्यादातर परियोजनाओं में, अपनी डिजाइन में या निर्माण के लिए प्रयोग की जाने वाली प्रौद्योगिकी के चयन में, समुचित रूप से इसे हिसाब में ही नहीं लिया जाता है कि ये हिमालयी पहाड़ जो काफी नये हैं, अपनी भूरचना में कितने भंगुर हैं। दोषपूर्ण तरीके से सड़कों के लिए कटाई की जाती है और पहाड़ी ढलानों पर तय सीमा से ज्यादा खड़ी कटाइयां की जाती हैं, जो पहाड़ी ढलानों पर भूस्खलनों के खतरे को बहुत बढ़ा देती हैं। सुरंग निर्माण तथा सड़क के लिए पहाड़ की कटाई के काम में बहुत बड़े पैमाने पर प्रतिबंधित विस्फोटकों का उपयोग किया जाता है। बहुत ही लापरवाही से निर्माण का मलबा नीचे से बहने वाली नदियों में डाल दिया जाता है, जिससे नदी दल ऊपर उठते हैं और नदियों के अपने तटों को बाढ़ में बहाने की संभावनाएं बहुत बढ़ जाती हैं, आदि, आदि अनेक मुद्दे हैं।

वर्तमान दुर्घटना के मामले में भी और 900 किलोमीटर की वृहत्तर चारधाम राजमार्ग परियोजना के मामले में भी, ये सभी मुद्दे बार-बार उठाए गए हैं। पर्यावरण के आधार पर इस वृहत्तर परियोजना के विरोध को धता बताने के लिए और अनेक विशेषज्ञों के अनुसार तो बदनीयती से, केंद्र सरकार ने इस पूरी परियोजना को 53 अलग-अलग टुकड़ों में तोडक़र रखा था, ताकि इसके मामले में पर्यावरण प्रभाव आकलन (ईआइए) की शर्त को ही अनावश्यक बनाया जा सके!

हमारे पाठकों को याद होगा कि किस तरह इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय में एक लंबा नाटक चला था, जब उसकी अपनी विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट और राजमार्ग के अंधाधुंध चौड़ीकरण के खिलाफ उसकी सिफारिशों को, परियोजना के पक्ष में लोगों को भरकर बनायी गयी एक कमेटी ने इस आधार पर खारिज कर दिया था कि यह लाखों लोगों की पवित्र चार धामों की तीर्थ यात्रा करने की आकांक्षाओं का सवाल है और राष्ट्रीय सुरक्षा का सवाल है, ताकि उपकरणों को चीन से लगने वाली सीमा तक पहुंचाया जा सके। इन दलीलों के आगे सुप्रीम कोर्ट ने भी हाथ खड़े कर दिए थे।

आज तक कोई नहीं जानता है कि पहाड़ी हिमालयी क्षेत्र में निर्माण के लिए किस तरह के प्रोटोकॉलों का पालन किया जा रहा है। क्या देश में किसी भी विभाग या एजेंसी ने इस क्षेत्र के लिए, सख्ती से पालन के लिए कोई निर्माण संबंधी प्रोटोकॉल तैयार किये हैं? क्या कोई भी स्वतंत्र निकाय है जो इस तरह के नियमनों की निगरानी कर रहा हो तथा उनका पालन करा रहा हो, जैसाकि मिसाल के तौर पर यूरोपीय यूनियन में होता है? क्या परियोजनाओं की डिजाइनिंग तथा उनके परिपालन से पहले, समुचित भू-संरचनात्मक अध्ययन कराए जाते हैं?

वर्तमान आपदा के मामले में उत्तराखंड सरकार ने एक जांच कमेटी गठित कर दी है, जिसमें कई सरकारी शोध तथा अकादमिक संस्थाओं को रखा गया है। यह कमेटी निश्चित रूप से दुर्घटना के सभी संभव कारणों की ओर इशारा करेगी, लेकिन इस तरह से कि करीब-करीब सभी को इसके लिए जिम्मेदारी से बरी किया जा सके। इसी प्रकार, जोशीमठ के भूधंसाव के मामले में विभिन्न अनुशासनों के संस्थागत विशेषज्ञों से एक अध्ययन कराया गया था, जिसमें उन्होंने अपने-अपने अनुशासन के सीमित परिप्रेक्ष्य से रिपोर्ट पेश की थी। लेकिन, यह अंधों के हाथी वाला मामला साबित हुआ, जिसमें टुकड़ों-टुकड़ों में सभी कुछ न कुछ बता रहे थे, पर कुल मिलाकर हाथी के आस-पास तक नहीं पहुंच सके थे।

इस तरह की लापरवाही से चलायी जा रही परियोजनाओं के कुपरिणाम, जिन्हें समुचित जांच-परख तथा सुरक्षा बचावों के बिना, अंधाधुंध रफ्तार से बनाया जा रहा है, पहले ही इस हिमालयी क्षेत्र में अनेकानेक दुर्घटनाओं के रूप में सामने आ चुके हैं। तपोवन-विष्णुगाड हाइड्रो पावर परियोजना, जिसे बाढ़ ने नष्ट ही कर दिया था और जोशीमठ में अधिकांश इमारतों का धंसना, इन दुष्परिणामों की कड़ी चेतावनियां हैं।

