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‘ट्रायल बाय फायर’- बदलाव की ज़िद और संघर्ष की कहानी है

सीरीज नीलम और शेखर कृष्णमूर्ति की किताब पर आधारित है जो उन्होंने अपने संघर्ष को दस्तावेज़ करने के क्रम में लिखी है। दिलचस्प है कि आधी से ज़्यादा दिल्ली बनाने का दावा करने वाले व्यापारी अंसल ब्रदर्स इस सीरीज के प्रसारण पर रोक लगाने के लिए अदालत तक गए।
Trial by Fire
फ़ोटो साभार: IMBD

16 जून 1997 को घटित हुई उपहार सिनेमा त्रासदी ने भारतीय कानून व्यवस्था को कई मायनों में ठीक उसी तरह प्रभावित किया जिस तरह 2 और 3 दिसंबर 1984 की दरमियानी रात घटित हुई भोपाल गैस त्रासदी और बाद में नर्मदा बचाओ आंदोलन ने किया। इन घटनाओं में नागरिक सुरक्षा को लेकर लगभग   अ-गंभीर और नज़रअंदाज़ किए जाने की हद तक मौजूद भारतीय न्याय व्यवस्था को बदलने के लिए नींव का काम किया।

हाल ही में ओटीटी प्लेटफार्म नेटफ्लिक्स पर आयी वेब सीरीज ‘ट्रायल बाय फायर’ इसी शीर्षक से 2016 में  प्रकाशित नीलम और शेखर कृष्णमूर्ति की किताब पर आधारित एक वेब सीरीज है जिसमें यह बताया गया है उनके संघर्ष ने कैसे भारतीय न्यायपालिका के नज़रिये को बदला है।

उपहार सिनेमा त्रासदी कानूनी भाषा में ‘नेग्लीजेंस’ का ऐसा पुख्ता उदाहरण है जिसे कानून की पढ़ाई कर रहे विद्यार्थियों को पढ़ाया जाता है। लगभग 21 सालों के सतत संघर्ष के बाद इस सिनेमा के मालिकान अंसल ब्रदर्स को आखिरकार सज़ा मिलती है। हालांकि उन्हें मिली सज़ा को पीड़ितों को मिले इंसाफ की तरह देखे जाने के बहुत ठोस आधार नहीं देती। इंसाफ के लिए संघर्ष की प्रेरणा ज़रूर देती है। यह साबित करती है कि इस देश में कानून की रक्षा और उसकी इज्ज़त न्यायिक संस्थाओं की तुलना में एक आम नागरिक ज़्यादा करता है। वह इंसाफ पर भरोसा करता है और उसे पाने के लिए अपने दायित्व निभाता है।

नीलम कृष्णमूर्ति और शेखर कृष्णमूर्ति अगर इस मामले में अथक संघर्ष नहीं करते तो न केवल इस मामले में बल्कि पूरे देश में नागरिक सुरक्षा के उपायों को लेकर कानूनी प्रावधान सख्त न हुए होते। यह इंसाफ पाने की उनकी ज़िद ही थी जो उन्हें दो दशकों से ज़्यादा अवधि के लिए इस संघर्ष में मुब्तिला रख सकी।

यह एक फिक्शन नहीं है बल्कि एक भोगा हुआ यथार्थ है। नीलम और शेखर के दोनों बच्चे उज्ज्वल और उन्नति इस त्रासदी का शिकार बने और फिर जैसे इस दंपत्ति को सब कुछ खोकर जीने का नया लक्ष्य देते गए। वो किन परिस्थितियों से गुजरे होंगे जिनका पूरा संसार यक-ब-यक लुट गया। इस खोने को इन दोनों ने कैसे समाज और देश की व्यवस्था के लिए एक कुर्बानी की तरह लिया और जिया, यह देखना एक साथ तकलीफ़देह और प्रेरणास्पद तो है ही लेकिन खुद इन्हें इंसाफ की इस डगर पर किस किस तरह से यातनाओं का शिकार होना पड़ा देखने से ज़्यादा महसूस करने के लिए हमें तैयार करता है।

सीरीज के कई पहलू हैं लेकिन इसका कानूनी पहलू सबसे महत्वपूर्ण है और जिसे लेकर सीरीज का अधिकांश हिस्सा बनाया गया है। सीरीज नीलम और शेखर कृष्णमूर्ति की किताब पर आधारित है जो उन्होंने अपने संघर्ष को दस्तावेज़ करने के क्रम में लिखी है। दिलचस्प है कि आधी से ज़्यादा दिल्ली बनाने का दावा करने वाले व्यापारी अंसल ब्रदर्स इस सीरीज के प्रसारण पर रोक लगाने के लिए अदालत तक गए। आज 25 सालों के बाद भी वो नहीं चाहते कि उपहार कांड की सच्चाई समाज के सामने आए। हालांकि अदालत ने उनकी इस अपील को ठुकरा दिया और सीरीज के प्रसारण पर रोक नहीं लगाई।

नीलम और शेखर की किताब 2016 में प्रकाशित हुई थी - त्रासदी के 15 सालों बाद। तब तक अंसल ब्रदर्स को सज़ा मुकर्रिर नहीं हुई थी। इस पर आधारित वेब सीरीज के जरिये इसकी  पहुंच अब हर तबके तक हो रही है और चूंकि इसकी भाषा अब हिन्दी है इसलिए भी अंसल ब्रदर्स को यह नागवार गुज़र रहा है कि उनकी मुनाफे की हवस का पर्दाफाश हो जाएगा।

जिसे इस पूरी सीरीज में और किताब में कानूनी भाषा में ‘नेग्लीजेंस’ यानी लापरवाही कहा गया है उसे ही नीलम और शेखर ‘मुनाफे की हवस’ कहते हैं और स्थापित करते हैं जो भले ही कानूनी भाषा में नेग्लीजेंस ही बना रहा। लेकिन यह किताब और अब यह सीरीज यह स्थापित करने में कामयाब होती है कि किसी एक पूंजीपति के अथाह मुनाफे के लिए कैसे पूरा तंत्र उसका मददगार हो जाता है और त्रासदी के बाद भी अंत अंत तक उसकी मदद करता है।

उपहार सिनेमा की इमारत में कुछ इस तरह की गलतियां की गईं थी जिन्हें आम तौर पर स्वीकार नहीं किया जा सकता था। जैसे पार्किंग बेसमेंट में ट्रांसफार्मर स्थापित किया जाना। इसके अलावा इसके परिचालन में ऐसी ऐसी लापरवाहियां  उजागर होती हैं जिन्हें सामान्य तौर पर नजरअंदाज नहीं किया जा सकता था और इन गलतियों को दुरुस्त किए बिना सिनेमाघर के संचालन की अनुमतियाँ नहीं दी जा सकती थी। ऐसी गलतियां देखने में बहुत सामान्य लगें लेकिन जिन्हें सुरक्षा के मद्देनजर नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता था जैसे सिनेमाघर में अलार्म का न होना, अग्निशमक यंत्रों का न होना, हॉल में बैठने की व्यवस्था बदल दिया जाना, निकास द्वारों को बंद कर दिया जाना, कोई बेटिकिट सिनेमाघर में प्रवेश न ले सके इसके लिए सभी प्रवेश द्वारों पर बाहर से ताला जड़ दिया जाना।   

उपहार सिनेमा त्रासदी एक ऐसी त्रासदी थी जिसने सार्वजनिक जगहों पर एक आम नागरिक की सुरक्षा को लेकर राज्य के साथ हुए करार और वचन को न केवल तोड़ा बल्कि ज़रूरी सुरक्षा उपायों को मामूली मान लिए जाने जैसी प्रवृत्ति को उजागर किया। इसी घनघोर लापरवाह प्रवृत्ति की कीमत 59 लोगों की असमय मौत का कारण बना। इन 59 लोगों में ही नीलम और शेखर के दोनों बच्चे शामिल थे। कुछ ऐसे ही परिवार थे जिन्होंने अपने परिवार के सात लोग भी इस त्रासदी में खोए।

इन सभी के बीच एक ऐसा रिश्ता बना जो एक दूसरे का हाथ थाम रहे थे। इंसाफ पाने की ललक से जुड़े इन  परिवारों का एक संगठन निर्मित हुआ। ‘असोशिएशन ऑफ विक्टिम्स ऑफ द उपहार ट्रेजडी’ (AVUT) बना। इसकी पहल शेखर ने की और नीलम इसकी अध्यक्ष बनीं। ऐसे तमाम परिवारों को ढूंढना और उन्हें हौसला देकर इंसाफ के लिए साथ लाना उस दौर में कितना कठिन था जब अंसल समूह ने इन परिवारों को डराने-धमकाने का कोई मौका नहीं छोड़ा। यह इस दंपत्ति की ज़िद ही थी कि अंतत: इन्हें एकजुट किया और अदालत में मुक़द्दमा दायर किया।

सात एपिसोड्स की यह वेब सीरीज एक जीवंत दस्तावेज़ लगती है जिसे देखते हुए 1997 का वह मंज़र आंखों के सामने से गुज़रता है। ऐसी बेबसी और असहाय स्थिति में नीलम और शेखर का संघर्ष एक तरफ और दूसरी तरफ तंत्र की शातिराना कोशिशें जो किसी भी कीमत पर उन दो भाइयों और उनके कॉर्पोरेट समूह को बचाती दिखलाई पड़ती हैं।

हर एपिसोड, किसी नए पहलू को पिछले एपिसोड की धारवाहिकता में सामने लाता है और पीड़ित परिवारों की कथा कहता है। सीरीज को बहुत मानवीय स्पर्श के साथ बनाया गया है। कहीं से उत्तेजना नहीं है या एकतरफा नहीं है बल्कि पीड़ितों के विषाद, उनकी तकलीफ़ों और उनके गमों के साथ साथ सिस्टम से लोहा लेने की जिजीविषा को सामने लाया गया है। इस अंतहीन से लगने वाले संघर्ष में जब कभी नीलम और शेखर को अपने बच्चों की याद आती है तो वह दृश्य मन में गहरे उतरते हैं। ऐसा ही एक दृश्य जिसमें नीलम और शेखर ने अपने बेटे उज्ज्वल के 14वें जन्म दिन के लिए पहले से दिये गए केक के ऑर्डर की डिलीवरी का है। केक डिलीवर करने वाला उनके दरवाजे पर खड़ा है। शेखर उस केक को, इस डर से कि नीलम वहां आकार देख न लें, उसे किचन में कहीं छिपा देते हैं। नीलम बाथरूम में अपने बच्चों के टूथब्रश देखती हैं और यह सोचकर कि शेखर उन्हें देखकर दुखी होंगे,वहीं कहीं छिपा देती हैं।

नीलम किसी तरह किचिन में उस केक को देख लेतीं हैं और शेखर की आवाज़ सुनकर, उनके किचिन  में आने से पहले वो उसे फ्रिज में रख देती हैं। शेखर वो केक फ्रिज में देख लेते हैं लेकिन कुछ नहीं कहते। शाम को शेखर ‘असोशिएशन ऑफ विक्टिम्स ऑफ द उपहार ट्रेजडी’ (AVUT) की मीटिंग से लौटकर कुछ बताना चाहते हैं लेकिन नीलम सुनने से इंकार कर देती हैं- आज नहीं। और दोनों मिलकर अपने बेटे के जन्म दिन पर आया हुआ केक काटते हैं लेकिन खाते वक़्त उसे याद करके मायूस हो जाते हैं। इस दृश्य में संवाद न के बराबर हैं लेकिन शायद इससे गहरी अनुभूति किसी संवाद से व्यक्त नहीं हो सकती थी।

हालांकि हर बार जब जब नीलम इस गहरे विषाद में जाती हैं, और भी मजबूत होकर, डट कर खड़ी हो जाती हैं। बच्चों से अपने अतुलनीय प्रेम को इंसाफ की ज़िद और ज़िद को बदले की भावना से निकालकर बदलाव के लिए एक मुहिम बदलना इस सीरीज का अंतर्निहित संदेश है। एक जगह शेखर यह कहते भी हैं कि अब मकसद केवल अपने लिए इंसाफ लेना नहीं रहा बल्कि किसी और के साथ ऐसा न हो इसकी मुहिम बन गया है।

बिना किसी अतिरिक्त शोर शराबे या सनसनी के यह सीरीज आम नागरिकों के उस कर्तव्यबोध और नागरिक बोध को गहरी अभिव्यक्ति देती है जिसके बिना यह तंत्र एक शक्तिशाली षडयंत्र में किसी भी दिन बादल सकता है।

हालांकि ऐसी घटनाओं से क्या वाकई सरकारों ने, पूंजीपतियों ने या हमारे न्याया तंत्र ने कुछ ठोस सीखा? यह सवाल आज और ज़्यादा मौंजूं है जब देश में विकास का एक ऐसा मिथक रच दिया गया है जहां इस एक शब्द के लिए हम निरंतर अपनी आंखों के सामने विनाश देख रहे हैं। उत्तराखंड का जोशीमठ हमारी आंखों के सामने हर रोज़ तिल तिल खत्म हो रहा है। अब धंसा कि तब धंसा कि ऊहापोह में जोशीमठ के लोग किस तरह जी रहे हैं हम देख रहे हैं। इस समय सरकारों का रवैया क्या है हम यह भी देख रहे हैं।

नेग्लीजेंस अगर उपहार सिनेमा त्रासदी की मूल वजह थी तो यही नेग्लीजेंस आज जोशीमठ  के धंसते जाने की भी मूल वजह है। जिसे सरकारें लगातार नज़रअंदाज़ कर रही हैं - पूरी बेशर्मी के साथ। यह जब साबित हो ही गया कि एनटीपीसी की परियोजना, बांधों और बेतरतीब ढंग से बनाई गयी तमाम इमारतों, लपारवाह पर्यटन और ठेकेदारों के मुनाफे की भेंट जोशीमठ चढ़ रहा है तब भी सरकार बजाय अपनी गलतियां स्वीकार करने के उन संस्थानों को ही आदेशित कर रही है जो हिमालय के धंसने की वजहें बता रहे हैं। 15 जनवरी 2023 को आई इस खबर से हम अंदाज़ा लगा सकते हैं कि सरकारें अपने नागरिकों की सुरक्षा को लेकर किस बेशर्मी की हद तक लापरवाह है जिसमें बतलाया गया है कि सरकार ने ऐसे तमाम संस्थानों और भूगर्भ वैज्ञानिकों को आदेश किए हैं कि वो मीडिया में इस सुनियोजित आपदा के बारे में कोई बात न करें। इसके पीछे सरकार का लचर सा कुतर्क है कि इससे लोगों में भय और भ्रम फैलता है।

कोई ताज़्ज़ुब नहीं जब कुछ सालों बाद हम जोशीमठ के बारे में ऐसी ही किसी वेब सीरीज या मूवी से गुज़रें। संभव है कुछ दिशा निर्देश भी सरकार बनाए लेकिन उनका कुल महत्व इतना ही होगा कि इन्हें भूला जा सकता है। और विनाश का खेल इसी निर्बाध गति से जारी रह सकता है।

बहरहाल, यह सीरीज सरकारों या पूंजीपतियों के लिए खराब ज़ायक़ा हो लेकिन हम नागरिकों को लड़ने का हौसला देती है। नीलम के रूप में जयश्री देशपांडे और शेखर के रूप में अभय देओल ने ऐसा अभिनय किया है जैसे उन्होंने वाकई इस त्रासदी को जिया हो। बाकी सभी कलाकारों अनुपम खेर, रत्ना शाह पाठक, राजेश तैलंग ने अपनी छोटी छोटी भूमिकाओं में भी मुद्दे की संवेदनशीलता में अपनी तरफ से इजाफा किया है। रंदीप झा, अवनि देशपांडे और प्रशांत नायर द्वारा निर्देशित इस सीरीज को ज़रूर देखा जाना चाहिए। यह नेट्फ़्लिक्स पर उपलब्ध है।

(लेखक बीते दो दशकों से जन आंदोलनों से जुड़े हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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