विनाशकारी विकास दृष्टि

शायद इस तकनीकी विफलताओं से भी बदतर है, विकास की दृष्टि जो इनके पीछे काम कर रही है। इस विचार पर निश्चित रूप से सवाल उठाए जाने चाहिए कि पहले अपने प्राकृतिक रूप में सुरक्षित रहे, दूर-दूराज के ठिकानों तक, जिनकी श्रद्धालुओं की नजरों में पवित्रता भी शायद इसमें निहित रही है कि वहां तक पहुंचना मुश्किल होता था, चमचमाते राजमार्ग बनाए जाने चाहिए, जिनसे होकर लाखों श्रद्धालु, बहुत तेज रफ्तार से इन सभी स्थलों तक पहुंच सकें। विकास की यही दृष्टि, जो धार्मिक पर्यटन के लिए पूरी तरह से व्यापार-केंद्रित ईकोसिस्टम को सबसे ऊपर रखती है, इन जगहों के स्थानीय निवासियों की स्थानीय अर्थव्यवस्था, आजीविकाओं, पर्यावरण और जीवन शैली के लिए भी, खतरा पैदा कर रही है। बड़े तीर्थ स्थानों के रास्ते में पड़ने वाले नगरों में पहले ही जरूरत से ज्यादा भीड़-भाड़ हो गयी है और यह जोशीमठ के धंसाव जैसे मामलों की ओर ले जा रही है, जो कि दूसरी भी अनेक जगहों पर देखने को मिल रहा है।

बेहिसाब निर्माण ने पर्वतीय धाराओं की पारिस्थितिकी को पूरी तरह से छिन्न-भिन्न कर दिया है। इसके चलते सभी पर्वतीय नगरों में पानी की भारी तंगी पैदा हो गयी है, जबकि ये नगर पहले ही अपनी आबादी भार उठाने की क्षमता से ज्यादा बोझ उठा रहे हैं। यह शिमला, मनाली, मसूरी आदि, आदि सभी प्रमुख हिल स्टेशनों के मामले में भी हो रहा है। यूरोप के अनेक प्रमुख पर्यटन केंद्रों, जैसे वेनिस, एम्स्टर्डम आदि ने इसे पहचाना है और पर्यटकों को हतोत्साहित करने के उपाय करने शुरू कर दिए हैं।

बेशक, पहाड़ों में रहने वालों को भी विकास चाहिए, उन्हें भी अपने नगरों में बेहतर सुविधाएं चाहिए और वे ज्यादा पैसा भी कमाना चाहेंगे। लेकिन, क्या इसके लिए कोई वैकल्पिक परिकल्पना संभव नहीं है? कहीं ज्यादा विकेंद्रीकृत ठिकाने, बेहतर होम स्टे, एक ठिए से दूसरे ठिए के लिए सुरक्षित तथा सुविधाजनक परिवहन; इस सबसे पर्यटकों को भी स्थानीय पर्यावरण तथा संस्कृति से परिचय पाने और उनके बीच रहने का मौका भी मिल सकेगा। क्या पर्यटकों को बंद सुरंगों से गुजारते हुए, जल्दी से जल्दी गंतव्य स्थानों तक पहुंचाया जाना ही जरूरी है या उन्हें रास्ते के सारे प्राकृतिक सौंदर्य को देखते-देखते गंतव्य तक पहुंचना चाहिए, भले ही इसके लिए उनकी यात्रा कुछ लंबी ही क्यों न होती हो।

चारधाम रेलवे के ख़तरे

बहरहाल, फिलहाल तो मौजूदा निजाम में हम निर्माण और विनाश, एक साथ दोनों की ही अंधाधुंध दौड़ में लगे हुए हैं।
और अभी जहां हम चारधाम राजमार्ग परियोजना के विभिन्न पहुलुओं की छानबीन कर रहे हैं, एक और मेगा परिवहन परियोजना शुरू हो गयी है। यह परियोजना है, चारधाम रेलवे परियोजना जिसके जरिए ऋषिकेश और देहरादून को घाटी के विभिन्न नगरों से होते हुए गंगोत्री, यमुनोत्री, केदारनाथ तथा बद्रीनाथ के बहुत नजदीक के ठिकानों से जोड़ा जाएगा। इस रेल प्रणाली का निर्माण शुरू हो चुका है, जिसमें कुल 328 किलोमीटर लंबा ट्रैक होगा, 21 नये रेलवे स्टेशन होंगे, 59 पुल होंगे और 61 सुरंगें होंगी। कुल 279 किलोमीटर लंबे रेल मार्ग का निर्माण कार्य चालू हो चुका है।

क्या ये ‘‘देवभूमि के पर्वत’’ इस तमाम अनियंत्रित निर्माण को झेल पाएंगे? क्या पहाड़ी नगर और खुद पहाड़, उन दसियों लाख पर्यटकों या चाहें तो उन्हें तीर्थयात्री ही कह लें, का बोझ झेल पाएंगे, जो इन राजमार्गों और रेलवे के जरिए वहां जा धमकने वाले हैं?

(लेखक दिल्ली साइंस फोरम और ऑल इंडिया पीपुल्स साइंस नेटवर्क से जुड़े हैं। व्यक्त विचार निजी हैं।) 

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest